लीवर में फ़ैट जमना गंभीर बीमारियों की जड़ है

2018-10-04 0

फ़ैटी लीवर की समस्या अल्कोहलिक यानी शराब पीने वालों में देने को मिलती है या फि़र यह मोटापे के कारण होता है। मोटापे के कारण होने वाले फ़ैटी लीवर को नैश बोलते हैं। यानी नॉन अल्कोहलिक स्टेट ऑफ़ हेपेटाइटिस।

जिस तरह मोटे होने पर हमारे शरीर के बाकी हिस्सों पर चर्बी चढ़ जाती है, ठीक उसी तरह हमारे लीवर में भी चर्बी जमा होनी शरू हो जाती है। ऐसी स्थिति में लीवर में एकत्रित हुआ फैट लीवर के नॉर्मल सेल्स को खत्म करना शुरू कर देता है।

लीवर हमारे शरीर का दूसरा सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा जटिल अंग है। यह हमारे पाचन तंत्र का एक प्रमुख अंग हैं। हम जो कुछ भी खाते या पीते हैं, वह लीवर से होकर ही गुजरता है। हमारा लीवर अनेक जटिल कार्य करता है। यह संक्रमण और बीमारियों से लड़ता है, हमारे रत्तफ़ शर्करा के स्तर को नियंत्रित करता है। हमारे शरीर से विषैले तत्व को बाहर निकालता है, कोलेस्ट्रॉल के स्तर को नियंत्रित करता है। रत्तफ़ के जमने में सहायता करता है और बाइल का स्त्रव करता है। बाइल एक प्रकार का द्रव होता है जो फैट को ताड़ता है और उसे हमारे पाचन में शामिल करता है। यही कारण है कि बिना लीवर के हम जीवित नहीं रह सकते हैं। यह हमारे शरीर का एक ऐसा अंग है जिसके उचित देखभाल की जरूरत हमेशा पड़ती है। ऐसा न होने पर यह बेहद आसानी से क्षतिग्रस्त हो सकता है। लेकिन आजकल की बदलती जीवनशैली के कारण हमारे लीवर के बीमार होने की आशंका बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि आज लीवर से जुड़ी कई बीमारियां हमें अपने चपेट में लेने लगी हैं। इन बीमारियों में प्रमुख है फैटी लीवर की समस्या। लेकिन जीवनशैली में बदलाव लाकर इस बीमारी से बचा जा सकता है। एक नजर फैटी लीवर और इससे जुड़े हुए तथ्यों पर।

क्या है फैटी लीवर

नई दिल्ली स्थित हेल्दी ह्युमन क्लीनिक के सेंटर फॉर लीवर, किडनी ट्रांसप्लांट के डायरेक्टर एवं एचओडी डॉ- रविंदर पाल सिंह मल्होत्र का कहना है कि हमारे लीवर में जब चर्बी जमा हो जाती है तो ऐसी स्थिति फैटी लीवर कही जाती है। इसे ऐसे समझा जा सकता है। जिस तरह मोटे होने पर हमारे शरीर के बाकी हिस्सों पर चर्बी चढ़ जाती है, ठीक उसी तरह हमारे लीवर में भी चर्बी जमा होनी शुरू हो जाती है। ऐसी स्थिति में लीवर में एकत्रित हुआ फैट लीवर के नॉर्मल सेल्स को ऽत्म करना शुरू कर देता है। नॉर्मल सेल्स के धीरे-धीरे कर ऽत्म होने और लीवर में फैट जमा होने के कारण लीवर बीमार हो जाता है। यह स्थिति आगे चलकर हेपेटाइटिस, सिरोसिस, फाइब्रोसिस और कैंसर में भी बदल सकती है।

कारण/रिस्क फैक्टर

इस बीमारी के होने का मुख्य कारण मोटापा है। यहां मोटापा होने के कारणों को भी जानना जरूरी है, तभी इस बीमारी को कंट्रोल किया जा सकता है। बहुत ज्यादा ऽाना, जंक फूड ज्यादा खाना, बैलेस्ड डाइट नहीं लेना, एक्सरसाइज नहीं करना आदि कारणों से हमारे शरीर में फैट जमा होने लगता है और हम मोटे हो जाते हैं। इसके अलावा, डायबिटीज होने पर भी फैटी लीवर की समस्या हो सकती है। सच तो यह है कि डायबिटीज के कारण फैटी लीवर होने के मामले ज्यादा देने को मिलते हैं। इतना ही नहीं, थॉयरायड होने पर भी फैटी लीवर का तरा बढ़ जाता है। डा- रविंदर पाल सिंह मल्होत्र का कहना है कि फैटी लीवर एक ही प्रकार का होता है, लेकिन इसकी अवस्था अलग-अलग होती है।

फैटी लीवर की समस्या अल्कोहलिक यानी शराब पीने वालों में देने को मिलती है या फिर यह मोटापे के कारण होता है। मोटापे के कारण होने वाले फैटी लीवर को नैश बोलते हैं। यानी नॉन अल्कोहलिक स्टेट ऑफ हेपेटाइटिस। इसकी दूसरी अवस्था को एैश यानी अल्कोहलिक स्टेट ऑफ हेपेटाइटिस कहते हैं। यानी शराब पीने के कारण जिन लोगों को फैटी लीवर की प्रॉब्लम होती है। इसकी तीसरी अवस्था वह होती है या उन लोगों में होती है जो कैंसर होने पर कीमोथेरेपी ट्रीटमेंट लेते हैं। चूंकि इस तरह का इलाज कराने से लीवर डैमेज होता है और उसमें फैट डिपॉजिशन होना शुरू हो जाता है। इस अवस्था को कैश कहते हैं। तो इस प्रकार फैटी लीवर की कुल तीन अवस्थाएं होती हैं। नैश, ऐश और कैश ।

लक्षण

आमतौर पर एशियाई लोगों में फैटी लीवर के शुरुआती लक्षण पता नहीं चल पाते हैं। असल में लीवर की जो सबसे बड़ी खासियत है और इसकी जो सबसे बड़ी समस्या है वह यह कि जब तक यह 80 प्रतिशत तक क्षतिग्रस्त नहीं हो जाता, तब तक इसके लक्षण दिऽाई नहीं देते हैं और जब तक लक्षण दिखाई देते हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और फैटी लीवर की वजह से दूसरी गंभीर बीमारियां रोगी को हो चुकी होती हैं। ज्यादातर मामलों में फैटी लीवर की पहचान तब हो पाती है जब वह सिरोसिस में बदल चुका होता है।

लेकिन अगर किसी कारणवश मरीज डॉक्टर के पास जाता है और अपना रूटीन हेल्थ चेकअप करा लेता है तो इसका पता चल सकता है, नहीं तो लेट स्टेज में ही इसका पता चलता है। वैसे पीलिया, भू न लगना, पेट के अंदर पानी भर जाना आदि फैटी लीवर के ही लक्षण होते हैं। फैटी लीवर के एडवांस स्टेज में पहुंच जाने पर मरीज के दिमाग पर भी असर पड़ने लगता है, उसका दिमाग काम नहीं करता है, मरीज अपना होश खोने लगता है। उसे खून की उल्टियां होने लगती है। ये सारे लक्षण फैटी लीवर के ही होते हैं। फैटी लीवर टेस्ट दो प्रकार का होता है। नॉन इनवैसिव टेस्ट और इन वैसिव टैस्ट।

नॉन इनवैसिव टेस्टः

इस जांच में रोगी का रूटीन चेकअप किया जाता है। इसे दौरान सबसे पहले रोगी के मोटापे की जांच होती है कि रोगी कितना मोटा है यानी उसका बीएमआई यानी बॉडी मास इंडेक्स कितना है। इसके अलावा रोगी की हिस्ट्री पता की जाती है कि उसे डायबिटीज या थायरॉयड की प्रॉब्लम तो नहीं है। इसके लिए डायबिटीज और थायरॉयड की जांच की जाती है। इसके अतिरित्तफ़ लीवर फंक्शन टेस्ट होता है। लीवर फंक्शन टेस्ट के अंतर्गत बिलिरुबीन टेस्ट, लीवर एंजाइम्स एसजीओटी, एसजीपीटी के टेस्ट होते हैं। रोगी का लिपिड प्रोफाइल भी किया जाता है। इसके अलावा अल्ट्रासाउंड किया जाता है। इससे लीवर की एकदम सही स्थिति पता चल जाती है।

अगर फैटी लीवर काफी एडवांस स्टेज में पहुंच चुका है, रोगी को फाइब्रोसिस हो चुका है तो इस स्थिति में रोगी का फाइब्रोस्कैन किया जाता है। यह फाइब्रोस्कैन एक ऽास तरह के उपकरण के द्वारा किया जाता है। इस जांच से यह पता चल जाता है कि लीवर में कितना स्कार टिश्यू विकसित हो चुका है यानी लीवर कितना चोटिल हो चुका है। रोगी का फाइब्रोसिस और सिरोसिस किस अवस्था तक पहुंच चुका है। उपरोत्तफ़ सभी जांच से यह पता चल जाता है कि फैटी लीवर किस स्टेज तक पहुंच चुका है। ये सभी टेस्ट इंटर-रिलेटेड होते हैं। यानी ये सभी जांच एक-दूसरे से संबंधित होते हैं।

इनवैसिव टेस्टः

इन सभी जांच के अलावा, यह सुनिश्चित करने के लिए कि रोगी के लीवर में फैट की कितनी मात्र जमा हो चुकी है और फैटी लीवर किस स्टेज तक पहुंच चुका है, पेशेंट की लीवर बायोप्सी की जाती है। यह फाइनल टेस्ट है। इसे इनवैसिव टेस्ट बोलते हैं, क्योंकि इस टेस्ट के लिए लीवर के अंदर नीडिल डाली जाती है और उसके बाद लीवर की जांच की जाती है।

ट्रीटमेंट

इस बीमारी के ट्रीटमेंट के तहत सबसे पहले रोगी से मोटापे को कम करने को कहा जाता है और जितने भी रिस्क फैक्टर्स हैं उन्हें कम करने को कहा जाता है। जैसे अगर डायबिटीज है तो उसे कंट्रोल करने ही जरूरत होती है। थायरॉयड अगर अनकंट्रोल्ड है तो उसे कंट्रोल करने को कहा जाता है। मोटापा कम करने के लिए रोगी को डाइट सुधारने और एक्सरसाइज करने की सलाह दी जाती है। अर्ली स्टेज में फैटी लीवर का पता लग जाने पर इन सभी उपायों को अपनाने से लीवर में फैट की मात्र कम हो जाती है। और अगर इन सभी उपायों को अपनाने के बाद भी फैट की मात्र कम नहीं होती है तो फिर पेशेंट को दवाई दी जाती है। वहीं, लेट स्टेज में बीमारी का पता चलने पर यानी सिरोसिस या कैंसर की स्टेज में पता चलने पर लीवर ट्रांसप्लांट करना होता है।



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