डेंगू खत्म करने में मच्छर ही होंगे नया हथियार!

डेंगू खत्म करने में मच्छर ही होंगे नया हथियार!
दिनेश सी- शर्मा
यह सुनकर किसी को भी हैरानी हो सकती है, मगर डेंगू के
उन्मूलन में आखिरकार मच्छर ही काम आएंगे, ऐसे मच्छर जो डेंगू को फ़ैलाने में
सक्षम नहीं होंगे। वैज्ञानिकों ने इस तरह
के मच्छर की ब्रीडिंग शुरू कर दी है। ये ऐसे मच्छर हैं जो डेंगू के अलावा
चिकनगुनिया और जिका जैसे वायरसों को भी नहीं फ़ैला पाएंगे। इस तरह के मच्छरों का
ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया और ब्राजील में परीक्षण हो चुका है और शीघ्र ही भारत में
भी परीक्षण शुरू होंगे। मेलबर्न स्थित मोनाश यूनिवर्सिटी के वैज्ञनिकों ने वातावरण
में पाए जाने वाले वल्बाकिया नामक बैक्टीरिया से डेंगू फ़ैलाने वाले एडीस एजिप्टी
मच्छरों को संक्रमित किया है, जिससे उन मच्छरों में डेंगू के वायरस
नहीं पनप सकेंगे।
वाल्बाकिया कीट-पतंगों की करीब 60 प्रतिशत
प्रजातियों में प्राकृतिक रूप से मौजूद रहता है। लेकिन, यह बैक्टीरिया
एडीस एजिप्टी के शरीर में नहीं होता। वैज्ञानिकों ने वाल्बाकिया को फ़ल की मक्खी
से अलग किया है और उसका उपयोग एडीस एजिप्टी मच्छर को संक्रमित करने के लिए किया
है। लेकिन, इसके लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग नहीं किया गया है। एडीस
एजिप्टी मच्छर के अंडों को टीके के जरिये वाल्बाकिया से संक्रमित जाता है। इस तरह
पैदा होने वाली मच्छरों की नई पीढ़ी भी डेंगू का संक्रमण नहीं फ़ैला सकती। इस वर्ष
के आरंभ में इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च द्धआईसीएमआरऋ की ओर से भारत में इस
तकनीक के उपयोग को लेकर मोनाश यूनिवर्सिटी के साथ एक समझौता किया गया है।
पांडिचेरी के वेक्टर कंट्रोल रिसर्च सेंटर द्धवीसीआरसीऋ में इसको लेकर शोध किया जा
रहा है। सब कुछ ठीक रहा तो वर्ष 2018 तक वाल्बाकिया संक्रमित मच्छरों का
परीक्षण भारत में भी शुरू हो सकता है। ऑस्ट्रेलिया, वियतनाम,
इंडोनेशिया,
ब्राजील
और कोलंबिया जैसे डेंगू से ग्रस्त देशों में वर्ष 2011 से ही इस इससे
संबंधित परीक्षण किया जा रहा है।
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वीसीआरसी के निदेशक डॉ- जंबुलिंगम पुरुषोत्तमन ने बताया कि
वाल्बाकिया से संक्रमित ऑस्ट्रेलियाई मूल के एडीस एजिप्टी मच्छर का उपयोग हम
स्थानीय मच्छर की प्रजातियों को संक्रमित करने के लिए कर रहे हैं। लैब में यह
सुनिश्चित करने के लिए परीक्षण किया जा रहा है कि यह प्रयोग स्थानीय एडीस एजिप्टी
की प्रजातियों में डेंगू की प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने में कितना प्रभावी हो
सकता है।
मोनाश यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता प्राफ़ेेसर स्कॉट ओ- नील ने इंडिया
साइंस वायर को बताया कि डेंगू से ग्रस्त इलाके में हम मच्छरों की आबादी को
वाल्बाकिया से संक्रमित करते हैं। इसके लिए वाल्बाकिया से संक्रमित मच्छरों को
अन्य मच्छरों की आबादी के बीच छोड़ा जाता है, जहां वे प्रजनन
करके अपनी संख्या में बढ़ोतरी करने लगते हैं। मच्छरों के अंडों के जरिये उनकी एक
पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचने वाला वाल्बाकिया मच्छरों की आबादी में अपनी जगह बना
लेता है और डेंगू का संक्रमण इंसानों में नहीं फ़ैलने देता।
अध्ययनों से यह बात साबित हो चुकी है कि इस प्रक्रिया पर सफ़
लतापूर्वक अमल किया जा सकता है। वैज्ञानिकों का कहना यह भी है कि मच्छरों की आबादी
में वाल्बाकिया बैक्टीरिया आसानी से जिंदा रह सकता है और बार-बार प्रक्रिया को
दोहराने की जरूरत नहीं पड़ती। प्राफ़ेेसर ओ- नील के मुताबिक शहरी इलाकों में डेंगू
से निपटने के लिए अब हम कम लागत वाले ऐसे तरीकों का विकास करने में जुटे में हैं।
इससे संबंधित परीक्षण वर्ष 2014 में उत्तरी ऑस्ट्रेलिया के शहरी क्षे=
में पहली बार किया गया था। ब्राजील और इंडोनेशिया जैसे देशों में भी हम बड़े पैमाने
पर यह परीक्षण करना चाहते हैं। बड़े शहरी क्षेत्रें में वाल्बाकिया संक्रमित
मच्छरों की ब्रीडिंग से हम देखना चाहते हैं कि आखिर डेंगू फ़ैलाने वाले मच्छरों से
लड़ने में यह प्रयोग किस हद तक कारगर हो सकता है।
दुनिया भर के वैज्ञानिक डेंगू से निपटने के लिए नए टीके एवं दवाईयां
विकसित करने के अलावा जीन संवि)र्त मच्छरों की ब्रीडिंग जैसे प्रयासों में जुटे
हैं, पर इसमें बहुत अधिक सफ़लता नहीं मिली है। वैज्ञानिकों के अनुसार
वाल्बाकिया इंसानों एवं जानवरों के साथ-साथ पर्यावरण के भी अनुकूल है। यह
बैक्टीरिया पहले से ही खाद्य श्रृंखला में मौजूद है। एडीस एजिप्टी को छोड़कर यह
तितलियों, फ़लों की मक्खियों, पतंगों और मच्छरों में पाया जाता है।
इस प)ति में मच्छरों की प्राकृतिक आबादी से छेड़छाड़ नहीं की गई है, इसलिए
किसी नई प्रजाति के पैदा होने का खतरा भी नहीं है। प्राफ़ेेसर नील को उम्मीद है कि
वाल्बाकिया का उपयोग भविष्य में डेंगू के अलावा जिका, चिकनगुनिया और
पीत ज्वर जैसी कई वेक्टर जनित बीमारियों लड़ने में मददगार साबित हो सकता है।