कृषि क्षेत्र में आत्म-निर्भर है देश कृषि क्षेत्र में 1947 से अब तक का सफ़र

2018-10-02 0

भारत जब आजाद हुआ तो ‘शिप टू माउथ’ कंट्री कहलाता था। यानी जहाज से आयातीत खाद्यान्न लाखों  भूखे  लोगों तक सीधा पहुंचाया जाता था। उस स्थिति से पिछले 71 वर्षों में खाद्यान्न उत्पादन में पूर्ण आत्मनिर्भरता वैश्विक इतिहास का सुनहरा अध्याय बना हुआ है। ऐसा देश जिसने 1943 में बंगाल के कुख्यात अकाल की पृष्ठभूमि में जन्म लिया था, उसके लिए पिछले दो वर्षों में खाद्यान्न, दलहनों और दूध का इतना उत्पादन कि प्रबंध मुश्किल हो जाए, उपलब्धि का ऐसा उदाहरण है, जो कभी मिशन इम्पॉसिबल समझा जाता था।

लेकिन, स्तुतिगान यही ऽत्म हो जाता है। जहां उत्पादन कई गुना बढ़ा है, खेती  का संकट भी पिछले कुछ दशकों में और गहराया है। 1995 के बाद करीब 3-30 लाऽ किसानों ने आत्महत्या की है। यहां तक कि प्रगतिशील पंजाब में, जहां दुनिया में अनाज की सर्वाधिक उत्पादकता है, शायद ही कोई दिन गुजरता है जब किसान आत्महत्या की ऽबर नहीं आती। लगातार तीन वर्षों से किसानों के बढ़ते विरोध प्रदर्शन बढ़ता ग्रामीण असंतोष दर्शाता है, जो बाजार में कीमतें गिरने से उपजा है। आधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से 2014 और 2016 के बीच खेती से जुड़े विरोध प्रदर्शन आठ गुना बढ़े हैं। नीति आयोग के अध्ययन के मुताबिक 2011-12 और 2015 के बीच ऽेती से औसत आय आधा प्रतिशत सालाना से भी कम दर से बढ़ी है। ठीक-ठीक कहें तो 0-44 फीसदी की दर।

ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) की रिपोर्ट कहती है कि उपज की कीमत दो दशकों से स्थिर है। किसानों को जान-बूझकर 15 फीसदी कम भुगतान किया गया ताकि खाद्यान्न में महंगाई काबू में रहे। इतना ही नहीं 2016 का आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि 17 राज्यों में औसत ऽेतिहर परिवार की आय 20 हजार रुपए प्रतिवर्ष है। यानी 1,700 रुपए प्रतिमाह। कल्पना कीजिए कि इतनी कम आय में माह दर माह किसान परिवार कैसे गुजर-बसर करता होगा। कई अध्ययन बता चुके हैं कि देश के लिए अनाज पैदा करने वाले 58 फीसदी किसान भूखे  ही सोते हैं। यह कटु वास्तविकता भारत की दो प्रमुऽ कृषि क्रांतियों का विरोधाभास दिऽाती है। हरित क्रांति के बाद श्वेत क्रांति ने निश्चित ही भारत को खाद्यान्न, चीनी और दूध का प्रमुख  उत्पादक बना दिया। अनाज के गोदाम उफन रहे हैं और देश दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक बन गया है। दूध की कीमत तो बोतलबंद पानी से भी कम हो गई है और दुग्ध संयंत्रें में दूध के पावडर का बड़ा भंडार इकट्ठा हो गया है। चीनी अधिक होने से सरकार बफर स्टॉक बनाने पर मजबूर हुई है। पिछले दो वर्षों में दलहनों की बम्पर फसलों के बाद सरकार के लिए बढ़ते भंडार का प्रबंधन कठिन हो गया है। यह सरकार की आर्थिक नीति में बदलाव का नतीजा है, जो किसान को कृषि से निकालकर शहरों में भेजना चाहती है, जहां सस्ते श्रम की जरूरत है। लेकिन जब देश जॉबलेस ग्रोथ का सामना कर रहा हो और बेरोजगारी वैश्विक समस्या होती जा रही है, उस समय आजीविका का टिकाऊ साधन नष्ट करने से रोजगार का संकट और गहरा जाएगा



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