आखिर दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कैसे बनी भाजपा?

आखिर दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कैसे बनी भाजपा?
शिवानन्द द्विवेदी
भारत की राजनीति में दलीय व्यवस्था का उभार कालान्तर में बेहद रोचक
ढंग से हुआ है। स्वतंत्रा के पश्चात कांग्रेस का पूरे देश में एकछत्र राज्य हुआ करता
था और विपक्ष के तौर पर राज गोपाल चारी की स्वतंत्र पार्टी , भारत की
कम्युनिस्ट पार्टी सहित बहुत छोटे स्तर पर जनसंघ के गिने-चुने लोग होते थे। उस दौरान
भारतीय राजनीति में एक दलीय व्यवस्था के लक्षण दिख रहे थे। सैकड़ों वर्षों की गुलामी
के बाद आजाद हुए मुल्क को पंडित नेहरु के रूप में जो पहला प्रधानमंत्री मिला उसमे
जनता अपने मसीहा की छवि देखने लगी थी। नेहरु ने भी समाजवाद को प्रश्रय देकर खुद को
जनता के करीब ले जाने की भरसक कोई कोशिश नहीं छोड़ी थी। लेकिन नेहरु की यह आभा
अनुमान से कम समय में ही फ़ीकी पड़ने लगी। खैर, यह वैश्विक स्तर
पर एवं भारत की राजनीति में भी सोशलिज्म और कम्युनिज्म के विमर्श का दौर था।
सोवियत के कम्युनिज्म और स्टालिन की आभा से भारत का कम्युनिज्म प्रभावित था तो
वहीं नेहरु इन दो विचारों के बीच का रास्ता तलाश रहे थे जो उन्हें भारतीय जनमानस
के अनुकूल बना सके। खैर, कम्युनिज्म और सोशलिज्म के इस विमर्श
में राजनीतिक रूप से राष्ट्रवाद अर्थात नेशनलिज्म का विमर्श उतना मजबूत नहीं हो
पाया था, लेकिन छोटे स्तर पर ही सही कश्मीर के बहाने यह मुद्दा जनसंघ के नेता
डॉ- श्यामा प्रसाद मुखर्जी मजबूती से उठाने लगे थे। क्योंकि यही
वो दौर था जब कश्मीर के भविष्य का निर्णय होना था। एकबार सदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु इतने गुस्से में आ गये कि डॉ- श्यामा प्रसाद मुखर्जी की
तरफ़ इंगित करते हुए कह दिया श्आई विल
क्रश जनसंघ्य। इस पर डॉ- मुखर्जी उठे और बोले, श्आई विल क्रश
दिस क्रशिंग मेंटालिटी्य। खैर, उस समय के राजनीतिक पंडितों अर्थात
बुि)जीवियों को शायद इसबात का अनुमान भी नहीं होगा कि इस देश का भविष्य कांग्रेस
के एकदलीय व्यवस्था की बजाय बहुदलीय व्यवस्था की तरफ़ तेजी से एवं नैसर्गिक रूप से बढ़ेगा। लेकिन हुआ
यही, साठ के दशक के उतरार्ध तक देश के तमाम राज्यों में गैर-कांग्रेसी
सरकारें बन चुकी थीं। इंदिरा गांधी को कम्युनिस्टों से सहयोग लेकर सरकार चलाने की
नौबत आ गयी थी। वहीं साठ के पूर्वार्ध में ही जनसंघ 3 सीट से 14
सीट तक पहुँच चुका था। धीरे-धीरे समाजवादी ताकतें कांग्रेस की बजाय जनसंघ के करीब
आने लगी थीं। भारतीय राजनीति के सबसे बड़े समाजवादी डॉ- लोहिया गैर-कांग्रेसवाद का
बिगुल हर स्तर पर फ़ूं क चुके थे। लोहिया ने कहा था कि कांग्रेस को हराने के लिए
अगर शैतान से भी हाथ मिलाना पड़े तो मिला लो। लोकनायक जयप्रकाश नारायण राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के प्रति आकर्षित होने लगे थे। जिस संघ को कांग्रेस ने अपने खिलाफ़
उठे जनाक्रोश को भटकाने के लिए फ़ासीवादी कहा था, उसी संघ के एक
शिविर में जेपी 1959 में जा चुके थे। उन्होंने संघ को अछूत नहीं माना। आपातकाल के बाद जब
जेपी जेल से छूटे तो उन्होंने मुंबई में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था,
श्मैं
आत्मसाक्ष्य के साथ कह सकता हूं कि संघ और जनसंघ वालों के बारे में यह कहना कि वे
फ़ासिस्ट लोग हैं, सांप्रदायिक हैं, ऐसे सारे आरोप बेबुनियाद हैं।्य तीन
नवंबर 1977 को पटना में संघ के लिए जेपी ने कहा था कि नए भारत के निर्माण की
चुनौती को स्वीकार किए हुए इस संगठन से मुझे बहुत कुछ आशा है। आपमें ऊर्जा है,
आपमें
निष्ठा है और आप राष्ट्र के प्रति समर्पित हैं।
दरअसल यह वो दौर था, जब देश का आम जनमानस कांग्रेस के
एकदलीय व्यवस्था के उभार से मुक्ति पाना चाहता था एवं कम्युनिस्टों की विचारधारा
उन्हें इस देश को भारतीयता के अनुरूप नहीं लगी। लिहाजा उस दौर में गैर-कांग्रेसवाद
के खिलाफ़ उठे हर आन्दोलन को विपक्ष के
उभार एवं स्थापना का आन्दोलन कहा जा सकता है। आमजन के मन में मजबूत विपक्ष के उभार
की इच्छा थी और लोकतन्= के नाम पर एकदलीय तानाशाही को देश की जनता कतई स्वीकार
नहीं कर पा रही थी। परिणामत आपातकाल के बाद इस देश में तमाम राजनीतिक विकल्प उभरकर
आये जो तब कांग्रेस के खिलाफ़ थे। चूँकि
कांग्रेस और कम्युनिस्ट दोनों के राजनीतिक धरातल को वो आन्दोलन नुकसान पहुंचा रहा
था, लिहाजा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी भी तब इंदिरा
गांधी के आपातकाल का समर्थन कर रही थी। लेकिन 1977 में इस देश की
राजनीति में पहली बार केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी और विपक्ष के अस्तित्व
की संभावना अंकुरित हुई और एकदलीय से बहुदलीय लोकतं= का बीज अंकुरित हुआ। हालांकि यह
सरकार अधिक दिनों तक नहीं चली, लेकिन इसने इस देश में बहुदलीय
व्यवस्था की जमीन जरूर तैयार कर दी थी। इस पूरे आन्दोलन में राष्ट्रीय स्वयं सेवक
संघ के संघर्षों के बाद देश का आम जनमानस राष्ट्रवाद की मूल अवधारणा के साथ चलने
को तैयार हो चुका था। जनता का विश्वास राष्ट्रवाद की विचारधारा में मजबूत हुआ और
कम्युनिस्ट खारिज कर दिए गये।
इसी क्रम में 6 अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई और अटल बिहारी वाजपेयी इसके संस्थापक अध्यक्ष बने।
इसके बाद भाजपा ने राजनीतिक संघर्षों के अच्छे और बुरे दोनों दौर देखे। लेकिन
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शाहबानो मामले में जिस
ढंग से तुष्टिकरण की राजनीति का प्रयास किया, उसने एकबार फि़र
देश की जनता के मानस में कांग्रेस के लिए नकारात्मकता का भाव भर दिया। एक तरफ़
राजीव गांधी तुष्टिकरण की राजनीति कर रहे थे, वही बाफ़े ोर्स
का जिन्न उन्हें छोड़ नहीं रहा था, लिहाजा फि़र एकबार देश का मानस भाजपा
की मजबूती के पक्ष में गया और भाजपा के समर्थन से वीपी सिंह की सरकार बनी। भाजपा
समर्थित इस सरकार ने वो कर दिखाया जो कांग्रेस में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी
दोनों न कर पाए थे। 1980 से ही मंडल कमिशन की सिफ़ारिशें लम्बित थीं, लेकिन उसे लागू
किया भाजपा के समर्थन से चल रही एक सरकार ने। लेकिन जब मंडल लागू हुआ तो देश में
विभाजन और द्वेष की ऐसी लकीर खिंचनी शुरू हो गयी थी, जिसके परिणाम
बहुत घातक थे।
मंडल लागू होने की वजह से हिन्दू समुदाय दो फ़ाड़ होने लगा था, लिहाजा हिन्दू एकजुटता के लिए वैचारिक तौर पर प्रतिब) भाजपा ने मंदिर आन्दोलन के माध्यम से हिन्दुओं को एकजुट करने का प्रयास किया। लेकिन मंडल के मुद्दे भाजपा का समर्थन पा चुके वीपी सिंह मंदिर के मुद्दे पर भाग खड़े हुए और भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवानी को गिरफ्तार कर लिया गया। अपने शीर्ष नेता की हुई गिरफ्तारी के बाद भाजपा के पास समर्थन लेने के अलावा कोई चारा नहीं था। इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा के उस मन्दिर आन्दोलन ने देश के हिन्दू समुदाय के बीच होने वाले एक द्वेष पूर्ण हिंसा को रोकने का कार्य किया थाए जिसपर बहुत कम बहस की गयी है। कांग्रेस के समक्ष उभरे तमाम दलों के बीच आज अगर भाजपा ही सबसे बड़ी पार्टी बनी है, तो यह किसी और करिश्मा की वजह से नहीं बल्कि अपनी वैचारिक प्रतिब)ता की वजह से बनी है। नब्बे का दशक जाते-जाते देश को पांच साल तक काम करने वाली पहली गैर-कांग्रेसी सरकार दे गया। भाजपा के संस्थापक अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी अलग-अलग कार्यकाल के लिए तीन बार देश के प्रधानमंत्री बने। आज 2017 में भाजपा की स्थापना के 37 साल पूरे हो गए हैं। सैतीस साल पहले पंडित दीन दयाल उपाध्याय के वैचारिक दर्शन और डॉ- श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा दिए गये बलिदान से प्रेरित होकर जिस पार्टी की बुनियाद रखी गयी, वह आज दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन चुकी है। पार्टी की संघर्ष यात्र में अपना जीवन खपा देने वाले पार्टी के ही एक कार्यकर्ता नरेंद्र मोदी आज देश की पहली पूर्ण बहुमत वाली किसी गैर-कांग्रेसी सरकार के प्रधानमंत्री हैं। आज की तारीख में संगठन की कमान बूथ स्तर से चलकर केंद्र तक आने वाले एक सामान्य कार्यकर्ता की तरह काम कर चुके अमित शाह के हाथों में है। भाजपा को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनाने का श्रेय भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह की इस जोड़ी को ही जाता है। एक मामूली कार्यकर्ता पार्टी के शीर्ष पदों तक पहुँच सकता है, यही वो बात है जो इस दल को श्पाट विद ए डिफ़ रेंस्य की अवधारणा में फि़ट साबित करती है।