क्या भारत बड़े दिल वाला देश बन सकता है

2018-09-01 0

--चेतन भगत 

असम में नागरिकता सिद्ध करने के लिए 1971 की समय-सीमा में संशोधन करना उचित होगा।

हम जानते हैं कि असम में शरणार्थी समस्या है। एनआरसी ;द नेशनल रजिस्टर आॅपफ सिटीजन्सद्ध में अत्यध्कि विलंब के साथ अपडेट करके शायद हमने समस्या को और भी ऽराब बनाकर राज्य में एक तरह से टाइम बम ही रऽ दिया है।लेकिन आइए, पहले उस समस्या की पृष्ठभूमि पर नजर डालें, जिसकी हम सारे भारतीयों को चिंता होनी चाहिए। माना जाता है कि असम की 3.3 करोड़ आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अवैध् अप्रवासियों का है ;अनुमान तो 50 से 20 पफीसदी तक के हैंद्ध, जिनमें से ज्यादातर बांग्लादेश से हैं। डेटा इस ओर इशारा करता है- असम की आबादी शेष राष्ट्र की तुलना में तेजी से बढ़ी ;50 व 60 के दशक में डेढ़ गुना और 70 के दशक में दोगुना तकद्ध। वहां रहे लोगों ने भी इसे महसूस किया। समस्या इतनी बड़ी हो गई कि असम आंदोलन ;1979-1985द्ध उठ ऽड़ा हुआ, जो अवैध् अप्रवासियों के ऽिलापफ लोकप्रिय आंदोलन था। लेकिन मोटे तौर पर शांतिपूर्ण था पर कुछ हिंसक हत्याकांडों सहित इसमें कई मौतें भी हुईं। अगस्त 1985 में समझौते के साथ आंदोलन ऽत्म हुआ। इस पर आंदोलन के नेता और केंद्र ने हस्ताक्षर किए। 1985 के इस असम समझौते पर 33 साल पहले दस्तऽत हुए थे, जिसे अब लागू किया जा रहा है और इससे एकदम नए किस्म की समस्याएं पैदा हो रही हैं। इस असम समझौते के मुताबिक केवल वे लोग, जो यह साबित कर सकें कि वे 24 मार्च 1971 के पहले मतदाता सूची में थे या उनके पूर्वज 24 मार्च 1971 के पहले मतदाता में सूची में थे, अपडेट की गई राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के लिए पात्रा होंगे। जो यह साबित नहीं कर पाए तो? अभी तो ठीक-ठीक कोई नहीं जानता कि उनका क्या होगा। शायद वे अपील कर सकें या वे सारी प्रॉपर्टी और मतदान का अध्किार ऽो दें या उन्हें देश से बाहर भेजा जाए या कोई अन्य योजना तैयार की जा सकती है। इस बारे में कोई स्पष्ट नीति नहीं दिऽती।कहा जाता है कि कांग्रेस ने भूतकाल में अवैध् अप्रवास को प्रोत्साहित किया। ज्यादातर अप्रवासी बांग्लादेश के मुस्लिम थे और संभावना थी कि वे कांग्रेस को वोट देंगे। विडंबना यह है कि कांग्रेस ने ही 1985 के इस दुष्कर समझौते पर दस्तऽत किए थे, जिसमें 1971 के टेस्ट में नाकाम रहने पर नागरिकता छीन लेने का प्रावधन है। बेशक, कांग्रेस ने एनआरसी को अपडेट करने पर कभी अमल नहीं किया। स्थिति लंबित पड़ी रही, जो आमतौर पर कोई अच्छी बात नहीं है लेकिन, भारत जैसे आसानी से उत्तेजित होने वाले देश में काम दे जाती है। एनआरसी को अपडेट करने के गंभीर काम की शुरुआत 2015 में हुई, जिसके तहत हाल ही में पहला मसौदा प्रकाशित हुआ। असम के 40 लाऽ मौजूदा नागरिकों को इससे बाहर कर दिया गया है। लोगों को आपत्ति जताने का अवसर देने के बाद, अपेक्षा है कि  दिसंबर 2018 में अंतिम मसौदा प्रकाशित हो जाएगा। विशेषज्ञों का कहना है कि एनआरसी को अब प्रकाशित करने में जरूरत से ज्यादा उत्साह की वजह यह है कि यह भाजपा के एजेंडे के अनुरूप है, जो अभी सत्ता में है। जो भी हो, तथ्य तो यह है कि इस पूरी कवायद से असम के लाऽों रहवासियों पर अवैध् अप्रवासी और 

अ-भारतीय होने का लैबल लग गया है। कल्पना कीजिए किसी जगह पर 40 साल रहना, परिवार बनाना और पिफर यह कहे जाना कि आप यहां के नहीं हैं। यही उन लोगों के साथ होगा जो 1971 की कट-आॅपफ के कापफी बाद 1978 में आए। कल्पना कीजिए कि आपके कोई पूर्वज 1971 में मतदाता सूची में थे, यह साबित करने का कोई दस्तावेज नहीं होने के कारण आपको गलत तरीके से अवैध् अप्रवासी घोषित कर दिया जाए। एनआरसी अपडेट करने के लिए लोगों के बीच काम करने वाले बिचैलियों व दलालों के लिए मौके की कल्पना कीजिए, जो पैसा लेकर 1960 से परदादा का नाम बेचेंगे। एक बार आध्किारिक रूप से ‘अवैध्’ घोषित होने के बाद होने वाले भेदभाव, मानवाध्किार उल्लंघन की कल्पना कीजिए ऽासतौर पर यदि वे अल्पसंख्यक हों? राष्ट्रवाद, संप्रभुता और असम के लोगों के अध्किारों को संरक्षण देने के नाम पर हम ऐसी कवायद कर रहे हैं जो इतनी मनमानी, बांटने वाली और अमल में इतनी कठिन है कि यह समाधन की बजाय और समस्याएं निर्मित कर देगी।

यहां तक कि असम आंदोलन के व्यथित लोगों ने भी नागरिकता के लिए कट-आॅपफ डेट को 1971 रऽने की समझदारी दिऽाई थी यानी जब उन्होंने 1985 में समझौते पर दस्तऽत किए तो 14 साल पहले की तारीऽ तय की। क्या हम इतने मूर्ऽ लोग हैं। जब लोगों ने यहां काम किया, वोट दिए, संपत्ति निर्मित की, कर चुकाए, परिवार बनाए और भारत में 47 साल जिंदगी जी तो हम उनकी नागिरकता कैसे ऽत्म कर सकते हैं? यदि हमने असम समझौता लागू करने में देर की तो क्या अपने आप समय सीमा भी आगे नहीं बढ़नी चाहिए? 1985 की तर्ज पर आज यह तारीऽ 2004 की होगी। कोई भी व्यक्ति जो यह बता सके कि वे ;या उनके पालकद्ध असम में 2004 के पहले रहते और वोट देते आए हैं वह वैध् निवासी है। क्या यह तर्कसंगत नहीं लगता?

व्यापक स्तर पर हमें अवैध् अप्रवासियों पर नियंत्राण रऽने की जरूरत तो है। इसके लिए हमारे पास बेहतर सीमा सुरक्षा और अध्कि ठोस भारतीय पहचान-पत्रा होने चाहिए। एक नीति होनी चाहिए कि ऐसे लोगों के साथ क्या किया जाए जो किसी तरह भारत में आ जाते हैं। क्या हम उन्हें गिरफ्रतार करें। उन्हें वापस भेज दें? दूसरे दर्जे के नागरिकों की तरह रहने पर मजबूर करें? या क्या हम इससे ऊपर उठ सकते हैं? हम हमारे सारे पड़ोसी देशों की स्थिति से परिचित हैं। उनमें किसी में भी वास्तविक लोकतंत्रा नहीं है ;हम भी बेहतर हो सकते हैं पर वे तो एकदम नाकाम हैं।द्ध क्या हम उन लोगों को भगा दें जो बेहतर जिंदगी के लिए हमारे पास आते हैं या हम बड़े भाई बनकर उनका संरक्षण करें? यदि हम उन्हें पासपोर्ट और वोट देने का हक नहीं दे सकते तो क्या हम उन्हें ‘ग्रीन-कार्ड’ जैसा कुछ दे सकते हैं, हमेशा रहने और विदेशियों की तरह काम करने का अध्किार? कोई आसान जवाब नहीं है। बड़े दिल वाला क्षेत्राीय बड़ा भाई बनना एक विकल्प हो सकता है। इससे क्षेत्रा में हमारी ताकत दिऽाई देगी। अभी तो असम के विशिष्ट मामले में हमें एनआरसी प्रक्रिया पर पुनर्दृष्टि डालने की जरूर है और ऽासतौर पर 1971 की समय-सीमा में संशोध्न करना चाहिए ताकि तकलीपफ कम हो सके। और इस बार इन संशोध्नों में दशकों का वक्त नहीं लगना चाहिए



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