शिक्षक, शिक्षा और समाज

2018-11-01 0

आज देश में भाषा, क्षेत्र  तथा जाति के नाम पर टकराव की प्रवृत्तियां पनप रही हैं। सांप्रदायिक शक्तियां सिर उठा रही हैं, देश के विकास में रोड़े डाल रही हैं।

स्वार्थ साधने के चक्कर में कई बार देश, समाज और कानून की परवाह नहीं की जाती। सबसे बड़े रोल मॉडल वे लोग माने जाने लगे हैं जिन्होंने खूब पैसा बनाया है। जिन्होंने किन्हीं मूल्यों के लिए संघर्ष किया है, पर आर्थिक सफलता हासिल की है, उन्हें पूछा नहीं जाता। ऐसे में देश और समाज के लिए मरने-खपने की प्रेरणा कहां से मिलेगी!

शिक्षक का दर्जा समाज में बड़ा ही सम्माननीय तथा उच्च माना गया है। वह नैतिकता व आदर्शों का प्रेरणास्रोत तथा जीवन-मूल्यों के सतत् नियामक रूप में भी जाना गया है। शिक्षक के रूप में एक विनयशील, अनुशासनबद्ध और आदर्श जीवन पर चलने वाले व्यत्तिफ़ को मान्य किया गया है तथा माना गया है कि उस पर समाज, राष्ट्र तथा मानव जीवन की सभी नैतिक जिम्मेदारियां हैं। समय के साथ ‘गुरु’ के आदर्श रूप की व्यवस्था मिटने लगी है तथा जीवन के दूसरे क्षेत्रें में कार्यरत लोगों की तरह ही शिक्षक भी बनता चला गया। बनता क्यों नहीं, वह भी हाड़-मांस का पुतला है, उसकी भी जिम्मेदारियां तथा महत्त्वाकांक्षाएं हैं। गिरते जीवन-मूल्यों की इस आंधी ने शिक्षक के आदर्श स्वरूप को झिंझोड़ कर रख  दिया और आज तो हालत यह है कि शिक्षक जगत में भी भ्रष्टता ने अपना घर बना लिया है।

शिक्षक बनते ही व्यत्तिफ़ पर नैतिकता का एक मुलम्मा अपने आप चढ़ जाता है। उसके द्वारा किया जाने वाला हर कार्य आदर्शों की कसौटी पर तोला जाता है और वह हमेशा एक मानसिक दबाव का जीवन जीता है। ईमानदारी और सच्चाई की प्रतिमूर्ति बनकर भी उसे जीना पड़ता है_ पर समाज का उसके प्रति जो नजरिया है उसमें रात-दिन का बदलाव आ गया है। मान-सम्मान तथा सेवा-भाव का जो दृष्टिकोण पहले शिक्षकों के प्रति हमारा रहा है, वह सर्वथा नए आयामों में बदल गया है। 

भौतिक सुख़-सुविधाएं समाज के दूसरे क्षेत्रें के लोग तो ले लें, पर शिक्षक अपनी वही फटीचरी जिंदगी जीता रहे, यह दोयम दर्जे की मानसिकता हमारे लिए घातक रही। जहां तक छात्रें के रवैये का सवाल है, वह बिल्कुल बदल गया है। स्कूल शिक्षक हो या कॉलेज शिक्षक, हर जगह शिक्षक को ही नीचा देख़ना पड़ रहा है। छात्रें में बढ़ती अनुशासनहीनता, उच्छृंख़लता और आए दिन होने वाली हड़तालें, उनके प्रति बढ़ते असंतोष का प्रतीक हैं। श्रद्धाभाव तो तनिक नहीं रहा, बिना गुरु के ज्ञान नहीं मिल सकता, यह बात असत्य मानी जाने लगी है।

जहां तक शिक्षकों में टड्ढूशन पढ़ाने के बढ़ते चलन का प्रश्न है, वह प्रासंगिक बन गया है। अल्प वेतन में जिस दायित्व की पूर्ति हम सोचते हैं, वह कतई संभव नहीं है। उसकी भी जरूरतें हैं, दायित्व हैं, बच्चे हैं, उनका लालन-पालन, ब्याह-शादी, जो भी मनुष्य रूप में उसे मिले हैं, उन्हें उसे निभाना ही है। जटिल होते जीवन संघर्ष में यदि वह इस श्रमसाध्य सहारे का आसरा नहीं लेगा तो वह कई मोर्चों पर हार जाएगा। दूसरे क्षेत्रें में जहां भ्रष्टाचार, रिश्वतख़ोरी, कमीशनखोरी तथा लूट-ख़सोट मची है, वहां शिक्षकों को इस तरह के अवसर बहुत कम हैं। गांव की प्राथमिक शाला में बिना किसी स्कूल बजट के पढ़ा रहे शिक्षक से किस घोटाले की आशंका की जा सकती है? अधिक से अधिक शिक्षक पर यह आरोप आ जाता है कि उसने रुपए लेकर छात्र के अंक बढ़ा दिए या उसे उत्तीर्ण कर दिया, पर यह इतना न्यून है कि वह यहां भी अपने नैतिक व आदर्श स्वरूप को बचाए हुए है। इस दृष्टि से वह जो श्रम करके पैसा कमाता है, उसे किसी भी तरह गलत नहीं कहा जा सकता। समाज में अच्छी बातें कहने व उपदेश देने वाले तो बहुत हैं, पर उन पर अमल करने वाले गिने-चुने हैं। शिक्षक समुदाय में अभी गैरत बची है। अब यह बात दीगर है कि स्कूलों में सरकार की ओर से साधन ही सुलभ न हों तो उसके लिए शिक्षक क्या करें?


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जहां तक शिक्षकों द्वारा छात्रें को शिक्षा देने का सवाल है, उसका संबंध हमारे बदलते जीवन मूल्यों से सीधा जुड़ा हुआ है। नए जीवन मूल्यों का असर यह है कि अधिकतर छात्र न तो पढ़ना चाहते हैं और न अभिभावक उन्हें दिशा ज्ञान देना चाहते हैं। सबका जोर सब किसी तरह कोई नौकरी पा लेने पर है, वह चाहे तिकड़म से ही क्यों न मिले। फिर, भी यह बहस जब-तब चलती रहती है कि दिशा ज्ञान देने का दायित्व माता-पिता पर है या शिक्षक पर? सच तो यह है कि यह विवाद ही निरर्थक है, दिशा-ज्ञान देने का दायित्व दोनों पर है। न तो गुरु इससे बच सकता और न ही अभिभावक। आज

अभिभावकों के पास समय नहीं है। वे जीविको- पार्जन के अलावा अन्य बातों में इतने उलझ गए हैं कि घर में भौतिकता की आंधी तो ला रहे हैं लेकिन ज्ञान का उजाला कम कर रहे हैं। वे दिन के चौबीस घंटों में से दस मिनट बालक के लिए नहीं निकाल पा रहे। माता-पिता को बच्चे की पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान देना होगा, इस पर गौर करते रहना होगा कि वह पाठड्ढक्रम से इतर और क्या-क्या सीख रहा है, उसमें कैसी आदतें विकसित हो रही हैं, उसमें कैसी रुचियां पनप रही हैं, उसकी दिलचस्पी किन विषयों में ज्यादा है।

अगर कोई भटकाव दिख़े तो शिक्षक को जानकारी देनी होगी तथा अपने स्तर पर भी उसे दूर करने का प्रयत्न करना होगा। अन्यथा ज्ञान का पाठ पूरा नहीं होगा तथा संस्कारहीनता के कारण उसका सही मार्ग से विचलित हो जाना स्वाभाविक होगा। शिक्षक भी इस मामले में अपनी नैतिक जिम्मेदारी से बचे नहीं होते। उनका जीवन छात्र के लिए दर्पण की तरह होता है जिसमें वह अपना अक्स देख़ता है। यदि वे ही आदर्श जीवन से हटने लगेंगे तो आगे आने वाली नई पीढ़ी का नागरिक नकारा तथा संस्कारहीन ही होगा। परिवार बालक की प्रारंभिक व प्राथमिक पाठशाला हो सकता है, पर स्कूली जीवन से जो तमीज, तहजीब और तालीम की दीक्षा उसे दी जाती है, उसका दायित्व उन्हीं का है। उससे बचने का प्रयास उन्हें नहीं करना चाहिए। वे ही यदि छात्रें के साथ खान-पान, रहन-सहन, बोल-चाल तथा उठने-बैठने में व्यवहार की कसौटी नहीं रखेगे तो वे किस आदर्श की बात करेंगे?

निःसंदेह आज के हालात में शिक्षकों के सिर पर दोहरी जिम्मेदारियां हैं। एक तो स्वयं के स्वरूप को इस भौतिकता की अंधी दौड़ से बचाना, साथ ही छात्र को नई रोशनी में संस्कारशील होने की राह पर ले जाना है।

आज देश में भाषा, क्षेत्र तथा जाति के नाम पर टकराव की प्रवृत्तियां पनप रही हैं। सांप्रदायिक शत्तिफ़यां सिर उठा रही हैं, देश के विकास में रोड़े डाल रही हैं। ऐसे में यदि शिक्षक नन्हें नागरिकों को दिशा ज्ञान तथा सामान्य कर्तव्य-बोध के साथ राष्ट्रीयता का पाठ नहीं पढ़ा सकें तो भारत का भविष्य निश्चित ही अंधकारमय है। स्वार्थ लोलुपता तथा निजी, क्षुद्र महत्त्वाकांक्षाओं की लड़ाई में व्यत्तिफ़ महत्त्वपूर्ण होता गया है। निजी स्वार्थ साधने के चक्कर में कई बार देश, समाज और कानून की परवाह नहीं की जाती। सबसे बड़े रोल मॉडल वे लोग माने जाने लगे हैं जिन्होंने खूब पैसा बनाया है। जिन्होंने जीवन में कुछ त्याग किया है और किन्हीं मूल्यों के लिए संघर्ष किया है, पर आर्थिक सफलता हासिल की है, उन्हें कहीं पूछा नहीं जाता। ऐसे में देश और समाज के लिए मरने-ख़पने की प्रेरणा कहां से मिलेगी!

आवश्यकता इस बात की है कि चाहे अतिरित्तफ़ परिश्रम करके ही छात्र को दीक्षित करना पड़े, शिक्षकों को इस ओर सजग रह कर समाज और राष्ट्र के लिए इस महायज्ञ में अपनी आहुति देनी ही होगी। उसके लिए जहां तक आर्थिक दबावों की बात है, वह उसके अभिभावकों से निरंतर संपर्क के जरिए निःसंकोच प्रकट कर देनी चाहिए, क्योंकि यह तो जीवन की आवश्यकता है। घोड़ा घास से यारी करे तो खाए क्या? चाहे गुरुकुल के गुरु जैसा स्वरूप वे न पाएं, पर युगानुकूल परिवर्तन के माध्यम से शिक्षक, छात्र को दायित्वशील नागरिक बनाने का दायित्व तो ले ही सकता है। आज की शिक्षा प्रणाली न तो व्यत्तिफ़ को रोजगार सुलभ करा रही और न ही संस्कारवान नागरिक बनाने में मदद कर रही है। ऐसी स्थिति में सहज ही यह सवाल उठता है कि इस शिक्षा प्रणाली की सार्थकता और प्रासंगिकता क्या है।

शिक्षक वेतन पाते हैं तो उसका मेहनताना वे शिक्षार्थी को ज्ञान की राह बताकर चुका सकते हैं। यहां शिक्षकों के लिए आचरण संहिता में बांधने जैसी कोई बात नहीं है, पर जिस तरह का यह पेशा है, उसमें नैतिकता को नकारा नहीं जा सकता। छात्रें के व्यत्तिफ़त्व-निर्माण की जिम्मेदारियों से शिक्षक बच नहीं सकता। बिगड़े हुए इस माहौल में कोई रास्ता निकालना ही होगा, जिससे देश के भविष्य पर मंडरा रहे संकट को दूर किया जा सके। आज छात्रें में माता-पिता, गुरु, राष्ट्र किसी के प्रति कोई श्रद्धाभाव नहीं है। शायद इसका कारण यही है कि उनमें जो प्रारंभिक संस्कारों तथा मानव मूल्यों का बीजारोपण होना चाहिए था, वह नहीं हुआ तथा वे ऐसी छाया तले पलते रहे, जिसमें अनुशासनहीनता व उच्छृंख़लता की खाद मिली हुई थी। टीवी तथा फिल्मों के साथ आई नई मनोरंजन संस्कृति ने भी व्यत्तिफ़ को आदर्श से भटकाया है तथा गलत-सही की परख़ का बोध कुंद किया है। संवेदनशीलता का चतुर्दिक क्षरण हुआ है। हर तरफ बढ़ रही हिंसा और नैतिक गिरावट के मूल में यही बात है। इसलिए इस क्षरण को रोकना है और समाज को नैतिक पतन से बचाना है, तो सबसे पहले शिक्षा पर ध्यान देना होगा। यह सिर्फ शैक्षिक बजट का मामला नहीं है। असल सवाल यह है कि शिक्षा हासिल करने के बाद इंसान में क्या फर्क आता है। क्या वह बेहतर इंसान और देश व समाज के प्रति जिम्मेदार नागरिक बनकर निकलता है?



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