अटल बिहारी वाजपेयी एक महान व्यक्तित्व

डॉ. डी.आर. अग्रवाल प्रोफेसर स्टारैक्स विश्वविद्यालय गुरुग्राम
वाजपेयी का जन्म एवं मृत्यु दोनों ही इस बात के प्रतीक हैं कि एक महान आत्मा का जन्म हुआ है, संयोग 25 दिसम्बर है तथा मत्यु भी निश्चित थी। 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) को संभवतः मृत्यु ने रंग में भंग नहीं डालना था क्योंकि सम्पूर्ण देश आजादी का जश्न मना रहा था। उस कवि हृदय ने कूच तो करना था परन्तु 16 अगस्त को, ऐसा प्रतीत होता है कि मृत्यु को द्वार पर रोक दिया। दस्तक देती रही, घुसने नहीं दिया और स्वेच्छा से एक दिन बाद मृत्यु को गले लगा लिया। पंछी ने उड़ना तो होता है परन्तु नीड़ की ओर वापसी के लिए। यहां साधारण और असाधारण व्यक्तित्व कुछ प्रकृति की ओर से वरदान स्वरूप आते हैं और कुछ जीवन की धूप, बरसात और सर्दी से मुकाबला करते हैं और इनका प्रभाव होने नहीं देते। कभी-कभी ईश्वर कुछ को सब कुछ दे देते हैं परन्तु कुछ लोग उसे खो देते हैं और कुछ लोग स्वतः अपने श्रम बिन्दु के आधार पर प्राप्त कर लेते हैं। डॉ- श्यामा प्रसाद मुखर्जी संभवतः इनको यहीं चाहते थे कि बिना किसी अधिकृत प्रवेश पत्र के कश्मीर में वाजपेयी जी न जायें। संभवतः वे युगदृष्टा थे उन्हें पता था कि इसकी देश को आवश्यकता है। और जनसंघ की स्थापना करके वे कश्मीर ऐसे गए कि वापस ही नहीं आये। वाजपेयी जी को जनसंघ के पौधे को पुष्पित एवं पल्लवित करना था और देश को एक नयी दिशा एवं दशा देनी थी। लोकतंत्र का सच्चा सिपाही और समर्थक बनना था। वैचारिक मतभेद होने का अर्थ यह नहीं कि मनभेद भी हो जाये। संसद भवन प्रतीक्षा कर रहा है ऐसे कुशल वक्ता एवं विचारक की जिसको सब सुनना चाहते थे। उनकी वाणी में सरस्वती विराजमान थी और उनको बहुत बड़ा निबंध भी कम शब्दों में सार्थक ढंग से प्रस्तुत करना आता था। शब्दों से खेलना उनकी जादूगरी थी और उनका विश्वास था कि विरोध का अर्थ मात्र विरोध नहीं होता और विरोध में रहकर भी समाज सेवा अच्छे ढंग से की जा सकती है। आज हर व्यक्ति केवल सत्ता में रहकर ही समाज सेवा करना चाहता है।
वाजपेयी जी को ईश्वर ने उपहारवश फोटोग्राफिक स्मरण शक्ति, रूप, लावण्य, प्रखर वक्ता, कुशल राजनेता, ललित कलाओं का पारखी, उच्च कोटि का साहित्यकार और कवि, गीतकार, भाषाविद्, आकर्षक आवाज, चुम्बकीय शक्ति, धैर्य, संवेदनाओं का पुंज, पारदर्शिता, जवाबदेही, मूल्यपरक राजनीति, अन्तिम व्यक्ति तक पहुंच, समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रति जागरूकता, ईश्वरीय शक्ति में अटूट विश्वास परन्तु पाखण्डों से उतनी ही नफरत और दूरी, जन-जन तक पहुुंचने का प्रयास, सरलता, सहजता, राजधर्म का निर्वाह, प्रतिपक्ष के विचारों को धैर्य से सुनना, समालोचना, प्रशंसा और आलोचना दोनों में एकरूपता, सामाजिक समरसता एवं सद्भाव में अटूट विश्वास, अडिग और अमित राष्ट्रभक्ति आदि। ‘‘जो भुजा इधर उठेगी तोड़ दी जाएगी और जो आंख इधर उठेगी फोड़ दी जाएगी’’ - यह मंत्र यदि पड़ोसी देश मित्रता के साथ धोखा करे।वाजपेयी जी देश के तीन बार प्रधानमंत्री रहे, 12 बार सांसद और भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। भारत के विदेश मंत्री के नाते उनका कहना था कि हम पड़ोसी नहीं बदल सकते और उन्होंने विदेश नीति में सर्वधर्म संभाव को ही आगे बढ़ाया। एल-के- आडवानी जी का उनके साथ लगभग 70 वर्ष का लम्बा साथ था और उनका मानना था कि उनकी भाषण कला के कारण उनमें एक हीन भावना विकसित हो रही थी। परन्तु वाजपेयी जी उन्हें सदैव दायित्वों को संभालने के लिए प्रेरित किया। दोनों को चलचित्र देखने का शौक था और अच्छा खाने का। हेमा मालिनी कुशल अभिनेत्री ने एक अजीब रहस्य खोला कि वाजपेयी जी उनकी फिल्म ‘सीता और गीता’ 25 बार देखी। बहादुरा के लड्डू, पराठे वाली गली के पराठे, मथुरा के पेड़े, चाट, मधुर मिष्ठान्न और नाना प्रकार के व्यंजन उन्हें पसंद थे। कृत्रिमता की जिन्दगी वाजपेयी जी ने न कभी ओढ़ी और न बिछायी। चुनाव हारने के बाद एक स्कूल में बच्चों से कहने लगे कि आपके मामा की नौकरी चली गई है, अब केवल एक हजार रुपया ही उपहार में दे रहा हूं। राजमाता और राजनेत्री विजय राजे सिंधिया का वह वाक्य याद है जब उनका पुत्र वाजपेयी जी के विरुद्ध चुनाव लड़ रहा था, तब उन्होंने कहा था कि चुनाव आपने करना है, एक ओर मेरा लाल है और दूसरी ओर देश का लाल है अब मत देना आपकी चेतना पर निर्भर करता है। हर व्यक्ति के पास उनकी उनकी यादें हैं और उनकी हाजिर जवाबी और विनोदी स्वभाव। अमिताभ बच्चन जी ने हेमवती नंदन बहुगुणा को जब चुनाव में हराया तब मैं भी चुनाव हार जाऊंगा। ऐसे कुछ ही अभिनेता हैं जो राजनीति में आकर इस व्यवसाय को आनंद से जी सके हों। यहां हार और जीत व्यवसाय का खेल है। चुनाव जीतने के लिए बहुत से हथकंडे अपनाते हैं। आरोप एवं प्रत्यारोप का दौर चलता है। कौन-सी पोल कौन खोल दे, कब खोल दे, इसके लिए बड़ा दिल चाहिए, सुनने के लिए और कहने के लिए।
मेरा वाजपेयी जी के दर्शन करने का सौभाग्य संघ के कार्यक्रमों के
माध्यम से हुआ जिसमें उनके व अन्य राजनेताओं के भोजन का दायित्व मुझे दिया गया।
मुझे लगा ही नहीं कि ये लोग अलग हैं और इतने अलग हैं कि इनको विशिष्ट श्रेणी में
रखा जा रहा है। ये लोग जब आपस में बात कर रहे थे तो कुछ ऐसे ही था जैसे साधारण लोग
करते हैं परन्तु इनके कृतित्व अलग होते हैं और वे ही इनको विशिष्ट श्रेणी में ले
जाते हैं। कई बार मुलाकात हुई और वे नाम से पहचानने लगे। एक बार मुझे कुछ नेताओं के
साथ इनके निवास पर जाने का अवसर मिला-उद्देश्य था संसद का सत्र देखने के लिए पास
की इच्छा। नेताओं ने अपना-अपना परिचय दिया, दायित्व बताया,
संगठन
में कार्य अवधि बताई। इसी बीच उस बड़े नेेता से वाजपेयी जी ने कहा कि मैं इन्हें
जानता हूं-ये धनीराम जी हैं। ऐसी अद्भुत स्मरण शक्ति मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि
इतने बड़े राजनेता को मेरे जैसे साधारण कार्यकर्त्ता का नाम भी स्मरण है।
प्रो- बलराज मधोक भी राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। पार्टी को मजबूती देने में उनका भी बहुत बड़ा योगदान था। इतिहास के जाने-माने विद्वान प्रो- मधोक का ऐसा क्या हुआ कि दो व्यक्तित्व जो एक-दूसरे के पूरक थे, उनके बीच दूरियां बढ़ीं और बढ़ती गईं। यह एक मेरे जैसे साधारण कार्यकर्त्ता के लिए एक रहस्य बना हुआ है। बहुत-सी बातें मंच पर कही गईं, ऐसे परिपक्व लोगों द्वारा। बड़े संगठन में जो पुष्प पल्लवित होकर वृक्ष बनता है और छाया देने लगता है तब कुछ लोग निजी स्वार्थों के कारण ऐसी स्थितियां उत्पन्न कर देते हैं अथवा हो जाती हैं या अक्षरशः सत्य होती हैं अथवा आंशिक रूप से। इस राज को हम यहां गोली मारते हैं क्योंकि इसी में भला है। मेरे मित्र वीरेन्द्र भंडारी जी के साथ मुझे मधोक जी से भी मिलने का अवसर मिला था। वाजपेयी जी पंचतत्त्व में विलीन हो गए। माँ भारती के इस सपूत को ‘भारत रत्न’ से सम्मान से विभूषित किया गया। इनकी पुत्री नमिता भट्टाचार्य ने मुखाग्नि दी। यह भी एक प्रशंसनीय परम्परा का निर्माण हुआ। शत्-शत् नमन्।
चल उड़ जा रे पंछी
अब ये देश हुआ बेगाना
पर तुम्हें तो भारत में ही आना है,
पुनर्जन्म लेकर
इसी कामना के साथ ---
वाजपेयी जी की कविता
मौत से ठन गई !
मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोककर वह खड़ी हो गई,
यूं लगा जिन्दगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल
भी नहीं,
जिन्दगी सिलसिला आजकल ही नहीं,
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा कूच से क्यों डरूं?
तू दबे पांव चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फि़र मुझे आजमा।
मौत से बेखबर जिन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर,
बात ऐसी नहीं कि कोई गम ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाकी है कोई गिला,
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए,
आंधिायों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज तफ़ूान है,
नाव भंवरों की बाहों में मेहमान है।
पार पाने का कायम मगर हौंसला,
देख तेवर तफ़ूां का तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई!
वाजपेयी जी का राजनीतिक सफर
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) कानेतृत्व करते हुए मार्च 1998 से मई 2004 तक, छह साल भारत के प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी को सांसद के रूप में लगभग चार दशक का अनुभव प्राप्त है।
मध्य प्रदेश में ग्वालियर में 25 दिसंबर, 1924 को
जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीति शास्त्र में एमए किया और फिर कुछ राजनीतिक
पत्रिकाओं का संपादन किया। इनमें राष्ट्रधर्म, पांचजन्य, दैनिक
स्वदेश और वीर अर्जुन शामिल हैं।
वर्ष 1942
में स्वाधीनता के आंदोलन के दौरान वे कुछ समय के लिए जेल में रहे। वे सामाजिक और
सांस्कृतिक क्षेत्र में काफी सक्रिय रहे हैं और हिंदूवादी संगठन राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ से भी जुड़े रहे हैं। वर्ष 1951 में वे जनसंघ के संस्थापक सदस्य बने।
वे पहली बार संसद सदस्य वर्ष 1957 में बने और अपने राजनीतिक सफर में उन्होंने कई बार माना कि वे पंडित
नेहरू से काफी प्रभावित हुए। पंडित नेहरू ने उनके बारे में कहा था कि वे एक
प्रतिभाशाली सांसद हैं जिनके राजनीतिक सफर पर नजर रऽनी चाहिए।
संसद सदस्य के रूप में लगभग चार दशक के सफर में वे पांचवीं, छठी, सातवीं और फिर दसवीं,
ग्यारहवीं, बारहवीं
और तेरहवीं लोकसभा के सदस्य रहे हैं।
प्रभावशाली वक्ता, विदेश मंत्री इस दौरान वे संसद में बहुत प्रभावशाली वक्ता के रूप में जाने जाते रहे हैं और महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनके भाषण ऽ़ासे गौर से सुने जाते रहे हैं। जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ जनांदोलन छेड़ा गया तब आपातकाल के दौरान वर्ष 1975 से 1977 के बीच उन्हें जेल जाना पड़ा। आपातकाल के बाद वे जनता पार्टी के संस्थापक-सदस्यों में से एक बने और मोरारजी देसाई सरकार में लगभग दो साल से ज्यादा समय के लिए देश के विदेश मंत्री बने। जब जनता पार्टी का विभाजन हुआ तो जनसंघ के सदस्यों ने 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन किया और छह साल तक वाजपेयी भाजपा के अध्यक्ष रहे। जब भारतीय जनता पार्टी ने वर्ष 1996 में पहली बार सरकार बनाई तो वाजपेयी ने सरकार का नेतृत्व किया और प्रधानमंत्री बने। लेकिन संसद में बहुमत न हासिल कर पाने के कारण ये सरकार केवल 13 दिन ही चल पाई।
परमाणु बम धमाका, लाहौर यात्र वर्ष 1998 में दूसरी बार भाजपा ने अन्य दलों के साथ मिलकर गठबंधन सरकार बनाई और वाजपेयी दोबारा भारत के प्रधामंत्री बने। ये सरकार केवल डेढ़ साल चली और इस दौरान पोऽरण में मई 1998 में भारत ने दूसरी बार परमाणु बम धमाके किए। इसकी अंतर्राट्रीय स्तर पर काफी आलोचना हुई और भारत पर कुछ प्रतिबंध भी लगे लेकिन वाजपेयी ने इन्हें भारत की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जरूरी बताया। इसके बाद फरवरी 1999 में वाजपेयी ने पड़ोसी देश पाकिस्तान से रिश्ते बेहतर बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण पहल की और बस यात्र करते हुए अमृतसर से लाहौर पहुंचे। इसके लिए अंतर्राट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर उनकी ऽ़ासी प्रशंसा हुई। लेकिन जब करगिल में पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ हुई तब कड़ा रुख अपनाते हुए उन्होंने सैन्य कार्रवाई का आदेश दिया और कई दिन तक चली कार्रवाई में भारतीय सेना ने घुसपैठियों को ऽदेड़ दिया। पाकिस्तान, चीन पर पहल इसके बाद मध्यावधि चुनाव हुए और 1999 में वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने। ये सरकार पूरी पांच साल चली और ऐसा पहली बार हुआ कि किसी गैर-कांग्रेसी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया हो। वर्ष 2001 में दूसरी बार पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने के मकसद से उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को आगरा शिऽर सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया लेकिन इसका नतीजा ज्यादा सकारात्मक नहीं निकल पाया। इसके बाद तीसरी बार मई 2003 में वाजपेयी ने फिर कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ बातचीत की पेशकश रऽी और उसके बाद से भारत-पाकिस्तान रिश्ते काफी बेहतर हुए थे।
वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुए चीन से भी संबंध बेहतर बनाने की कोशिश हुई और वे चीन यात्र पर गए। लेकिन उनके इसी कार्यकाल के दौरान गुजरात में मुसलमानों के िऽलाफ दंगे हुए जिसमें अनेक लोग मारे गए और इस पर वाजपेयी की कड़ी आलोचना भी हुई। अनेक पर्यवेक्षक मानते हैं कि गुजरात जाकर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को राजधर्म का पालन करने की सलाह देने के अलावा, केन्द्र सरकार ने उस समय कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। सरस्वति पुत्र अटल बिहारी वाजपेयी अटल जी का जन्म 25 दिसम्बर 1924 को ब्रह्ममुहर्त में ग्वालियर में हुआ था। मान्यता अनुसार पुत्र होने की ऽुशी में जहां घर में फूल की थाली बजाई जा रही थी तो वहीं पास के गिरजाघर में घंटियों और तोपों की आवाज के साथ प्रभु ईसामसीह का जन्मदिन मनाया जा रहा था। शिशु का नाम बाबा श्यामलाल वाजपेयी ने अटल रऽा था। माता कृष्णादेवी दुलार से उन्हे अटल्ला कहकर पुकारती थीं।
पिता का नाम पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी था। वे हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी तीनों भाषा के विद्वान थे। पं- कृष्णबिहारी वाजपेयी ग्वालियर राज्य के सम्मानित कवि थे। उनके द्वारा रचित ईश प्रार्थना राज्य के सभी विद्यालयों में कराई जाती थी। जब वे अध्यापक थे तो डॉ- शिवमंगल सिंह सुमन उनके शिष्य थे। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि अटल जी को कवि रूप विरासत में मिला था।
राष्ट्र के उच्चकोटी के वक्ता अटल जी का भाषण सुनने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। उनका भाषण उनकी पहचान है। भाषण के बीच में व्यंग्य विनोद की फुलझड़ियां श्रोताओं के मन में कभी मीठी गुदगुदी उत्पन्न करती थीं, तो कभी ठहाकों के साथ हंसा देती थीं। अपने पहले भाषण का जिक्र करते हुए अटल जी कहते हैं कि मेरा पहला भाषण जब मैं कक्षा पांचवी में था तब रट कर बोलने गया था और मैं बोलने में अटक रहा था, मेरी ऽूब हंसाई हुई थी। तभी से मैंने संकल्प लिया था कि रट कर भाषण नही दूंगा। अपनी उच्चकोटि की भाषण प्रतिभा से वे कई बार वाद-विवाद प्रतियोगिता में विजयी रहे।
काशी से जब चेतना दैनिक का प्रकाशन हुआ तो अटल जी उसके संपादक नियुक्त किये गये। उन्होने लम्बे समय तक राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। ये निर्विवाद सत्य है, कि अटल जी नैतिकता का पर्याय हैं। पहले कवि और साहित्कार तत्पश्चात् राजनीतिज्ञ हैं। उनकी इंसानियत कवि मन की कायल है। नैतिकता को सर्वाेपरि मानने वाले अटल जी कहते हैं कि- छोटे मन से कोई बड़ा नही होता,
टूटे मन से कोई ऽड़ा नही होता। मन हार कर मैदान नही जीते जाते, न मैदान जीतने से मन ही जीता जाता है। अटल जी एक सच्चे इंसान और लोकप्रिय जननायक थे। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से परिपूर्ण, सत्यम-शिवम्-सुन्दरम् के पक्षधर अटल जी का सक्रिय राजनीति में पदार्पण 1955 में हुआ था। जबकि वे देश प्रेम की अलऽ को जागृत करते हुए 1942 में ही जेल गए थे। सादा जीवन उच्च विचार वाले अटल जी अपनी सत्यनिष्ठा एवं नैतिकता की वजह से अपने विरोधियों में भी अत्यन्त लोकप्रिय रहे हैं।
1994 में उन्हे ‘सर्वश्रेष्ठ सांसद’ एवं 1998 में ‘सबसे ईमानदार व्यक्ति’ के रूप में सम्मानित किया गया है। 1992 में पद्मविभूषणय् जैसी बड़ी उपािधसे अलकृंत अटल जी को 1992 में ही ‘हिन्दी गौरव’ के सम्मान से सम्मानित किया गया है। अटल जी ही पहले विदेश मंत्री थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ मे हिन्दी में भाषण देकर भारत को गौरवान्वित किया था और राष्ट्रीय भाषा हिन्दी का मान बढ़ाया।
वे भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वालों में से एक हैं और 1968 से 1973 तक उसके अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने अपना जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के प्रचारक के रूप में आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेकर प्रारम्भ किया था
और उस संकल्प को पूरी निष्ठा से आज तक निभाया।
वाजपेयी जी अपनी कविता के माध्यम से कहते हैं-
गूंजी हिन्दी विश्व में
स्वप्न हुआ साकार,
राष्ट्रसंघ के मंच से
हिन्दी की जयकार
हिन्दी की जयकार,
हिन्द हिन्दी में बोला,
देख स्वभाषा प्रेम,
विश्व अचरज से डोला।
अटल बिहारी वाजपेयी ने सन् 1997 में प्रधानमन्त्री के रूप में देश की बागडोर संभाली। 19 अप्रैल, 1998 को पुनः प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली और उनके नेतृत्व में 13 दलों की गठबन्धन सरकार ने पांच वर्षों में देश के अन्दर प्रगति के अनेक आयाम छुए। वाजपेयी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के पहले प्रधानमन्त्री थे जिन्हाेंने गैर कांग्रेसी प्रधानमन्त्री पद के 5 साल बिना किसी समस्या के पूरे किए। उन्होंने 24 दलों के गठबंधन से सरकार बनाई थी जिसमें 81 मन्त्री थे। कभी किसी दल ने आनाकानी नहीं की। इससे उनकी नेतृत्व क्षमता का पता चलता है।
परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों की संभावित नाराजगी से विचलित हुए बिना उन्होंने अग्नि-दो और परमाणु परीक्षण कर देश की सुरक्षा के लिये साहसी कदम भी उठाये। सन् 1998 में राजस्थान के पोऽरण में भारत का द्वितीय परमाणु परीक्षण किया जिसे अमेरिका की सीआईए को भनक तक नहीं लगने दी।
अटल जी नेहरु युगीन संसदीय गरिमा के स्तंभ हैं। आज अटल जी करोड़ों लोगों के लिए विश्वसनीयता तथा सहिष्णुता के प्रतीक हैं।जननायक अटल जी का उदार मन, आज की गलाकाट संस्कृति से परे सदैव यही कामना करता था किः-
मेरे प्रभु,
मुझे कभी इतनी ऊंचाई मत देना,
गैरों को गले न लगा सकूं,
इतनी रुऽाई कभी मत देना।
भारत रत्न
राष्ट्र की सेवा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले भारत माँ के इस सपूत को 27 मार्च 2015 को दिल्ली स्थित उनके आवास पर भारत-रत्न से नवाजा गया।