तुम आए नहीं!

तुम आए नहीं!
दयाशंकर मिश्र
मैं बहुत छोटा था। इतना छोटा कि बोर्ड परीक्षा की मुश्किलों तक नहीं
पहुंचा था। हम गांव में रहते थे बल्कि यूं कहें कि शहर और गांव के बीच रहते थे। इस
दौरान अक्सर मुझे बहुत सी यात्र, संवाद का अनुभव मिला। सच कहें तो यह
ऐसे अनुभव की पूंजी थी, जिसमें कोई मिलावट नहीं थी। इनमें कुछ था तो विविधता, प्रेम
और स्नेह के स्पर्श की अनुभूति ऐसी ही एक
यात्र में मेरे एक चाचा जी ने मुझे लगभग दपटते हुए कहा, श्तुम हर बात
में मुझे आप-आप क्यों कहते हो, अरे भाई! माना कि हम कम मिलते हैं,
लेकिन
मैं तुम्हारा चाचा ही हूं। मैं तुम हूं, आप नहीं हूं! उनकी बात सही थी,
क्योंकि
मैं अपने चाचा, मामा जिनके साथ अक्सर रहता था, कभी आप कहकर
नहीं बुलाता था। उनके लिए कभी आप शब्द निकलता ही नहीं था। जिनने मुझसे शिकायत की
थी, वह भी प्रिय हैं, लेकिन कम संवाद और अधिक आदर दिखाने के
चक्कर में मैं अक्सर उनके लिए आप का उपयोग करता था।
उसके बाद से मेरे जीवन में यह बात एक संस्कार की तरह बैठ गई। वह सभी
जिनसे आत्मीयता हो गई, जो रिश्तों के बंधन से पार होकर आत्मा तक जा पहुंचे। उनके लिए आप
कहना बड़ा मुश्किल हो जाता है। लेकिन आज इतने बरस बाद, उस घटना के कई
दशक बीत जाने के बाद यह बात मैं क्यों कर रहा हूं! इसलिए क्योंकि अहमदाबाद में
मुझे भाषा और संबंध पर काम कर रहे कुछ दिलचस्प लोगों के साथ बात करने का मौका
मिला। इनमें से कुछ विशेषज्ञों ने कहा कि इन दिनों बच्चों को हम कुछ ज्यादा ही अनुशासन और तरीकों में रखने की कोशिश कर रहे हैं। इसका नतीजा यह हो रहा है कि
बच्चों में आत्मीयता की खासी कमी देखी जा रही है। बच्चों के अपने परिवार
द्धसंयुक्त परिवार और मामा, फ़ू फ़ श वगैरहऋ में रिश्तों की ऊष्मा
में कमी देखी जा रही है। अब बच्चों से लाड़-दुलार की जगह कहीं अधिक फ़ोकस द्धअपने
काम से काम यानी होमवर्क और एक्टिविटीऋ पर जोर देने का आग्रह किया जा रहा है। इन
रिश्तों के जानकार और भाषा के प्रेमियों का कहना है कि बच्चे कम उम्र में जितना
अधिक अपने परिवार, रिश्तेदारों के बच्चों से घुलते-मिलते हैं, उनके बीच
जिंदगीभर मीठे रिश्ते रहने के साथ ही उनके खुद के भीतर भी श्नमी्य बनी रहती है। सच
पूछिए तो यह श्नमी्य, जिसे दूसरों के प्रति आत्मीयता भी कहा जा सकता है, उससे
ही जिंदगी में असल रस मिलता है। हम अक्सर छोटे-मोटे मनमुटाव और बहसों को दिल से
लगाए बैठे रहते हैं। और एक रोज अचानक हमारी कहानी के किसी किरदार के बहुत दूर चले
जाने की खबर आ जाती है। उसके बाद हम हमेशा इस टीस के साथ जीते हैं कि काश! हमने उस
नकली दीवार को गिरा दिया होता, जो जिंदगी के प्यार के बीच श्तकरार का
छौंक्य भर थी।
अब सामाजिक व्यवहार में एक परिवर्तन भी दिख रहा है। पहले लोग परिवार
का उत्सव मिस नहीं करते थे। दोस्तों और पड़ोसियों का कर देते थे। अब इधर एक अलग चलन
दिख रहा है, शायद पति-पत्नी दोनों का कामकाजी होना भी इसकी एक वजह है। अब लोग
रिश्तेदार, परिवार के उत्सव, सुख-दुख में अपनी हिस्सेदारी की जगह
दोस्तों, अपार्टमेंट में हिस्सेदारी को अधिक महत्व दे रहे हैं। अब धीरे-धीरे
परिवार में श्तुम आए नहीं!' का स्वर धीमा होता जा रहा है। इसकी जगह मान लिया जाने
लगा है कि आना मुश्किल ही होता है। जिसे उम्मीद करनी है और जिसके आने की उम्मीद है,
दोनों
ही मान लेते हैं कि आना तो असल में मुश्किल ही होता है।
यह समझदार, रिवाज उन रिश्तों की मिठास को कम कर
रहा है, जो जिंदगी के तनाव, शोर को कम करने का काम करते थे।
रिश्तों को हम एटीएम मशीन की तरह उपयोग करने लगे हैं। जरूरत पड़ी तो एटीएम गए,
नहीं
है तो नहीं गए। क्या जिंदगी 'तुम आए नहीं' के बिना सूनी नहीं हो गई है!