राष्ट्र को सुदृढ़ करने के लिए हिंदी को जरूरी मानते थे महात्मा गांधी

राष्ट्र को सुदृढ़ करने के लिए हिंदी को जरूरी मानते थे महात्मा गांधी
श्री भगवान सिंह
भारत के समस्त मजदूरों में भाईचारा हो, उत्तर और दक्षिण
में मेल हो, इसके लिए एक भाषा के रूप में हिंदी की अपरिहार्यता को गांधी जी ने
निभÊक स्वर में रखा। यह बात सिफ़र् आर्थिक आधार पर विश्व के मजदूरों को
एक होने की बात करने वाली मार्क्सवादी अवधारणा के आलोक में अटपटी लग सकती है,
किंतु
हर देश की कुछ अपनी विशिष्ट समस्याएं होती हैं। बहुभाषा-भाषी भारत जैसे देश में
जहां जनता, चाहे श्रमजीवी हो या बुि)जीवी, विभिन्न
भाषा-समूहों में बंटी हुई हो, वहां किसी भी सामान्य लक्ष्य के लिए
किये जाने वाले संघर्ष में एक भाषा के सू= में उन्हें संगठित करना एक फ़ौरी तकाजा
तो था ही, भविष्य के लिए भी राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए आवश्यक था। इसलिए
भी गांधी जी उत्तर और दक्षिण के बीच मेल के लिए लगातार हिंदी सीखने पर जोर देते
रहे।
जब 1937 में उनके बहुत बड़े सहयोगी राजगोपालाचारी ने मुख्यमं=ी के रूप में
मद्रास प्रांत के स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य कर दी और जब उसका श्मातृभाषा
खतरे में्य के नाम पर कुछेक तमिल भाषियों द्वारा विरोध किया गया, तब
गांधी जी ने राजा जी का पक्ष लेते हुए 10-09-1938 के श्हरिजन्य
में लिखा, श्हमने बार-बार घोषणा की है कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा या प्रांतों
के आपसी व्यवहार की सामान्य भाषा है या होनी है। यदि हमारी इस घोषणा के पीछे
ईमानदारी है, तो हिंदी के ज्ञान को अनिवार्य बनाने में बुराई कहां है? श्मातृभाषा
खतरे में है्य यह नारा तो अज्ञान रूप है या एक पाखंड है और जहां इसके पीछे
ईमानदारी है वहां भी उन लोगों की देशभक्ति के लिए अपवादमय चीज है।्य यदि हमें अखिल
भारतीय राष्ट्रीयता के धर्म तक पहुंचना है, तो प्रांतीयता
के आवरण को भेदना होगा। भारत एक देश और एक राष्ट्र है अथवा अनेक देश और अनेक
राष्ट्र हैं? जो मानते हों कि यह एक देश है उन्हें राजा जी को अपना पूरा समर्थन
देना चाहिए।्य
इससे ऐसा नहीं समझना चाहिए कि गांधी जी प्रान्तीय भाषाओं के विरोधी
थे। वे तो सभी प्रांतों में शिक्षा का माध्यम वहीं की भाषाओं को बनाने के पक्ष में
शुरू से रहे, लेकिन जहां तक भारत को एक देश, एक राष्ट्र के
रूप में सुदृढ़ करने का सवाल था, उसके लिए वे राष्ट्रभाषा के बतौर हिंदी
के पक्ष में सभी को प्रान्तीयता के मोह से ऊपर उठना आवश्यक मानते एवं बताते रहे।
यही कारण था कि उन्होंने राजा जी द्वारा मद्रास प्रांत में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य
करने का खुलकर समर्थन किया और सभी से श्प्रान्तीयता के आवरण को भेदने्य की अपील
की। गांधी जी भारत के लिए जिस स्वराज्य को आवश्यक समझते थे, वह तभी संभव था
जब राष्ट्रीयता का पूर्ण विकास हो और यह काम एक राष्ट्रभाषा को अपनाये बगैर हो
नहीं सकता था। इस प्रकार गांधी जी स्वराज्य, राष्ट्रीयता और
राष्ट्रभाषा तीनों को अंतग्रंथित करने वाले प्रथम शिल्पी थे।
यों तो गांधी जी द्वारा हिंदी प्रचार के कार्यों का इतना लम्बा
अध्याय है कि उसे यहां पर समेट पाना संभव नहीं है, फि़र भी यहां
प्रस्तुत तथ्यों के आधार पर यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि हिंदी नवजागरण
को उन्होंने पूरे देश में फ़ैलाया। राष्ट्रभाषा हिंदी के लिए उन्होंने सम्प्रेषक
की शानदारए बेमिसाल भूमिका का निर्वाह किया। एक वक्ता, प्रचारक,
लेखक,
प=कार,
सामाजिक
कार्यकर्ता एवं राष्ट्रनेता आदि के समस्त रूपों में वे राष्ट्रभाषा के रूप में
हिंदी के राष्ट्रव्यापी प्रचार में लगे रहे। हिंदी के लिए वे अपने जीवन-काल में एक
महासंस्था स्वरूप हो गये। उनकी प्रेरणा से कितने लोगों ने हिंदी के प्रचार को अपने
जीवन का श्मिशन्य बना लिया। प्रसंगवश यह उल्लेखनीय है कि उनका हिंदी के लिए
प्रचार-अभियान नाना विरोधों-विवादों से आक्रांत भी होता रहा। विस्तार में जाने का
यहां अवकाश नहीं है, भारत में उन्हें उर्दू एवं फ़ारसी लिपि-प्रेमियों के विरोध का सामना
करना पड़ा, तो मद्रास प्रांत में अहिंदी भाषियों के विरोध का। 1936 के
बाद मजबूर होकर गांधी जी को हिंदी की बजाय श्हिंदुस्तानी्य शब्द को राष्ट्रभाषा के
लिए अपनाना पड़ा और इस विषय पर श्प्रयाग हिंदी साहित्य सम्मेलन्य से उनके मतभेद
इतने बढ़े कि उन्होंने जुलाई, 1945 में सम्मेलन की सदस्यता से त्यागप= दे
दिया और फि़र श्हिंदुस्तानी प्रचार-सभा्य का गठन कर उसके तहत काम किया, लेकिन
इससे पूर्व सत्ताईस वर्षों तक श्हिंदी साहित्य सम्मेलन्य का सदस्य रहकर दक्षिण
भारत हिंदी प्रचार सभा के संस्थापक संचालक रहकर उन्होंने हिंदी प्रचार को
राष्ट्रव्यापी विस्तार देने में अग्रणी भूमिका निभायी। राष्ट्रभाषा के रूप में
हिंदी के पक्ष में राष्ट्रीय स्तर पर जनमत बनाने, मानसिकता तैयार
करने में उनकी अतुलनीय भूमिका रही। उत्तरी भारत में उभरे हिंदी नवजागरण को
राष्ट्रीय जागरण में परिणत करने का श्रेय गांधीजी को ही देना होगा। इस तथ्य को
ध्यान में रखते हुए हमें श्हिंदी नवजागरण्य से आगे बढ़कर श्हिंदी के राष्ट्रीय
जागरण्य की बात करनी चाहिए, तभी हम हिंदी के लिए गांधीजी द्वारा
किये गये कार्यों के साथ न्याय कर सकेंगे। एक और बात की तरफ़ ध्यान देना वाजिब है
जो हिंदी पहले कुरू जनपद द्धदिल्ली से मेरठ के बीच का क्षे=ऋ की बोली थी और जिसके
अंतर्गत बाद में उत्तर प्रदेश, बिहार आदि के क्षे= समझे जाने लगे,
जिसके
आधार पर एक श्हिंदी जात्यि की बात की जाने लगी है, उस हिंदी का
पूरे देश में प्रचार कर गांधीजी एवं उनके सहयोगियों ने उसे प्रांतीय भाषा के
दर्जें से ऊपर उठाया, उसमें राष्ट्रीयता की अंतर्वस्तु का समावेश किया। अतएव श्हिंदी
जात्यि की बात करना राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सही नहीं लगता। हिंदी की कोई जाति
है तो सम्पूर्ण भारतीयता ही उसकी जाति है, क्योंकि उस पर श्राष्ट्रवाणी्य होने का
दायित्व सौंपा जा चुका है। गुजराती, मराठी, बंगाली जाति की
बात करना उन प्रांतीय भाषाओं की दृष्टि से सही हो सकता है, लेकिन गांधी जी
जैसे हिंदी-सेवियों के कार्यों को देखते हुए श्हिंदी भाषा प्रदेश्य जैसी कथित
धारणा के आधार पर श्हिंदी जात्यि की अवधारणा प्रस्तुत करना हिंदी के दायरे से उन
सभी हिंदी-सेवियों को अलग करना, विजातीय बनाना होगा, जिन्होंने
गुजरात, महाराष्ट्र, आंध प्रदेश, तमिलनाडु आदि
प्रदेशों के होते हुए हिंदी के प्रचार-प्रसार में बहुमूल्य अवदान दिया और अब भी दे
रहे हैं।
श्हिंदी जात्यि की बात करने से राष्ट्रव्यापी हिंदी का दायरा संकुचित
होता है, एक समुद्र को नदी जैसा बनाना होता है और इसके परिणामस्वरूप अन्य
भाषा-भाषियों में हिंदी के प्रति परायेपन का बोध होता है, इस बात को हमें
ध्यान में रखना चाहिए।