दत्तक प्रक्रिया के लिए इन बातों का ध्यान रखना आवश्यक!

2018-10-05 0

गोद लेने के लिए हिंदू कानून अलग है और मुस्लिम, ईसाई, पारसी और यहूदी कानून अलग है। गोद लेने के कानूनों में 2015 में कुछ संशोधन किए गए हैं। गोद लेते हुए यह ध्यान रऽना जरूरी है कि यह किसी नर्सिंग होम, अस्पताल या गैर-मान्यता प्राप्त संस्थाओं से न हो, वरना दत्तक प्रक्रिया को गैर-कानूनी माना जा सकता है।

कुछ साल पहले दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में एक बच्चे के लिए दो दावेदार सामने आए। एक थे बच्चे के जैविक माता-पिता, जो बच्चे के जन्म के वत्तफ़ विवाहित नहीं थे। बदनामी के डर से बच्चे को गोद दे दिया था। अब शादी के बाद बच्चे को वापस मांगने लगे। गोद लेने वाले रिश्तेदारों ने मना कर दिया। पर अदालत ने असली माता-पिता को बच्चा सौंपने का आदेश दिया, क्योंकि गोद लेने की प्रक्रिया कानूनी तौर पर पूरी नहीं की गई थी। भारत में गोद लेने का नियम 1956 में बना लिया था। यह हिंदू अडॉप्शन एंड मेंटेनेंस एक्ट के नाम से जाना जाता है।

पर्याप्त शर्तों का पालन करके ही बच्चे को गोद लें तो अच्छा है, वरना कभी भी गोद लेना अवैध हो सकता है। गोद लेने की प्रक्रिया संक्षेप में इस तरह है। यह रजिस्टर्ड कानूनी प्रक्रिया है। गोद की प्रक्रिया पूरी करने के लिए एक आयोजन होता है। इसमें दोनों पक्ष गोद लेने वाला तथा जिससे गोद लिया जा रहा हो, इलाके के सब-रजिस्ट्रार के सामने पेश होते हैं। फिर स्टाम्प पेपर पर डीड तैयार की जाती है। डीड पर बच्चा गोद लेने वालों के फोटो लगते हैं। साथ ही दो गवाहों के भी हस्ताक्षर होते हैं। डीड पर सब रजिस्ट्रार भी हस्ताक्षर करते हैं। यह रिकॉर्ड में रजिस्टर्ड कर लिया जाता है। यदि बच्चा अनाथालय से लिया है तो जैविक माता-पिता के स्थान पर अनाथालय का नाम लिऽना होता है। जब बच्चे को गोद लिया जाता है तो बच्चे के नाम पर मौजूदा संपत्ति भी उसके साथ चली जाती है (यानी यह बच्चे की ही रहेगी)। गोद देने वाले के यहां से बच्चे के सभी कानूनी हक ऽत्म हो जाते हैं।






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इस बात का ध्यान रखा  जाना बहुत जरूरी है कि दत्तक लेने की प्रक्रिया स्पेशल अडॉप्शन एजेंसी से ही की जाए। नर्सिंग होम, अस्पताल या गैर-मान्यता प्राप्त संस्थाओं से बच्चे गोद लिए तो भविष्य में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। गोद लेने वाले माता-पिता अब ऑनलाइन रजिस्टर कर चाइल्ड अडॉप्शन रिसोर्स इंफर्मेशन सिस्टम का फायदा ले सकते हैं। इसमें बच्चे की देखभाल के भी मापदंड तय हैं।

मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी पर 1956 का अधिनियम लागू नहीं होता है, उनके लिए अलग कानून है। इस समुदाय के दंपत्ति गार्जियंस एंड वार्ड्स एक्ट 1890 के तहत किसी बच्चे को अपनाकर उसके संरक्षक बन सकते हैं। परंतु वे माता-पिता के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं कर पाते हैं। बच्चे के अठारह वर्ष का होने पर संरक्षक की भूमिका भी स्वतः समाप्त हो जाती है। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने किशोर न्याय (बच्चों की देख रेख ) अधिनियम 2000 में, वर्ष 2006 में किए गए संशोधनों की व्याख्या की थी। इसी आधार पर ऐतिहासिक निर्णय दिया था कि किसी भी धार्मिक पृष्ठभूमि के व्यत्तिफ़ को बच्चा गोद लेने का अधिकार है।

न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की खंडपीठ ने फैसले में कहा था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ मुस्लिम समुदाय के किसी भी व्यत्तिफ़ को बच्चा गोद लेने से रोक नहीं सकता और व्यत्तिफ़गत धार्मिक मान्यताओं के कारण किशोर न्याय अधिनियम के प्रावधानों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने कहा कि बच्चा गोद लेने वाले माता-पिता ऐसा करने या न करने के लिए स्वतंत्र हैं। चाहें तो वे अपने पर्सनल लॉ की मान्यता का पालन करें। हालांकि, गोद लेने को मौलिक अधिकार की मान्यता नहीं दी गई। 



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