कहानी-जीत गया जंगवीर

2019-06-01 0

मुनिया के डाक्टर बनने में जगवीरी का बड़ा योगदान था, जिसे वह भूली भी न थी, लेकिन वह जगवीरी से मिलना नहीं चाहती थी, उस के अंतस का जंगवीर जो आड़े था। वहीं जगवीरी उस के बिना पागलखाने तक पहुंच गई।

‘‘खत आया है --- खत आया है’’ पिंजरे में बैठी सारिका शोर मचाए जा रही थी। दोपहर के भोजन के बाद तनिक लेटी ही थी कि सारिका ने चीखना शुरू कर दिया तो जेठ की दोपहरी में कमरे की ठंडक छोड़ मुख्य द्वार तक जाना पड़ा।

देखा, छोटी भाभी का पत्र था और सब बातें छोड़ एक ही पंत्तिफ़ आंखों से दिल में खंजर सी उतर गई, ‘दीदी आप की सखी जगवीरी का इंतकाल हो गया। सुना है, बड़ा कष्ट पाया बेचारी ने।’ पढ़ते ही आंखें बरसने लगीं। पत्र के अक्षर आंसुओं से धुल गए। पत्र एक ओर रख कर मन के सैलाब को आंखों से बाहर निकलने की छूट दे कर 25 वर्ष पहले के वत्तफ़ के गलियारे में खो गई मैं।

जगवीरी मेरी सखी ही नहीं बल्कि सच्ची शुभचिंतक, बहन और संरक्षिका भी थी। जब से मिली थी संरक्षण ही तो किया था मेरा। जयपुर मेडिकल कालेज का वह पहला दिन था। सीनियर लड़के-लड़कियों का दल रैगिंग के लिए सामने खड़ा था। मैं नए छात्र-छात्रओं के पीछे दुबकी खड़ी थी। औरों की दुर्गति देख कर पसीने से तर-बतर सोच रही थी कि अभी घर भाग जाऊं।

वैसे भी मैं देहातनुमा कस्बे की लड़की, सबसे अलग दिखाई दे रही थी। मेरा नंबर भी आना ही था। मुझे देखते ही एक बोला, ‘अरे, यह तो बहनजी हैं।’ ‘नहीं, यार, माताजी हैं।’ ऐसी ही तरह-तरह की आवाजें सुन कर मेरे पैर कांपे और मैं धड़ाम से गिरी। एक लड़का मेरी ओर लपका, तभी एक कड़कती आवाज आई, ‘इसे छोड़ो। कोई इसकी रैगिंग नहीं करेगा।’

क्यों, तेरी कुछ लगती है यह?’ एक फैशनेबल तितली ने मुंह बना कर पूछा तो तड़ाक से एक चांटा उस के गाल पर पड़ा। ‘चलो भाई, इसके कौन मुंह लगे,’ कहते हुए सब वहां से चले गए। मैंने अपनी त्रणकर्ता को देखा। लड़कों जैसा डील-डौल, पर लंबी वेणी बता रही थी कि वह लड़की है। उसने प्यार से मुझे उठाया, परिचय पूछा, फिर बोली, ‘मेरा नाम जगवीरी है। सब लोग मुझे जंगवीर कहते हैं। तुम चिंता मत करो। अब तुम्हें कोई कुछ भी नहीं कहेगा और कोई काम या परेशानी हो तो मुझे बताना।’

सचमुच उसके बाद मुझे किसी ने परेशान नहीं किया। होस्टल में जगवीरी ने सीनियर विंग में अपने कमरे के पास ही मुझे कमरा दिलवा दिया। मुझे दूसरे जूनियर्स की तरह अपना कमरा किसी से शेयर भी नहीं करना पड़ा। मेस में भी अच्छा-खासा ध्यान रखा जाता। लड़कियां मुझसे खिचीखिची रहतीं। कभी-कभी फुसफुसाहट भी सुनाई पड़ती, ‘जगवीरी की नई ‘वो’ आ रही है।’ लड़के मुझे देखकर कन्नी काटते। इन सब बातों को दरकिनार कर मैंने स्वयं को पढ़ाई में डुबो दिया। थोड़े दिनों में ही मेरी गिनती कुशाग्र छात्र-छात्रओं में होने लगी और सभी प्रोफेसर मुझे पहचानने तथा महत्त्व भी देने लगे।

जगवीरी कालेज में कभी-कभी ही दिखाई पड़ती। 4-5 लड़कियां हमेशा उस के आगे-पीछे होतीं।

एक बार जगवीरी मुझे कैंटीन खीच ले गई। वहां बैठे सभी लड़के-लड़कियों ने उसके सामने अपनी फरमाइशें ऐसे रखनी शुरू कर दीं जैसे वह सब की अम्मां हो। उसने भी उदारता से कैंटीन वाले को फरमान सुना दिया, ‘भाई, जो कुछ भी ये बच्चे मांगें, खिला-पिला दे।’

मैं समझ गई कि जगवीरी किसी धनी परिवार की लाड़ली है। वह कई बार मेरे कमरे में आ बैठती। सिर पर हाथ फेरती। हाथों को सहलाती, मेरा चेहरा हथेलियों में ले मुझे एकटक निहारती, किसी रोमांटिक सिनेमा के दृश्य की सी उसकी ये हरकतें मुझे विचित्र लगतीं। उससे इन हरकतों को अच्छी अथवा बुरी की परिसीमा में न बांध पाने पर भी मैं सिहर जाती। मैं कहती, ‘प्लीज हमें पढ़ने दीजिए।’ तो वह कहती, ‘मुनिया, जयपुर आई है तो शहर भी तो देख, मौजमस्ती भी कर। हर समय पढ़ेगी तो दिमाग चल जाएगा।’

वह कई बार मुझे गुलाबी शहर के सुंदर बाजार घुमाने ले गई। छोटी-बड़ी चौपड़, जौहरी बाजार, एम-आई- रोड ले जाती और मेरे मना करते-करते भी वह कुछ कपड़े खरीद ही देती मेरे लिए। यह सब अच्छा भी लगता और डर भी लगा रहता।

एक बार 3 दिन की छुट्टिðयां पड़ीं तो आसपास की सभी लड़कियां घर चली गईं। जगवीरी मुझे राजमंदिर में पिक्चर दिखाने ले गई। उमराव जान लगी हुई थी। मैं उसके दृश्यों में खोई हुई थी कि मुझे अपने चेहरे पर गरम सांसों का एहसास हुआ। जगवीरी के हाथ मेरी गरदन से नीचे की ओर फिसल रहे थे। मुझे लगने लगा जैसे कोई सांप मेरे सीने पर रेंग रहा है। जिस बात की आशंका उस की हरकतों से होती थी, वह सामने थी। मैं उसका हाथ झटक अंधेरे में ही गिरतीपड़ती बाहर भागी। आज फिर मन हो रहा था कि घर लौट जाऊं।

मैं रोकर मन का गुबार निकाल भी न पाई थी कि जगवीरी आ धमकी। मुझे एक गुड़िया की तरह जबरदस्ती गोद में बिठा कर बोली, ‘क्यों रो रही हो मुनिया? पिक्चर छोड़ कर भाग आईं।’

हमें यह सब अच्छा नहीं लगता, दीदी। हमारे मम्मी-पापा बहुत गरीब हैं। यदि हम डाक्टर नहीं बन पाए या हमारे विषय में उन्होंने कुछ ऐसा-वैसा सुना तो----’ मैंने सुबकते हुए कह ही दिया।

अच्छा, चल चुप हो जा। अब कभी ऐसा नहीं होगा। तुम हमें बहुत प्यारी लगती हो, गुड़िया सी। आज से तुम हमारी छोटी बहन, असल में हमारे 5 भाई हैं। पांचों हम से बड़े, हमें प्यार बहुत मिलता है पर हम किसे लाड़ लड़ाएं,’ कह कर उसने मेरा माथा चूम लिया। सचमुच उस चुंबन में मां की महक थी।

जगवीरी से हर प्रकार का संरक्षण और लाड़-प्यार पाते कब 5 साल बीत गए पता ही न चला। प्रशिक्षण पूरा होने को था तभी बूआ की लड़की के विवाह में मुझे दिल्ली जाना पड़ा। वहां कुणाल ने, जो दिल्ली में डाक्टर थे, मुझे पसंद कर उसी मंडप में ब्याह रचा लिया। मेरी शादी में शामिल न हो पाने के कारण जगवीरी पहले तो रूठी फिर कुणाल और मुझको महंगे-महंगे उपहारों से लाद दिया।

मैं दिल्ली आ गई। जगवीरी 7 साल में भी डाक्टर न बन पाई, तब उसके भाई उसे हठ करके घर ले गए और उसका विवाह तय कर दिया। उसके विवाह के निमंत्रणपत्र के साथ जगवीरी का स्नेह, अनुरोध भरा लंबा सा पत्र भी था। मैंने कुणाल को बता रखा था कि यदि जगवीरी न होती तो पहले दिन ही मैं कालेज से भाग आई होती। मुझे डाक्टर बनाने का श्रेय माता-पिता के साथ-साथ जगवीरी को भी है।

जयपुर से लगभग 58 किलोमीटर दूर के एक गांव में थी जगवीरी के पिता की शानदार हवेली। पूरे गांव में सफाई और सजावट हो रही थी। मुझे और पति को बेटी-दामाद सा सम्मान-सत्कार मिला। जगवीरी का पति बहुत ही सुंदर, सजीला युवक था। बातचीत में बहुत विनम्र और कुशल। पता चला सूरत और अहमदाबाद में उसकी कपड़े की मिलें हैं।

सोचा था जगवीरी सुंदर और संपन्न ससुराल में रच-बस जाएगी, पर कहां? हर हफ्रते उसका लंबा-चौड़ा पत्र आ जाता, जिसमें ससुराल की उबाऊ व्यस्तताओं और मारवाड़ी रिवाजों के बंधनों का रोना होता। सुहाग, सुख या उत्साह का कोई रंग उसमें ढूंढ़े न मिलता। गृहस्थ सुख विधाता शायद जगवीरी की कुंडली में लिखना ही भूल गया था। तभी तो साल भी न बीता कि उसका पति उसे छोड़ गया। पता चला कि शरीर से तंदुरुस्त दिखाई देने वाला उसका पति गजराज ब्लडकैंसर से पीड़ित था। हर साल छह महीने बाद चिकित्सा के लिए वह अमेरिका जाता था। अब भी वह विशेष वायुयान से पत्नी और डाक्टर के साथ अमेरिका जा रहा था। रास्ते में ही उसे काल ने घेर लिया। सारा व्यापार जेठ संभालता था, मिलों और संपत्ति में हिस्सा देने के लिए वह जगवीरी से जो चाहता था वह तो शायद जगवीरी ने गजराज को भी नहीं दिया था। वह उस के लिए बनी ही कहां थी।

एक दिन जगवीरी दिल्ली आ पहुंची। वही पुराना मर्दाना लिबास। अब बाल भी लड़कों की तरह रख लिए थे। उस के व्यवहार में वैधव्य की कोई वेदना, उदासी या चिंता नहीं दिखी। मेरी बेटी मान्या साल भर की भी न थी। उसके लिए हम ने आया रखी हुई थी।

जगवीरी जब आती तो 10-15 दिन से पहले न जाती। मेरे या कुणाल के डड्ढूटी से लौटने तक वह आया को अपने पास उलझाए रखती। मान्या की इस उपेक्षा से कुणाल को बहुत क्रोध आता। बुरा तो मुझे भी बहुत लगता था पर जगवीरी के उपकार याद कर चुप रह जाती। धीरे-धीरे जगवीरी का दिल्ली आगमन और प्रवास बढ़ता जा रहा था और कुणाल का गुस्सा भी। सब से अधिक तनाव तो इस कारण होता था कि जगवीरी आते ही हमारे डबल बैड पर जम जाती और कहती, ‘यार, कुणाल, तुम तो सदा ही कनक के पास रहते हो, इस पर हमारा भी हक है। दो-चार दिन ड्राइंगरूम में ही सो जाओ।’

कुणाल उसके पागलपन से चिढ़ते ही थे, उसका नाम भी उन्होंने डाक्टर पगलानंद रख रखा था। परंतु उसकी ऐसी हरकतों से तो कुणाल को संदेह हो गया। मैंने लाख समझाया कि वह मुझे छोटी बहन मानती है पर शक का जहर कुणाल के दिलो-दिमाग में बढ़ता ही चला गया और एक दिन उन्होंने कह ही दिया, ‘कनक, तुम्हें मुझमें और जगवीरी में से एक को चुनना होगा। यदि तुम मुझे चाहती हो तो उससे स्पष्ट कह दो कि तुमसे कोई संबंध न रखे और यहां कभी न आए, अन्यथा मैं यहां से चला जाऊंगा।’

यह तो अच्छा हुआ कि जगवीरी से कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी। उसके भाइयों के प्रयास से उसे ससुराल की संपत्ति में से अच्छीखासी रकम मिल गई। वह नेपाल चली गई। वहां उसने एक बहुत बड़ा नर्सिंगहोम बना लिया। 10-15 दिन में वहां से उस के 3-4 पत्र आ गए, जिन में हम दोनों को यहां से दोगुने वेतन पर नेपाल आ जाने का आग्रह था।

मुझे पता था कि जगवीरी एक स्थान पर टिक कर रहने वाली नहीं है। वह भारत आते ही मेरे पास आ धमकेगी। फिर वही क्लेश और तनाव होगा और दांव पर लग जाएगी मेरी गृहस्थी। हमने मकान बदला, संयोग से एक नए अस्पताल में मुझे और कुणाल को नियुत्तिफ़ भी मिल गई। मेरा अनुमान ठीक था। रमता जोगी जैसी जगवीरी नेपाल में 4 साल भी न टिकी। दिल्ली में हमें ढूंढ़ने में असफल रही तो मेरे मायके जा पहुंची। मैंने भाई-भाभियों को कुणाल की नापसंदगी और नाराजगी बता कर जगवीरी को हमारा पता एवं फोन नंबर देने के लिए कतई मना किया हुआ था।

जगवीरी ने मेरे मायके के बहुत चक्कर लगाए, चीखी, चिल्लाई, पागलों जैसी चेष्टाएं कीं परंतु हमारा पता न पा सकी। तब हार कर उसने वहीं नर्सिंगहोम खोंल लिया। शायद इस आशा से कि कभी तो वह मुझ से वहां मिल सकेगी। मैं इतनी भयभीत हो गई, उस पागल के प्रेम से कि वार-त्योहार पर भी मायके जाना छूट सा गया। हां, भाभियों के फोन तथा यदाकदा आने वाले पत्रें से अपनी अनोखी सखी के समाचार अवश्य मिल जाते थे जो मन को विषाद से भर जाते।

उस के नर्सिंगहोम में मुफ्रतखोर ही अधिक आते थे। जगवीरी की दयालुता का लाभ उठा कर इलाज कराते और पीठ पीछे उसका उपहास करते। कुछ आदतें तो जगवीरी की ऐसी थीं ही कि कोई लेडी डाक्टर, सुंदर नर्स वहां टिक न पाती। सुना था किसी शांति नाम की नर्स को पूरा नर्सिंगहोम, रुपए-पैसे उसने सौंप दिए। वे दोनों पति-पत्नी की तरह खुल्लम-खुल्ला रहते हैं। बहुत बदनामी हो रही है जगवीरी की। भाभी कहतीं कि हमें तो यह सोच कर ही शर्म आती है कि वह तुम्हारी सखी है। सुनसुन कर बहुत दुख होता, परंतु अभी तो बहुत कुछ सुनना शेष था। एक दिन पता चला कि शांति ने जगवीरी का नर्सिंगहोम, कोठी, कुल संपत्ति अपने नाम करा कर उसे पागल करार दे दिया। पागलखाने में यातनाएं झेलते हुए उसने मुझे बहुत याद किया। उसके भाइयों को जब इस स्थिति का पता किसी प्रकार चला तो वे अपनी नाजों पली बहन को लेने पहुंचे। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी, अनंत यात्र पर निकल चुकी थी जगवीरी।

मैं सोच रही थी कि एक ममत्व भरे हृदय की नारी सामान्य स्त्री का, गृहिणी का, मां का जीवन किस कारण नहीं जी सकी। उसके अंतस में छिपे जंगवीर ने उसे कहीं का न छोड़ा। तभी मेरी आंख लग गई और मैंने देखा जगवीरी कई पैकेटों से लदीफंदी मेरे सिरहाने आ बैठी, ‘जाओ, मैं नहीं बोलती, इतने दिन बाद आई हो,’ मैंने कहा। वह बोली, ‘तुम ने ही तो मना किया था। अब आ गई हूं, न जाऊंगी कहीं।’

तभी मुझे मान्या की आवाज सुनाई दी, ‘‘मम्मा, किस से बात कर रही हो?’’ आंखें खोंल कर देखा शाम हो गई थी।



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