भारत में बदतर स्वास्थ्य सेवाओं से परेशान लोगों को बीमा कवर का झांसा

2018-08-21 0

भारत में बदतर स्वास्थ्य सेवाओं से परेशान लोगों को बीमा कवर का झांसा

रबीश कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

श्श्भारत में मेडिकल शिक्षा कुछ स्थायी मिथकों से घिर गई है, जिन्हें तोड़ना सबसे जरूरी है। खानदानी और कुलीन परिवारों के कब्जे से इसे निकालने के लिए व्यापक सामाजिक समूह को भी मेडिकल शिक्षा के दायरे में लाना पड़ेगा। इन लोगों ने जान-बूझकर यह बात लोगों के दिमाग में बिठा दी है कि डॉक्टर होने के लिए दैवीय गुणों से लैस कुशाग्र होना बहुत जरूरी है। इसके बिना काबिल डॉक्टर नहीं बना जा सकता, जबकि काबिल डॉक्टर का होना इस बात पर निर्भर करता है कि आपमें सेवाभाव है या नहीं, यही असली मेरिट है।

डॉक्टर का मेरिट इस बात में नहीं है कि वह मेडिकल शिक्षा में कितने अंक लाता है, बल्कि इसमें है कि व उस पढ़ाई को व्यवहार में कितना उतार पाता है। हमारी मेडिकल शिक्षा में इन बातों को किनारे लगा दिया गया है। दूसरे बायोलॉजिकल साइंस की तरह मेडिकल ज्ञान भी तथ्यात्मक है, यह लॉजिकल या अवधारणात्मक नहीं है। मतलब आपको जो करना है, वह तथ्यों से साबित है, न कि आप ईश्वरीय शक्ति से भांपकर उपचार कर देते हैं। ऐसा कुछ नहीं होता है। जहां तक मेडिकल शिक्षा हासिल करने का सवाल है, इसे कोई भी परिश्रम के जरिए हासिल कर सकता है, बशर्ते उसे मेडिकल शिक्षा संस्थानों में आने का मौका मिले।---्य्य

यह पंक्ति मेरी नहीं, बल्कि दो डॉक्टरों की है। एक का नाम है डॉ- अनूप सराया, जो एम्स के गैस्ट्रोएंटेरोलॉजी विभाग के अध्यक्ष हैं। सारा जीवन स्वास्थ्य की नीतियों और भारत के अस्पतालों में घूम-घूमकर अध्ययन करने में लगा दिया। दूसरे डॉक्टर का नाम है डॉ- विकास बाजपेई। जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फ़ ॉर सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ मेें पढ़ाते हैं। डॉ- विकास रेडिशन ओन्कोलौजिट हैं।

इनकी एक किताब आई है, जिसका शीर्षक है ॥श्व्ररुञ्ज॥ क्चश्वङ्घह्रहृष्ठ रूश्वष्ठढ्ढष्टढ्ढहृश्व, स्ह्ररूश्व क्रश्वस्नरुश्वष्टञ्जढ्ढह्रहृस् ह्रहृ ञ्ज॥श्व क्कह्ररुढ्ढञ्जढ्ढष्टस् ्रहृष्ठ स्ह्रष्टढ्ढह्ररुह्र=ङ्घ ह्रस्न ॥श्व्ररुञ्ज॥ ढ्ढहृ  ढ्ढहृष्ठढ्ढªª, ९९५ की इस किताब को  ड्डड्डद्मड्डह्म्ड्ढशशद्मह्य-ष्शद्वने छापा है।

आज सुबह उठते ही इस किताब में प्रवेश कर गया। आजादी से लेकर आज तक भारत के लोक स्वास्थ्य की समझ नहीं होने के कारण ही मीडिया सरकारों के बीमा कवरेज को ही स्वास्थ्य समस्या का समाधान मान लेता है। जल्दी ही भारत सरकार स्वास्थ्य बीमा की नौटंकी करने वाली है। इसमें नरेन्द्र मोदी सरकार की आलोचना नहीं है, कोई दूसरी सरकार होती तो वह भी यही करती।

अस्पताल सिफ़र्  डॉक्टर से नहीं चलता, बल्कि इसके लिए बड़ी संख्या में टेक्नीशियन, फ़  शर्मासिस्ट, लैब सहायक, रेडियोलॉजिस्ट वगैरह की जरूरत होती है। भारत के शहरी और ग्रामीण अस्पतालों में इनकी भारी नहीं, महामारी के स्तर पर कमी है। एआइआइएमएस भोपाल में ही कई हजार नॉन-फ़ै कल्टी स्टॉफ़  की कमी है। जब एआइआइएमएस का यह हाल है, तब आप बाकी संस्थानों के बारे में अंदाजा लगा सकते हैं।

डॉ- अनूप सराया और डॉ- विकास वाजपेयी की यह किताब बताती है कि भारत में चाहे जितनी प्रकार की सरकारें रही हों, जितने दलों की सरकारें रही हों, पिछले 20 साल से स्वास्थ्य नीतियों के मामले में एक जैसी ही साबित हुई हैं। उसके पहले से की जा रही अनदेखी का नतीजा यह हुआ कि इन 20 सालों में स्वास्थ्य सेवाओं की समस्या भयावह हो गई। अस्पतालों की कुछ सुविधओं - जैसे, ²सग सफ़ शई, किचन वगैरह-को निजी हाथों में देने का कोई लाभ नहीं हुआ। ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि गुणवत्ता में सुधर हो, बल्कि आप कहीं भी इक्का-दुक्का अस्पतालों को छोड़ यह गिरावट अपनी आंख से देख सकते हैं, अगर राजनीतिक भक्ति में आंखों से नहीं देखना चाहते हों, तो।

भारत के अस्पतालों में साढ़े दस लाख बिस्तर हैं, जिनमें 8 लाख 33 हजार प्राइवेट अस्पतालों के हैं और 5 लाख 40 हजार सरकारी अस्पतालों के, प्राइवेट अस्पतालों के बिस्तरों का 70 फ़ ीसदी सिफ़र् 20 शहरों में केन्द्रित है। सरकारी अस्पतालों के बिस्तरों का 60 फ़ीसदी सिफ़र् 20 शहरों में है। सरकारी अस्पतालों में सारे बिस्तर काम भी नहीं करते हैं। इनका उपयोग नहीं होता है, क्योंकि डॉक्टर और जरूरी स्टॉफ़ नहीं हैं, आप इतने भर से समझ जाएंगे कि कस्बों और गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं का क्या हाल है और बीमा का कार्ड दे देने से क्या बदल जाएगा। बीमा एजेंट डॉक्टर नहीं होता है। यह बात पर्स में लिखकर रख लें। भारत में 1,000 की आबादी पर 0-3 से 0-5 से ज्यादा डॉक्टर कभी नहीं रहा। जब डॉक्टर ही नहीं है, तो बीमा क्या करेगा। बीमा यह करेगा कि आपको गुड फ़ ीलिंग देगा, मूर्ख बनाएगा।

अगर आप तुलना करना चाहें तो भारत में 1,000 की आबादी पर 0-9 बेड हैं। जाम्बिया भारत से बेहतर है, जहां 1,000 की आबादी पर 2 बेड हैं, मुल्क में 1,000 की आबादी पर 6-3 बिस्तर हैं। क्यूबा भी भारत की तरह चुनौतियों से भरा रहा, लेकिन उसने अपने रक्षा बजट से समझौता किया और जन-स्वास्थ्य को बेहतर बनाया। इस किताब को पढ़ते हुए आप जन-स्वास्थ्य के बारे में कुछ पहली बार जानते हैं और आगे इस विषय को समझते रहने का आधर हासिल करते हैं।

उड़ीसा, छत्तीसगढ़, राजस्थान के ग्रामीण अस्पतालों में 90 फ़ ीसदी विशेषज्ञों की कमी है। उत्तराखंड में 85 फ़ ीसदी की कमी है, बिहार और झारखण्ड में 10,000 की आबादी पर 0-5 फि़ जीशियन हैं तभी आप इन राज्यों में डॉक्टर के क्लिीनिक के बाहर उनसे ज्यादा चाय और खाने-पीने की दुकानों में भीड़ देखते हैं। डॉक्टर अनूप सराया ने कुछ सरकारी अस्पतालों का अनुभव लिखा है। शाम चार बजे के बाद कोई न²सग स्टॉफ़  नहीं होता, एक या दो स्टॉफ़ के भरोसे अस्पताल चलता है, जो नागरिक बाहर हिन्दू-मुस्लिम में बिजी रहते हैं, वे अस्पताल में पहुंचकर डॉक्टर को मारने लगते हैं, जबकि उन्हें इसका गुस्सा स्वास्थ्य के लिए नीति बनाने वाले सांसदों और विधयकों पर दबाव बनाकर निकालना चाहिए।

2011 की जनसंख्या के हिसाब से भारत की ग्रामीण आबादी से 83 करोड़ अधिक थी। इन 83 करोड़ लोगों के लिए मा= 45,062 डॉक्टर हैं, 2007 में भारत मेें इस आबादी के लिए 27,725 डॉक्टर थे। 2007 में अमेरिका की आबादी थी 30 करोड़, जबकि वहां भारत से 50,000 डॉक्टर जाकर काम कर रहे थे। आज भी यही अनुपात है। भारत से ही सबसे अधिक डॉक्टर अमेरिका जाते हैं और वहां से तिरंगा लेकर श्इंडिया-इंडिया्य करते हैं। हम मीडिया वाले उनकी कामयाबी को बढ़-चढ़कर दिखाते हैं कि अमेरिका में तीर मार लिया। तीर मारने की वजह वहां के सिस्टम की दी हुई सुविधओं और व्यवस्था में भी रही होगी। 1989 से 2000 के बीच 54 प्रतिशत मेडिकल ग्रेजुएट भारत से बाहर चले गये जो बने हैं, उसी का अता-पता नहीं है। वहां सुविधएं नहीं हैं, चूंकि उम्मीद जगाता है, इसलिए नेता अब इस नाम से हर जगह अस्पताल का शिलान्यास कर देते हैं। पब्लिक पहले की तरह लद-फ़ शंदकर दिल्ली आती रहती है।

यही नहीं, हर दल की सरकारों ने अपने स्वास्थ्य बजट का 50 फ़ ीसदी भी ग्रामीण स्वास्थ्य पर खर्च नहीं किया है। चाहे केन्द्र की सरकार रही हो या राज्य की। जहां खर्च हुआ है, वहां भी दूसरी सुविधाएं नदारद हैं और जनता को खासकर लाभ नहीं मिल रहा है। अब देखिए, 2011 के आंकड़े के अनुसार बिहार के ग्रामीण सरकारी अस्पतालों में 1,830 बेड हैं, तो शहरों में सरकारी अस्पतालों में 16,886 हैं। भारत ने 1977 में ही अल्मा आटा घोषणाप= के तहत लक्ष्य तय किया था कि सन् 2000 तक सबको हेल्थ केयर देंगे। आज तक नहीं मिला। अब बीमा को हेल्थ केयर का विकल्प बनाया जा रहा है। यह सिफ़र्  जनता को मूर्ख बनाकर ही संभव हो सकता है।

समस्या है कि प्राइवेट-पब्लिक मिलाकर न तो डॉक्टर हैं, न पर्याप्त अस्पताल, न विशेषज्ञ। लोगों का दबाव इतना है कि अस्पताल में घुसते ही मन्नतों का दौर शुरू हो जाता है। ज्योतिष और पीरों की मजार पर चढ़ावा जाने लगता है। डॉक्टर और अस्पताल भी लूटने लगते हैं। हम कभी स्वास्थ्य सेवाओं को समग्र रूप से नहीं देखते। तुरंत अपवाद स्वरूप अच्छे अस्पतालों और डॉक्टरों के सहारे इन सवालों को किनारे लगा देते हैं, इसलिए भारत की रैकिंग हेल्थ केयर के मामले में नीचे आ जाए, तो हैरान न हों। इसमें अचरज की क्या बात। अचरज की बात यह है कि इसके बाद भी आप इन सवालों को महत्व नहीं देते हैं, न देंगे, बेहतर है, आप बीमा कवर ले लें। 



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