कैसे स्थापित होगा राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र !

कैसे स्थापित होगा राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र !
कपिल शर्मा
कई बार भारतीय मतदाताओं के दिमाग में ये सवाल जरूर आता होगा कि कई राजनीतिक दलों के अध्यक्ष पद पर एक ही व्यक्ति का निर्वाचन निर्विरोध सुनिश्चित होता है तो फि़र राजनीतिक दल में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव क्यों कराया जाता है? असल में भारत में कई राजनीतिक दल अपने आंतरिक लोकतंत्र को लेकर उतने पारदर्शी नहीं हैं, जितना भारतीय लोकतांत्रिक भावना के तहत उन्हें होना चाहिए। गौरतलब है कि भारत में चुनाव लड़ने के इच्छुक राजनीतिक दल को पंजीकृत होने के लिए लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29क एवं राजनीतिक दलों के पंजीकरण आदेश 1992 के तहत पंजीकरण हेतु आवेदन देना होता है और इसमें स्पष्ट उल्लेख करना होता है कि वे अपने दल के पदों के चुनाव हेतु अधिकतम पांच साल के भीतर स्वतंत्र , पारदर्शी, निष्पक्ष चुनाव कराएंगे। इसके अलावा कोई भी राजनीतिक दल अपने आंतरिक सांगठनिक प्रशासन के कुल पदों के एक तिहाई से ज्यादा में नामित करने की प्रक्रिया को नहीं अपनाएगा। लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है।
राजनीतिक दलों में चुनाव तो होते हैं लेकिन अध्यक्ष, उपाध्यक्ष,
महासचिव
जैसे पद कई लोगों के लिए अघोषित तौर पर आरक्षित से कर दिए जाते है। यहीं नहीं
राजनीतिक दलों के पंजीकरण के लिए बनाए गए नियमों में इस बात का उल्लेख भी आवेदन
करने वाले राजनीतिक दल को करना पड़ता है कि उसकी सदस्यता समाज के हर वर्ग, धर्म,
जाति,
क्षेत्र के वयस्क भारतीय नागरिक के लिए पूर्ण लोकतांत्रिक तरीके से खुली हुई है और कोई भी
इसका सदस्य बन सकता है, लेकिन व्यवहार में कई राजनीतिक दल जाति विशेष, धर्म अथवा भाषा
विशेष के जनाधार वाले व्यक्तियों को ही प्राथमिकता देते हैं। भारत में कई राजनैतिक
दल इसका उदाहरण हैं।
ज्यादातर राजनीतिक दलों में जाति या वर्ग विशेष के नागरिकों को सदस्य
बनाने के लिए अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ, क्षत्रिय प्रकोष्ठ, अनुसूचित
जाति एवं जनजाति प्रकोष्ठ, पिछड़ा प्रकोष्ठ, ब्राह्मण
प्रकोष्ठ, दलित प्रकोष्ठ बनाए जाते हैं। देखा जाए तो पूर्ण लोकतांत्रिक
प्रक्रिया अपनाने वाले राजनीतिक दलों के लिए इस तरह के प्रकोष्ठ बनाने की कोई
आवश्यकता नहीं है और यह प्रक्रिया राजनीतिक दल की लोकतांत्रिक भावना का अतिक्रमण
करती है। इसमें समाज के कई वर्ग संबंधित राजनीतिक दल में प्रकोष्ठ नहीं बनाए जाने
के कारण राजनीतिक सहभागिता से वंचित भी महसूस कर सकते हैं। यह इस बात का भी संकेत
है कि संबंधित राजनीतिक दल कई अन्य वर्गों को अपना वोट बैंक नहीं मान रहे हैं और
उन्हें उचित प्रतिनिधित्व नहीं देना चाहते हैं, इसलिए उनके
प्रकोष्ठ नहीं गठित किए जा रहे हैं। गौर करने लायक बात यह है कि ये प्रकोष्ठ ही
चुनाव की घोषणा होने के बाद वर्ग, जाति अथवा धर्म के नाम पर वोट मांगने
का आधार भी बनते हैं और वोटरों को जाति एंव धर्म के नाम पर अपने दल के पक्ष में
गोलबंद करते हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों की यह प्रवृत्ति लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की
धारा 123(3) का अतिक्रमण करती है जो जाति, प्रजाति,
धर्म,
भाषा,
समुदाय
के नाम पर वोट मांगने को भ्रष्ट निर्वाचन व्यवहार मानती है। सर्वाेच्च न्यायालय भी
इस संबंध में दिशा-निर्देश जारी कर चुका है कि जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगने
वाले उम्मीदवारों का निर्वाचन निरस्त एंव रद्द माना जाएगा।
अब सवाल उठता है कि भारत निर्वाचन आयोग इन उल्लेखित मामलों में
राजनीतिक दलों के खिलाफ़ उनका पंजीकरण समाप्त करने की कार्रवाई क्यों नहीं करता है?
तो
जानकारी के लिए आवश्यक है कि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के प्रावधान किसी पंजीकृत
राजनीतिक दल का पंजीकरण समाप्त करने का प्राधिकार भारत निर्वाचन आयोग को नहीं देते
हैं, ऐसे में भारत निर्वाचन आयोग राजनीतिक दलों के पंजीकरण समाप्त करने से
संबंधित कार्रवाई अनुशासनिक नियं=ण के तौर पर नहीं कर सकता। इस संबंध में चुनाव
सुधारों के मद्देनजर भारत निर्वाचन आयोग ने संसद के सामने लोक प्रतिनिधित्व
अधिनियम में आवश्यक संशोधन करने की अपील रखी हुई है।
कुछ ही दिनों पहले जाति एवं धर्म के नाम पर वोट मांगकर संवैधानिक
उल्लंघन करने वाले राजनीतिक दलों के पंजीकरण को समाप्त करने के लिए एक जनहित
याचिका मद्रास उच्च न्यायालय में लगाई गई थी, जिसकी अग्रेतर
कार्रवाई में उच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार से ये भी पूछा था कि वह स्पष्ट करे
कि राजनैतिक दलों को पंजीकरण समाप्त करने का प्राधिकार किस संस्थान के पास है।