समाज, दीवाली और पर्यावरण

2018-11-02 0

भारतीय जन मनस की स्मृतियों में रचा-बसा है कि दीपावली के ही दिन भगवान राम लंका विजय कर अयोध्या लौटे थे। उनकी अयोध्या वापसी पर नगरवासियों ने खुशियाँ मनाई थीं और रात्रि में पूरे नगर को दीपों से सजाया था। अयोध्या वापसी को चिरस्थायी बनाने के लिये हर साल दीवाली मनाई जाती है। रामायण काल से यह प्रथा चली आ रही है।

इसके अलावा, लगभग पूरे देश में रामलीला का आयोजन होता है। लोग उसके रंग में रंग जाते हैं। दशहरे के दिन रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण का वध आयोजन होता है। लोग बड़ी मात्र में इस उत्सव में हिस्सेदारी करते हैं। लोगों को बधाई देते हैं और असत्य पर सत्य की जीत का उत्सव मनाते हैं।

गौरतलब है कि भारत में भरपूर बरसात के सूचक उत्तरा नक्षत्र (12 सितम्बर से 22 सितम्बर) की विदाई के साथ त्योहारों यथा हरितालिका, ऋषि पंचमी, राधाष्टमी, डोल ग्यारस, अनन्त चतुर्दशी, नवरात्रि उत्सव, विजयादशमी, शरदपूर्णिमा और फिर दीपावली का सिलसिला प्रारम्भ होता है। लगता है, उत्सवों और त्योहारों का यह सिलसिला - महज संयोग नहीं है।

प्रतीत होता है मानों यह परम्परागत कृषक समाज द्वारा मनाया जाने वाला खरीफ उत्सव है। इसके अन्तर्गत दीपावली पर लक्ष्मी पूजन होता है। फिर गोवर्धन पूजा। उसके बाद, धन-धान्य और मिष्ठानों की महक बिखेरते अन्नकूट का आयोजन होता है।

लगता है सभी उत्सव कल-कल करती नदियों और अनाज उगाती रत्नगर्भा धरती जैसे प्राकृतिक संसाधनों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिये मनाए जाते हैं। ये आस्था और उत्सव के विविध रंग हैं जिन्हें भारतीय समाज ने महापुरुषों की कथाओं से जोड़कर तथा धार्मिक संस्कारों में ढालकर जीवनशैली का हिस्सा बनाया है। कुछ लोग दीपावली पर जलाए जाने वाले दियों की भूमिका को दूसरे नजरिए से देखते हैं। उनकी मान्यता है कि दीपावली का उत्सव, बरसाती कीट-पतंगों से मुत्तिफ़ दिलाने का आयोजन है इसलिये हर घर में तीन से चार दिन तक, अधिक-से-अधिक दीये जलाये जाते हैं। विचार, मान्यताएँ तथा लोक गाथाएँ अनेक हो सकती हैं पर यह निर्विवाद है कि हर साल दीपों का त्योहार पूरी श्रद्धा तथा धूमधाम से मनाया जाता है।


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मानवीय प्रवृत्ति अदभुत है। उसने, हर दिन कुछ नया और बेहतर करने की दृष्टि से दीपावली उत्सव को भव्यता से जोड़ा। इस क्रम में सबसे पहले दीपों की संख्या बढ़ी होगी। कालान्तर में जब बारूद की खोज हुई तो मानवीय प्रज्ञा ने दीपोत्सव में आतिशबाजी को जोड़ा। रसायनशास्त्र ने आतिशबाजी में मनभावन रंग भरे और उसे आवाज दी। पटाखे  बनना प्रारम्भ हुआ और उनमें विविधता आई।

विविधता से आकर्षण उपजा। उसका उपयोग, समृद्धि दर्शाने का जरिया बना। मौजूदा बाजार उनसे पटा पड़ा है। दूसरे देश, पटाखों  के निर्माण में आर्थिक समृद्धि और रोजगार के अवसर देख रहे हैं। पटाखों  की लोकप्रियता और सामाजिक स्वीकार्यता ने उन्हें विवाह समारोहों और खुशियों के इजहार का प्रभावशाली जरिया बना दिया है। अब चर्चा फायदे नुकसान की।

हर साल दीपावली पर करोड़ों रुपयों के पटाखों का उपयोग होता है। यह सिलसिला कई दिन तक चलता है। कुछ लोग इसे फिजूलखर्ची मानते हैं तो कुछ उसे परम्परा से जोड़कर देखते हैं। पटाखों से बसाहटों, व्यावसायिक, औद्योगिक और ग्रामीण इलाकों की हवा में तांबा, कैलशियम, गंधक, एल्युमीनियम और बेरियम प्रदूषण फैलाते हैं।

उल्लेखित  धातुओं के अंश कोहरे के साथ मिलकर अनेक दिनों तक हवा में बने रहते हैं। उनके हवा में मौजूद रहने के कारण प्रदूषण का स्तर कुछ समय के लिये काफी बढ़ जाता है।

विदित है कि विभिन्न कारणों से देश के अनेक इलाकों में वायु प्रदूषण सुरक्षित सीमा से अधिक है। ऐसे में पटाखों से होने वाला प्रदूषण, भले ही अस्थायी प्रकृति का होता है, उसे और अधिक हानिकारक बना देता है। पटाखों के चलाने से स्थानीय मौसम प्रभावित होता है तथा निम्न बीमारियों की सम्भावना बनती और बढ़ती है-

घटक                 सेहत पर प्रभाव

तांबा                    श्वास तंत्र में जलन

कैडमियम            किडनी को हानि, रत्तफ़ अल्पता

सीसा                   स्नायु तंत्र को हानि

मैगनिशियम          बुखार

सोडियम               त्वचा पर असर

सल्फर डाइऑक्साइड     दम घुटना ऑखों और गले में जलन

नाइट्रेट                         मस्तिष्क को क्षति की सम्भावना

नाइट्रेट                         बेहोशी की सम्भावना

औद्योगिक इलाकों की हवा में विभिन्न मात्र में राख, कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड और अनेक हानिकारक तथा विषैली गैसें और विषात्तफ़ कण होते हैं। उन इलाकों में पटाखे  फोड़ने से प्रदूषण की गम्भीरता तथा होने वाले नुकसान का स्तर कुछ दिनों के लिये बहुत अधिक बढ़ जाता है।

महानगरों में वाहनों के ईंधन से निकले धुएँ के कारण सामान्यतः प्रदूषण का स्तर सुरक्षित सीमा से अधिक होता है। पटाखे  उसे कुछ दिनों के लिये बढ़ा देते हैं। उसके कारण अनेक जानलेवा बीमारियों यथा हृदय रोग, फेफड़े, गालब्लेडर, गुर्दे, यकृत एवं कैंसर जैसे रोगों का खतरा बढ़ जाता है। 

हवा के प्रदूषण के अलावा, पटाखों से ध्वनि प्रदूषण होता है। कई बार शोर का स्तर सुरक्षित सीमा को पार कर जाता है। यह शोर कई लोगों तथा नवजात बच्चों की नींद उड़ा देता है। नवजात बच्चों और कतिपय गर्भवती महिलाओं को तो वह डराता है। वह पशु-पक्षियों तथा जानवरों के लिये भी अभीष्ठ नहीं है।

उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने सुरक्षित सीमा (125 डेसीबल) से अधिक शोर करने वाले पटाखों के जलाने पर रोक लगाई है। इसके अलावा शान्तिपूर्ण माहौल में नींद लेने के आम नागरिक के फंडामेंटल अधिकार की रक्षा के लिये उच्चतम न्यायालय ने दीपावली और दशहरे के अवसर पर रात्रि 10 बजे से लेकर सुबह 6 बजे तक पटाखों के चलाने को प्रतिबन्धित किया है।

इसके अतिरित्तफ़, फटाकों से निकले धुएँ के कारण वातावरण में दृश्यता घटती है। दृश्यता घटने से वाहन चालकों कठिनाई होती है और कई बार वह दुर्घटना का कारण बनती है। इसके अलावा पटाखों बनाने वाली कम्पनियों के कारखानों में होने वाली दुर्घटनाएँ और मौतें कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनसे सबक लेना चाहिए। इन मुद्दों में स्वास्थ्य मानकों की अनदेखी , बाल मजदूरी नियमों की अवहेलना या असावधानी मुख्य हैं।

पटाखों का उपयोग हमारी परम्परा का अंग है। चूँकि हमारी परम्परा पर्यावरण की पोषक रही है इसलिये हमें पर्यावरण हितैषी और सुरक्षित दीपावली मनाना चाहिए। यह काम प्रत्येक नागरिक अपने स्तर पर खुद कर सकता है।

उल्लेखनीय है कि भारत का संविधान रेखांकित करता है कि स्वच्छ पर्यावरण उपलब्ध कराना केवल राज्यों की ही जिम्मेदारी नहीं है अपितु वह प्रत्येक नागरिक का दायित्व भी है।

1- पटाखों का कम-से-कम उपयोग। इससे पर्यावरणी नुकसान कम होंगे। कम कचरा पैदा होगा। कचरा निष्पादन पर अधिक बोझ नहीं पड़ेगा।

2- कतिपय प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन को लगाम लगाने के लिये कम-से-कम अनावश्यक खरीद। इससे पर्यावरणी नुकसान का स्तर का ग्राफ थमेगा।

3- दीपावली पर कम अवधि के लिये बिजली का उपयोग। ऐसा करने से बिजली उत्पादन करने वाले संसाधनों की खपत पर अनावश्यक बोझ नहीं पड़ेगा।



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