जीएसटी का मिश्रित अनुभव

2018-08-01 0

जीएसटी का मिश्रित अनुभव

वस्तु एवं सेवा कर (GST) का एक साल का अनुभव मिला-जुला रहा है। यही सही है कि देश में इस तरह के टैक्स सिस्टम की जरूरत थी। जो देश इतने बड़े क्षे=फ़ल में फ़ैला हो, वहां श्एक टैक्स्य की जरूरत समझी जा सकती है। फि़र, वस्तु और सेवाओं की आवाजाही बिना रोकटोक के होने की बात भी जीएसटी में है। लिहाजा इस तरफ़ उचित ही कदम बढ़ाया गया था। फि़र भी, इसकी कुछ खामियां पिछले एक साल में दिखी हैं, जिसे दूर करने के लिए हमारे नीति-नियंताओं को संजीदा होना होगा।

जीएसटी पिछले साल 1 जुलाई को अस्तित्व में आया। इसे काफ़ी जल्दबाजी में लागू किया गया था। इसके तमाम पहलुओं पर गंभीरता से नहीं सोचा गया। यही वजह है कि इसकी दरों यानी रेट में बार-बार संशोधन करने पड़े। जीएसटी देने वालों को भी इस नई प्रक्रिया को समझने और बहु-स्तरी टैक्स -फ़ाइलिंग्य में दिक्कतें पेश आईं। उन पर अतिरिक्त बोझ पड़ा। छोटे व्यवसाय पर तो इसका खासा प्रभाव दिखा है। संघीय ढांचे को भी इसका नुकसान हुआ है। जीएसटी तैयार करने वालों ने सिफ़र् केन्द्र के नजरिए से तस्वीरें देखीं। फ़ैसले लेने में राज्य जरूर साथ थे, पर जीएसटी लागू होने के बाद उन्हें भी अपनी नीतियों को आगे बढ़ाने में परेशानी हो रही है।

सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी नीतियों की मैं खासतौर पर चर्चा करना चाहूंगा, क्योंकि ऐसी नीतियां कभी-कभी केन्द्र से बेहतर राज्यों की रही हैं। सूबों की स्वायत्तता पर भी इसका असर पड़ा है। अब उनके हाथ बांध दिये गये हैं। ऐसी किसी संभावना को खत्म कर दिया गया है कि राज्य अपने तईं कुछ संसाधनों का इंतजाम करके नीतियां जारी रख सकें।

दरों को लेकर भी जीएसटी में उलझन है। अच्छा तो यह होता कि सिफ़र् एक दर होती। बहुत जरूरी होने पर दो दरों की व्यवस्था की जा सकती थी। मगर ऐसा नहीं हो सका। इसमें कई दरें हैं, जो अधिकतम 28 फ़ीसदी तक जाती हैं इस कारण टैक्स-सिस्टम को आसान बनाने के लिए बनी यह पूरी प्रक्रिया अपने-आप जटिल बन गई। फि़र, शेष को अलग से लाकर भी अनावश्यक उलझन बढ़ाई गई। भले ही इसमें कई शेष और टैक्स को शामिल कर लिया गया है, पर कुछ छोड़ भी दिये गए या नए लाए गए हैं। उनको भी जीएसटी में शामिल कर लेना चाहिए, बेशक दर बढ़ा दी जाती है।

ये तमाम उलझन इसलिए है, क्योंकि हमारे श्कॉमन मार्केट्य यानी श्साझा बाजार्य नहीं है। जीएसटी बनाकर हमने इसी एकरूपता की ओर कदम बढ़ाया था। हमारी नजर यूरोपीय बाजार की तरफ़ है। मगर यूरोप और भारत में कुछ बुनियादी अंतर है। यूरोप ने पहले श्कॉमन मार्केट्य बनाया और फि़र कई वर्षों के बाद श्कॉमन करेंसी्य यानी साझा मुद्रा। श्संघ्य तो वे सही मायनों में अब तक नहीं बना पाये हैं। जबकि हमारे यहां श्राज्यों का संघ्य पहले बना, मुद्रा समान रही ही है, और अब श्कॉमन मार्केट्य की ओर हम बढ़े हैं। चूंकि अपने यहां संघ बनाने के बाद यह सब काम हो रहा है, इसलिए यूरोप के श्कॉमन मार्केट्य को हम अपने यहां शायद ही साकार कर पाएं। इसी तरह, जीएसटी कौंसिल में एक-तिहाई बहुमत केन्द्र के पास है और इसमें श्इक्विटी ऑफ़ स्टेट्य द्धराज्यों की समानताऋ की बात कही गई है। यह भी हमारे संघीय ढांचे के खिलाफ़ है। राज्यसभा तक में राज्यों का समान प्रतिनिधित्व नहीं है। हमारी मूल धारणा यही है कि राज्य एक समान नहीं हैं। आबादी, संसाधन, परिस्थितियों जैसे तमाम मसलों को लेकर उनमें भारी असमानताएं हैं। मगर जीएसटी कौंसिल बनाते वक्त हम यह तथ्य भूल गए। जब हम सत्ता व्यवस्था को श्यूनिटरी्य यानी एकल ढांचे में नहीं ढाल पाये हैं, तो फि़र कॉमन मार्केट के लिए ऐसा क्यों किया गया, यह समझ से परे है। इसको भी दुरुस्त करना जरूरी है, वर्ना राज्यों को काफ़ी नुकसान होगा, खासतौर पर उन सूबों को, जो तेजी से आगे बढ़ने की कोशिश में हैं। छोटे और बड़े राज्यों का असंतोष बढ़ेगा।

जीएसटी सिफ़र् आंकड़ेबाजी और नफ़े-नुकसान की बात कहती है, जिस पर भी ध्यान देने की जरूरत है। राज्यों से पैसों का आना, उनका बंटवारा, फ़ायदा-घाटा, जैसे तमाम गुणा-भाग संकीर्ण दृष्टिकोण के संकेत हैं। टैक्स-सिस्टम को जनोन्मुखी बनाने की दरकार होती है। उसका एक सामाजिक संदर्भ भी होना चाहिए। दुर्भाग्य से जीएसटी के साथ यह नहीं है। अगर हम लाभ-हानि में ही उलझे रहेंगे, तो लंबे समय में हमारे लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। इसकी वजह यह भी है कि अभी देश की आर्थिक सेहत ठीक है, इसलिए सब-कुछ अच्छा दिख रहा है। मगर आने वाले दिनों में जब अर्थव्यवस्था डांवाडोल होगी, तो तनाव बढ़ जाएगा, और यह भी गारंटी भला कौन ले सकता है कि कल वैश्विक मंदी नहीं आएगी? अमेरिका ने तो श्टैरिफ़ वार्य शुरू कर ही दिया है, जिसका जवाब चीन और यूरोप अपनी तरफ़ से दे रहे हैं। इसके अलावा कई दूसरी वैश्विक चुनौतियां भी हैं। अपने देश में बैंकिंग की खस्ता हालत भी एक बड़ा मसला है। उनका डूब कर्ज यानी एनपीए लगातार बढ़ रहा है। जबकि इतिहास में मजबूत बैंकिंग ने ही हमें बचाया है। ऐसे में, अगर 2008 की वैश्विक मंदी का दौर लौटता है द्धजिसकी आशंका जताई जाती रही हैऋ, तो हम मुश्किलों में फ़ंस सकते हैं। संसाधनों में कमी आते ही राज्यों का तनाव गहराने लगेगा। साफ़ है कि सै)ांतिक रूप से जीएसटी एक स्वागत योग्य कदम था, पर डिजाइन की गड़बड़ी ने मामला उलझा दिया। अब भी अगर संघीय ढांचे और उसके सि)ान्तों को ध्यान में रखकर जीएसटी के पूरे सिस्टम में बदलाव किए जाएं, तो यह काफ़ी कारगर और सुलझा सिस्टम बन सकता है। किसी भी तं= की असली परीक्षा बुरे वक्त में होती है और यदि थोड़ा-सा भी अंदेशा हो कि मुश्किल वक्त में जीएसटी शायद संभाल नहीं सकेगी, तो हमें संभल जाना चाहिए। अच्छे वक्त में सब कुछ अच्छा होता है। मगर सिस्टम तो अच्छे और बुरे, दोनों वक्त में बेहतर काम करने के लिए बनाए जाते हैं।

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