43 बरस बाद के हालात ने इमरजेन्सी की परिभाषा ही बदल दी-पुण्य प्रसून वाजपेयी

43 बरस बाद के हालात ने इमरजेन्सी की परिभाषा ही बदल दी-पुण्य प्रसून वाजपेयी
लाखों की तादाद में लोग सिफ़र् जेपी के एलान पर चले आये और जेपी ने अपने भाषण में कहा, श्श्छा= स्कूल-कॉलेजों से निकल आयें और जेलों को भर दें। पुलिस और सेना गैर-कानूनी आदेशों का पालन न करें और जेपी को लोग नजरअंदाज कर दें। उनके भाषण को न सुनें। रामलीला मैदान से निकलकर पीएमओ तक न निकलें। तो आकाशवाणी-दूरदर्शन पर शाम के समाचारों के बाद ये एलान किया जाता है कि आज फि़ ल्म श्श्बॉबी्य्य दिखायी जाएगी। तो सत्ता अपने विरोध को दबाने के लिए या कहे जनता का ध्यान बांटने के लिए कौन-कौन सी मोहक व्यूह रचना भी करती है और कानून का इस्तेमाल भी करती है।
1975 से लेकर 2018 तक। दर्जन भर प्रधानमंत्रियों की
कतार। इंदिरा गांधी से लेकर मोदी तक। इमरजेन्सी से लेकर अब तक। और 43
बरस पहले यानी 25 जून को ही देश पर इमरजेन्सी थोपी गई थी। पर इन 43
बरस में देश का विस्तार कितना हुआ। देश कितना बदल गया और कैसे 75 की
इमरजेन्सी 2018 तक पहुंचते-पहुंचते अपनी परिभाषा तक बदल चुकी है, ये
आज की पीढ़ी को जानना चाहिए। क्योंकि हिन्दुस्तान का एक सच ये भी है 1975
में भारत की आबादी 57 करोड़ थी और 2018 में भारत की आबादी 125
करोड़ पार कर चुकी है। तो इस दौर में देश में संवैधानिक व्यवस्था हो या संविधान में
दर्ज हक या अधिकार की बात। वह कैसे वक्त के साथ सत्ता की हथेलियों पर नाचने लगे।
जो सवाल न्यायपालिका के सामने 1975 में उठे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा
गांधी को कटघरे में खड़ा कर दिया। वही सवाल अब सत्ता-व्यवस्था का हिस्सा बन चुके
हैं। तो देश भी अभ्यस्त हो चुका है। यानी 1975 के सवाल बीतते
वक्त के साथ कैसे महत्व खो चुके हैं। या फि़ र सिस्टम का हिस्सा बना दिये गये,
इसे
देश में कोई महसूस कर ही नहीं पाता है क्योंकि संविधान की जगह पार्टियों के चुनावी
मेनिफ़ेस्टो ने ली है। कैसे अदालत के कठघरे में खड़ी इंदिरा सत्ता 43
बरस पहले खुद को सही ठहराने के लिए कौन से प्रचार और किस तरह जनता के प्रायोजित
हुजूम को हांक रही थी। और 43 बरस बाद कैसे प्रचार-प्रसार के वही
तरीके सिस्टम का हिस्सा बन गये और जनता अभ्यस्त होती चली गयी। इस अहसास को इसलिए
समझें क्योंकि 1975 के बाद जन्म लेने वाले भारतीय नगरिकों की तादाद मौजूदा वक्त में
दो-तिहाई है। यानी 80 करोड़ लोगों को पता ही नहीं कि इमरजेन्सी होती क्या है? याद
कीजिए 26 जून की सुबह 8 बजे आकाशवाणी से इंदिरा गांधी का
संदेश, राष्ट्रपति ने इमरजेन्सी की घोषणा की है। इसमें घबराने की जरूरत नहीं
है-----्य्य
तो हर सत्ता हर हालात को लेकर कुछ इसी तरह कहती है। घबराने की जरूरत
नहीं है। आपके जेहन में नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्राइक आये या कुछ और मुद्दे उससे
पहले याद कीजिए। 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले के बाद से लेकर 25
जून 1975 तक देश में हो क्या रहा था और वह कौन से सवाल थे, जिसे
अदालत सही नहीं मानता था और इंदिरा गांधी ने सत्ता छोड़ने की जगह देश पर इमरजेन्सी
थोप दी। तो 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस सिन्हा ने जन-प्रतिनिधित्व कानून की
धारा 123 ख 7, के तहत दो मुद्दों पर इंदिरा गांधी को दोषी माना। पहला, रायबरेली
में चुनावी सभाओं के लिए मंच बनाने और लाउडस्पीकर के लिए बिजली लेने में सरकारी
अधिकारियों का सहयोग लेना, और दूसरा, भारत सरकार के
अधिकारी जो पीएमओ में थे यशपाल कपूर की मदद चुनाव प्रचार में लेना। तो अब चुनाव
में क्या-क्या होता है और बिना सरकारी सहयोग के क्या सत्ता कोई भी चुनाव लड़ती है
ये कम-से-कम वाजपेयी-मनमोहन-मोदी के दौर को याद करते हुए कोई भी सवाल तो कर ही
सकता है और इस दौर ने तो पीवी नरसिंह राव का सत्ता बचाने के लिए झामुमो घूसकांड भी
देख लिये। मनमोहन के दौर में बीजेपी का संसद में करोड़ों के नोट उड़ाने को भी परख
लिया। यानी आप ठहाका लगायेंगे कि क्या वाकई देश में एक ऐसा वक्त था जब पीएमओ के
किसी अधिकरी से चुनाव के वक्त पीएम मदद लें और चुनावी प्रचार के वक्त सरकारी सहयोग
से मंच और लाउडस्पीकर के लिए बिजली ले जाये तो अपराध हो गया। इतना ही नहीं,
आज
के दौर में जब चुनाव धन-बल के आधार पर ही लड़ा जाता है तो 1971 के
चुनाव को लेकर अदालत 1975 में ये भी सुन रही थी कि क्या इंदिरा
गांधी ने तय रकम से ज्यादा प्रचार में खर्च तो नहीं किये। वोटरों को रिश्वत तो
नहीं दी। वायु सेना के जहाज-हेलीकॉप्टर पर सफ़र कर चुनावी प्रचार तो नहीं किया।
चुनाव चिन्ह गाय-बछड़े के आसरे धार्मिक भावनाओं से खेलकर लाभ तो नहीं उठाया। तो 43
बरस में भारत कितना बदल गया ये सत्ता के चुनावी मिजाज से ही समझा जा सकता है। जहां
धर्म के नाम पर सियासत खुलकर होती है। हिन्दुत्व चुनावी जुमला है। सरकारी लाभ
उठाना समान्य-सी बात है। क्योंकि समूची सरकार ही जब चुनाव जीतने में लग जाती हो और
सत्ताधारी पाटÊ गर्व करती हो कि उसके पास मोदी सरीखा प्रचारक है तो फि़र अधिकारियों
की कौन पूछे। फि़ र अबके वक्त तो खर्च की कोई सीमा ही नहीं है। हर चुनाव के बाद
चुनाव आयोग के आंकड़े सबूत है। और 2014 तो रिकॉर्ड खर्च के लिए जाना
जाएगा। जिसमें चुनाव आयोग ने ही इतना खर्च
किया जितना 1998, 1999, 2004 और 2009 मिलाकर खर्च
हुआ। उससे भी ज्यादा। फि़र अब तो वोटरों को रिश्वत बांटना सामान्य-सी बात है।
आखिरी कर्नाटक विधानसभा में ही दो हजार करोड़ पकड़ में आये जो सवाल संविधान के
खिलाफ़ लगते या फि़र गैर-कानूनी माने जाते थे, वही सवाल सियासी
तिकड़मों तले 43 बरस में ऐसे बदलते चले गये कि भारत के नागरिक ही हालातों से समझौता
करने लगे। क्योंकि 12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द किया
था। छह बरस तक प्रतिबंध लगाया था। तब इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट से फ़ैसला
अपने हक में कराया और सत्ता में बने रहने के लिए इमरजेन्सी थोप दी। फि़र 1975
में 12 से 25 जून तक जो दिल्ली की सड़क से लेकर जिस सियासत की व्यूहरचना तब एक सफ़
दरजंग रोड पर होती रही। उसे इतिहास में को अक्षरों में लिखा जाता है। पर वैसी ही
तिकड़में उसके बाद सियासत का कैसे हिस्सा बनते-बनते लोगों को अभ्यस्त कराते चली गई।
इस पर किसी ने ध्यान दिया ही नहीं। क्योंकि याद कीजिए 20 जून 1975।
कटघरे में खड़ी इंदिरा गांधी के लिए कांग्रेस का शक्ति प्रदर्शन। सत्ता के इशारे पर
बस, ट्रेन सब कुछ झोंक दिया गया। चारों दिशाओं से इंदिरा स्पेशल ट्रेन-बस
दिल्ली पहुंचने लगी। लोगों को ट्रैक्टर, कार, बस, ट्रक
मेें भरकर वोट क्लब पहुंचाया गया। पूरा सरकारी अमला जुटा था। संजय गांधी खुद समूची
व्यवस्था देख रहे थे। इंदिरा की तमाम तस्वीरों से सजे 12 फ़ुट ऊंचे मंच
पर जैसे ही इंदिरा गांधी पहुंचती हैं गगनभेदी नारे गूंजने लगते हैं और माइक
संभालते ही इंदिरा कहती हैं---्य्य देश के भीतर-बाहर कुछ शक्तिशाली तत्व उनकी
सत्ता पलटने का षड्यं= रच रहे हैं। इन विरोधी दलों को समाचार-प= का समर्थन प्राप्त
है और तथ्यों को बिगाड़ने या सफ़ेद झूठ फ़ैलाने की इन्हें अनोखी आजादी प्राप्त है।
सवाल ये नहीं है कि मैं जीवित रहूं या मर जाती हूं। सवाल राष्ट्र के हित का
है।्य्य 25 मिनट के भाषण को दिल्ली दूरदर्शन लाइव करता है। आकाशवाणी से सीधा
प्रसारण होता है।
यानी अब का दौर होता तो क्या-क्या होता ये बताने की जरूरत नहीं है।
कैसे सैकड़ों चौनलों से लेकर डिजिटल मीडिया तक सत्तानुकूल हो जाते हैं। और कैसे
किसी भी चुनाव रैली को सफ़ ल दिखाने के लिए ट्रेन, बस, ट्रकों
में भरकर लोगों को लाया जाता है। चुनावी बरस में सरकारी खर्च पर प्रचार-प्रसार
किसी से छुपा नहीं है और अब याद कीजिए रामलीला मैदान की 25 जून 1975 की
तस्वीर जब जेपी की रैली हुई। लाखों की तादाद में लोग सिफ़र् जेपी के एलान पर चले आये और जेपी ने अपने भाषण
में कहा, श्श्छा= स्कूल-कॉलेजों से निकल आयें और जेलों को भर दें। पुलिस और
सेना गैर-कानूनी आदेशों का पालन न करें और जेपी को लोग नजरअंदाज कर दें। उनके भाषण
को न सुनें। रामलीला मैदान से निकलकर पीएमओ तक न निकलें। तो आकाशवाणी-दूरदर्शन पर
शाम के समाचारों के बाद ये एलान किया जाता है कि आज फि़ल्म श्श्बॉबी्य्य दिखायी
जाएगी। तो सत्ता अपने विरोध को दबाने के लिए या कहे जनता का ध्यान बांटने के लिए
कौन-कौन सी मोहक व्यूह रचना भी करती है और कानून का इस्तेमाल भी करती है।
सुरक्षा कर्मियों को उकसाने के लिए जेपी के खिलाफ़ राष्ट्रदोह का मामला दर्ज होता है। 24
जून की रात भर 400 वारण्टों पर हस्ताक्षर हुए। जिसके बाद विरोधी नेताओं की गिरफ्तारी
के आदेश 25 की सुबह 10 बजे तक भेजे भी जा चुके थे। यानी कैसे
देश इमरजेंसी की तरफ़ बढ़ रहा था और कैसे
इंदिरा सत्ता एडवांस में ही निर्णय ले रही थी और इसमें समूची सरकारी मशीनरी कैसे
लग जाती है। यह हो सकता है आज कोई अजूबा ना लगे। क्योंकि हर सत्ता ने हर बार कहा
कि जनता ने उसे चुना है तो उसे गद्दी से कोई कानून उतार नहीं सकता। ये बात इंदिरा
गांधी ने भी तब कही थी।