व्यक्ति विशेष की उपासक क्यों बनती जा रहीं हैं राजनीतिक पार्टियां

व्यक्ति विशेष की उपासक क्यों बनती जा रहीं हैं राजनीतिक पार्टियां
महेश तिवारी
देश की राजनीति वर्तमान दौर में दो वाद से पीड़ित है ही, उसके
साथ ही कुछ अन्य रोगाणुओं से भी देश की राजनीति ग्रषित हो रही है। पहले बात दो वाद
की। जो लोकतांत्रिक परिपेक्ष्य को ठेंगा दिखा रहा है। पहला वाद परिवारवाद है तो
वहीं दूसरा वाद जातिवाद है, दोनों वाद से लोकतं= पीड़ित है। परिवार
वाद जहां लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों को किसी प्राइवेट कम्पनी में
तब्दील कर रहा है। वहीं जातिवाद की जड़ें इतनी गहरी हो चली है कि देश में संवैधानिक
ढांचा होने के बावजूद समग्र विकास और समाज के अंतिम व्यक्ति को मुख्य धारा में
जोड़ने की बात न होकर राजनीतिक दलों पर जातीय चेतना हावी हो रही है। जो कहीं न कहीं
जातीय संघर्ष की भावना समाज में प्रबल कर रही है। बढ़ती जातिवादी राजनीति जिसका
अर्थ समाज में वर्ग संघर्ष को बढ़ावा देना और श्फ़ूट डालो राजनीति करो्य की प्रथा
को बढ़ावा देना है। ऐसे में यह प्रश्न यहीं कि संवैधानिक देश में लोकतांत्रिक
मर्यादाओं को ये लोकतांत्रिक दल कहलाने वाले अपने निजी स्वार्थ के लिए क्यों
उकसाते हैं?
इक्कीसवीं सदी को वैज्ञानिकता का युग कहा जा रहा है और आज के परिवेश
में जब व्यक्ति अपने कर्मों से बड़ा बनता है, फि़र ऐसे में
कुछ दल तथाकथित रूप से जातिवादी राजनीति करने से बाज क्यों नहीं आते। इन दोनों
राजनीतिक वाद से लोकतंत्र अपने को ठगा महसूस करता है तो वहीं जनमानस भी इससे
प्रभावित होता है। परिवारवाद की बढ़ती राजनीतिक लालसा की वजह से जहां देश को कुशल
और निर्णय लेने वाला राजनेता नहीं मिल पाता। वहीं देश की सियासत कुछ हाथों में
सिमटकर रह जाती है जो कि लोकतांत्रिक परिवेश के लिए हानिकारक प्रवृत्ति है। एक
अन्य संक्रमक रोग से राजनीति ग्रषित हो रही है। वह है व्यक्तिवाद की किसी राजनीतिक
दल में बढ़ती पराकाष्ठा। जो पिछले दिनों के लुटियंस जोन में घटित उदाहरण से समझा जा
सकता है। पहले यह समझना आवश्यक है कि किसी राजनीतिक दल का प्रादुर्भाव कैसे होता
है।
राजनीतिक दल का निर्माण किसी एक व्यक्ति और एक दिन का कार्य नहीं
होता। राजनीतिक दल का निर्माण किसी संगठन की मांग करता है। फि़र उस दल में संगठन
के कार्यकर्ताओं की अहमियत भी होनी चाहिए जो आज के दौर में भारतीय राजनीति में कमजोर
पड़ रहीं है। भारतीय राजनीति एकांकीपन की दिशा में बढ़ रही है। जिसमें मुखिया ही
सर्वाेपरि बन बैठना चाहता है। जो न राजनीतिक दल के लिहाज से उचित कहा जा सकता है
और न जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए। पिछले दिनों दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप के नेता
अरविंद केजरीवाल ने जिस हिसाब से पार्टी कार्यकर्ताओं को दरकिनार करते हुए
बाहरी दो नेताओं को राज्यसभा भेजने की घोषणा की तो इस बात को तूल मिला। क्या
राजनीतिक दल के लिए संगठित कार्यकर्ताओ की कोई कीमत नहीं? क्या किसी दल
में कार्यकर्ताओ की नहीं सिफ़र् संचालक की ही आवश्यकता रह गई है? इसके
अलावा लोकतं= में विपक्ष को नेस्तनाबूद करने की बात करना भी लोकतांत्रिक प्रणाली
को छोटा साबित करने जैसा है। किसी भी लोकतांत्रिक देश की सफ़लता के लिए जरूरी है
कि वहां सशक्त विपक्ष की मौजूदगी हो। बीते कुछ वर्षों की राजनीति को देखा जाए तो
देश में एक दलीय व्यवस्था ही हावी दिखाई पड़ती है। 2014 के आम चुनाव के
पूर्व वर्तमान प्रधानमं=ी नरेंद्र मोदी ने कहा था कि देश को कांग्रेस मुक्त बनाना
है। हां यह बात कोई झुठला नहीं सकता कि वर्तमान दौर में कांग्रेस विचारधारा और नई
सोच के अभाव में कमजोर होने के बाद मुख्य विपक्ष बनकर राष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा
है। अगर भाजपा के बढ़ते एक क्ष= राज जिस दौर में बढ़ रहा है, उस दरमियान में
अगर प्रधानमं=ी मोदी के शब्दों पर गौर करें तो पता चलेगा कि कांग्रेस मुक्त भारत
का अर्थ और सरोकार विपक्ष मुक्त शासन व्यवस्था को लोकतांत्रिक परिवेश में वजूद
दिलाना है। ऐसे में सत्ता को बेलगाम होने से बचाने और सही राह दिखाने का आईना कौन
बनेगा। आज लोकतं= में अन्य दो कमियां ओर सबसे बड़ी घर कर रहीं हैं। जिसमें पहली
समस्या एकदलीय राजनीति को बढ़ावा मिलना है। दूसरा किसी दल में एक व्यक्ति-विशेष को
सर्वाेपरि बनाना है। एक दलीय व्यवस्था और दल-विशेष में एक व्यक्ति की बढ़ती छाप
लोकतांत्रिक राजनीति को कमजोर नहीं कर रहीं। आज आजादी के सात दशक बाद अगर किसी एक पार्टी का नेता बाहरी उम्मीदवार तय कर रहा है तो इसका अर्थ शायद यहीं है कि
वह अपने बराबर का और कोई कद नेतृत्व के भीतर पनपने देना चाहता नहीं। कांग्रेस जहां
आजादी के बाद से गांधी-नेहरू परिवार को ढो रहीं है, वहीं अन्य दल भी
किसी परिवार तक अगर सीमित नहीं हो रहे तो किसी एक व्यक्ति साधना के प्रतीक जरूर
बनते जा रहे हैं। आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल ने बाहर से दो
लोगों को राज्यसभा भेजकर यह स्पष्ट कर
दिया कि पार्टी में कोई और नेतृत्व उभरे यह उन्हें स्वीकार नहीं। इसके पहले राहुल
गांधी जिस तरह कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी चुने गए उससे
देश का बच्चा-बच्चा वाकिफ़ है। कांग्रेस
अध्यक्ष पद के लिए कुल 89 नामांकन भरे गए और सभी में केवल एक ही
नाम राहुल गांधी का था। इसके साथ अगर
कांग्रेसी शहजाद पूनावाला नाम उछला तो शायद उसे केंद्रीय नेतृत्व ने उठने
ही नहीं दिया। इसके इतर जो भाजपा लोकतांत्रिक व्यवस्था की उपासक बन रही थी वह भी
केंद्र से लेकर राज्य स्तरीय राजनीति तक एक ही नाम के आसरे अपनी राजनीति सिंचित
करती दिख रहीं है। क्षेत्रीय दलों की तो बात ही निराली है, उनका तो शायद
लोकतांत्रिक परिवेश में जन्म ही परिवार को पार्टी के रूप में
रोजगार उपलब्ध कराने या एक क्षत्र राज्य करने के लिए होता है। आखिर क्यों राजनीतिक
दलों द्वारा कोई ऐसी संस्थात्मक व्यवस्था नहीं की जाती, जिससे
लोकतांत्रिक प)ति से नेतृत्व चयन हो सके? क्षेत्रीय दलों की तो अपनी ढपली और अपना
राग है। दक्षिण के दुर्ग तमिलनाडु की सियासत में एआईडीएमके और डीएमके दोनों दलो
में कोई दूसरा नेता मुखिया के सापेक्ष आजतक नहीं पनप सका। बसपा तो कहने को
राष्ट्रीय पार्टी है, लेकिन उसमें भी मायावती के सापेक्ष कोई नेता उभर नहीं सका और स्वामी
प्रसाद मौर्य और बाबू सिंह कुशवाहा जैसे नेता पनपने शुरू भी हुए तो उन्हें रास्ते
ही दरकिनार कर दिया गया। उड़ीसा में बीजद का हाल भी वहीं है फि़र फ़ेहरिस्त बढ़ती
जाएगी, अगर राज्यों के नाम जोड़ते जाएंगे। अगर दलों के भीतर झांककर देखेंगे
तो यह फि़र दल में ही परिवार दिखेगा या फि़र परिवार में ही दल समाहित मिलेगा। फि़र
ऐसे में क्या वजह है कि राष्ट्रीय स्तर की राजनीति संसदीय व्यवस्था का नाम लेकर
प्रदेशिक स्तर के नेताओं का चयन करती है?
क्या ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होनी चाहिए कि पार्टियों का प्रादेशिक
ढांचा भी स्वछन्द होकर राजनीतिक निर्णय ले सके? अगर हर बात
दिल्ली से ही तय होगी तो यह तो तय हैए कि सिक्का उसी का िफ़ट बैठेगा जिसमें सामाजिक
सरोकार की ताकत के साथ सिफ़ारिश की ताकत होगी? ऐसे में तो आम
कार्यकर्ता सिफ़र् मततं= को पोलिंग बूथ तक लाने और चुनावी रैलियों में दरी बिछाने
तक ही सीमित रह जाएंगे। क्या क्षेत्रीय राजनीति में अकाल पड़ गया है जो देश के दो बड़े
राजनीतिक दल दो नामों के बल पर चुनाव लड़ते रहते हैं? 2014 के बाद से मोदी
जी जब से मुख्यमंत्री बने हैं, मुख्यमंत्री कम स्टार प्रचारक भाजपा के
ज़्यादा समझ आते हैं। जब देश को चलाने के लिए त्रि-स्तरीय व्यवस्था है, फि़र
देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए सिफ़र् गिनती के कुछ नाम क्यों? इस
पर विचार होना चाहिए?