धर्म बदल सकते हैं, फि़र जाति क्यों नहीं?

2018-10-05 0

यदि हम जाति प्रथा को ही खत्म कर दें तो शायद आरक्षण की जरूरत ही न पड़े। क्योंकि फि़र न कोई सवर्ण जाति का न कोई पिछड़े जाति का होगा और जाति के नाम पर आरक्षण माँगने वाला भी कोई नहीं होगा।

 

कितनी अजीब बात है, हमारा संविधान धर्म बदलने की आजादी देता है फिर हमारा समाज जाती बदलने को क्यों नही देता? सोचो यदि हम जाती भी बदल सकते तो इस आरक्षण की जरूरत ही नहीं पड़ती। हम सब आरक्षण के नाम पर लड़ते तो हैं, पर शायद ही आरक्षण का सही मायने किसी को पता होगा हमारे देश मे आरक्षण की जरूरत ही क्यों है और है तो ये कब तक लागू रहना चाहिए, ये कौन सोचेगा? क्या तब तक जब तक पिछड़े वर्ग अग्रिम न हो जाएं और सवर्ण वर्ग पिछड़े न हो जाएं? हम कदापि ऐसा नही चाहते फिर आरक्षण के लिए इतना बवाल क्यों है, वो भी महज पिछले 20-30 वर्षाे से ?

हमारे देश का इतिहास अगर देखें तो आरक्षण तो सदियों पुराना है आजादी से पहले आरक्षण सवर्णाे के लिए था, पिछड़ों के लिए नहीं आजादी से पहले किसी खास वर्ग के लिए जमींदारी आरक्षित थी, किसी खास वर्ग के लिए गावों में तालाब आरक्षित थे, किसी खास वर्ग के लिए जूते पहनना आरक्षित था, किसी खास वर्ग के लिए मंदिरों मे आगे की लाइन आरक्षित थी, किसी खास वर्ग के लिए हाथी या घोड़े पर चढ़ना आरक्षित था, किसी खास वर्ग के लिए कहीं आने-जाने पर रोक-टोक नही थी वहीं किसी खास वर्ग के लिए कुछ जगह आरक्षित थे।



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 लेकिन तब तो किसी को इस आरक्षण प्रणाली से ऐतराज नहीं होता। यदि किसी को ऐतराज होता तो उसका सामाजिक बाहिष्कार किया जाता था, या उसे गाँवो से बाहर निकाल दिया जाता था, कई जगह तो कुछ खास वर्ग के लिए गुलाम तक आरक्षित थे परंतु तब कोई आंदोलन नहीं होता इसके खिलाफ क्योंकि इससे किसी खास वर्ग को फायदा होता था। परन्तु आज जब आरक्षण से किसी खास वर्ग को फायदा पहुँच रहा है, तो सबको इतनी तकलीफ कैसे हो गयी, जबकि ये वही लोग हैं जो सदियों से आरक्षित थे समाज मे अच्छे पद और सम्मान के लिए।

 ये सच है की आज के आरक्षण प्रणाली से कुछ काबिल लोग पीछे हो रहे हैं, पर इसका दोष किसी खास वर्ग को देना, ये कहां तक लाजमी है। आज के आरक्षण प्रणाली से समाज में जो कड़वाहट है, उसका दोषी कौन है, ये कहना मुश्किल होगा। लेकिन कहीं न कहीं तो हम भी कुसूरवार हैं। आजादी से पहले की आरक्षण प्रणाली से वंचितों को आजादी के बाद आरक्षण से फायदा पहुँचने से भला किसी को इतना परहेज क्यों है, तब भी हम काबिलियत को दरकिनार करके किसी खास वर्ग को फायदा पहुँचाते थे। मैं आरक्षण प्रणाली के खिलाफ हूँ, पर सोचो यदि हम आरक्षण प्रणाली को खत्म कर दें, तो क्या होगा हमारा समाज जो जाति के नाम पर विभाजित है, क्या हम इतने परिपक्व हैं की हम फिर से जाति के नाम पर भेदभाव खत्म कर सकते।

 यदि हम जाति प्रथा को ही खत्म कर दें तो शायद आरक्षण की जरूरत ही न पड़े। क्योंकि फिर न कोई सवर्ण जाति का न कोई पिछड़े जाति का होगा और जाति के नाम पर आरक्षण माँगने वाला भी कोई नहीं होगा। फिर आरक्षण हम उसकी सामाजिक या आर्थिक स्थिति के अनुसार दे सकेंगे, जो गरीब या आर्थिक रूप से कमजोर है, जो अपनी शिक्षा पूरी करने में समर्थ नहीं है, आरक्षण उसे दिया जाएगा। फिर सबको एक बराबरी के स्तर पर लेकर उसकी काबिलियत के हिसाब से वो आगे बढ़ सकेगा।

 आइए, यदि आप सच में आरक्षण के खिलाफ हैं, तो पहले इस जाति प्रथा को समाप्त करें जाति के नाम पर ऊँच-नीच की खाई को खत्म करें। याद रखें , जातिवाद को खत्म किए बिना, आरक्षण को खत्म करने की बात बेमानी होगी। क्या हम ऐसे समाज की कल्पना नहीं कर सकते जहां कोई जाति से पिछड़ा या अग्रिम न हो, सभी एक समान हों और एक जैसे सम्मान पायें।  


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