ईरान को क्यों तबाह करना चाहता है अमरीका?

2019-07-01 0


अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने कहा है कि वो ईरान के तीन ठिकानों पर हमला करने के लिए पूरी तरह से तैयार थे, लेकिन हमला होने के सिर्फ 10 मिनट पहले उन्होंने अपना फ़ैसला बदल दिया।

एनबीसी मीट द प्रेस कार्यक्रम में उन्होंने इसका कारण बताया, ‘मैंने पूछा कि हमले में कितने लोग मारे जाएंगे। सेना के जनरल ने पहले मुझसे थोड़ा समय मांगा और फिर मुझे बताया कि करीब डेढ़ सौ लोगों की मौत होगी। मैंने इस पर फिर से सोचा। मैंने कहा कि उन्होंने एक मानव रहित ड्रोन को उड़ा दिया है और इसके जवाब में हम आधे घंटे में 150 मौतों के जिम्मेदार होंगे। मैंने कहा हमला रोक दो।’

ईरान का दावा कि उसने एक अमरीकी जासूसी ड्रोन को मार गिराया

मामला कुछ ऐसा है कि ईरान ने एक अमरीकी ड्रोन को मार गिराया था। ईरान का दावा है कि अमरीकी ड्रोन ईरानी हवाई क्षेत्र में था जबकि अमरीका इस दावे को गलत बताता है। ईरान ने ये भी कहा कि कम से कम 35 लोगों को लेकर जा रहा अमरीका का एक विमान ईरानी हवाई क्षेत्र के बिल्कुल नजदीक से होकर गुजरा था लेकिन उन्होंने तनाव न बढ़ाने के लिए उस पर हमला नहीं किया।

ट्रंप का कहना है कि परमाणु संधि से अमरीका के बाहर जाने और प्रतिबंध लगने से ईरान पहले ही काफी कमजोर हो चुका है और अमरीका ईरान से युद्ध नहीं करना चहता।

एक संवाददाता मानसी दास ने अमरीका के डेलावेयर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मुक्तदर खान से बात की और उनसे पूछा कि क्या वाकई युद्ध की स्थिति बन रही है या फिर इसका नाता अमरीका में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों से है यानी इसका फायदा ट्रंप चुनावों में उठा सकते हैं।

प्रोफेसर मुक्तदर खान ने बताया कि शुरू से ही ट्रंप प्रशासन का एजेंडा रहा है कि ईरान को कंट्रोल किया जाए। मध्य पूर्व में बढ़ता प्रभाव, यमन में हुती विद्रोहियों को ईरान के सपोर्ट को अमरीका सख्त नापसंद करता है।

अमरीका में दो चीजें हैं, जब साल 1979 में ईरान में क्रांति आई थी तो वहां लगभग 400 दिनों तक अमरीकी दूतावास में अमरीकियों को बंधक बनाकर रखा लगा था इससे अमरीका में ईरान विरोधी भावनाएं काफी प्रबल हो गईं।

दूसरा इजरायल की भी लॉबिंग अमरीका में बेहद मजबूत है, फलीस्तीन के मसले को ध्यान से हटाने के लिए इजरायल ने इस बात पर जोर दिया कि ईरान के परमाणु हथियार पूरे देश के लिए खतरा हैं। इजरायल के अरबपति अमरीकी चुनाव में पैसे लगाते हैं, 2016 राष्ट्रपति चुनाव में भी इजरायल ने रिपब्लिकन को पैसे दिए थे। इजरायल का भी एजेंडा एंटी-ईरान रहा है।

ईरान में सत्ता परिवर्तन चाहता है अमरीका?

अब इजराइल के मध्य पूर्व में अपना वर्चस्व स्थापित करने का एक ही खतरा है और वो है ईरान। तो इजराइल चाहता है कि अमरीका ही ईरान को खत्म कर दे।

अमरीका ईरान पर दो-तीन ऑपरेशन कर चुका है जिसमें से एक साइबर अटैक था। 1990 से 1993 में जब भी ईरान कोई न्यूक्लियर टेस्ट तो इजराइल की उस पर प्रतिक्रिया आती थी। उस वत्तफ़ की खबरों को देखें तो पता चलता है कि इजराइल को लगता था कि ईरान बम बनाकर उन पर हमला कर देगा। लेकिन सोचने वाली बात है कि अगर ईरान इजराइल पर हमला कर भी देता तो वह खुद जवाबी कार्रवाई में बर्बाद हो जाता।

ईरान के पास उस तकनीक की कमी है जिससे वो यूरेनियम को एनरिच कर सके यानी यूरेनियम को परमाणु हथियार में तब्दील करने के लिए उसे 90 फीसदी तक रिफाइन करना पड़ता है। ईरान तो कभी 20 फीसदी भी इसका शोधन नहीं कर सका। वहीं इजराइल के पास 200 परमाणु हथियार हैं।

एक बड़ी वजह ये भी है कि अमरीका चाहता है कि ईरान में सत्ता परिवर्तन हो। 1953 में जब ईरान लोकतांत्रिक देश बना था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री ने देश के ऑयल फील्ड का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। उस वक्त अमरीका ने वहां तख्तापलट किया और लोकतंत्र को बादशाहियत में बदल दिया और ईरान की कमान मोहम्मद रजा पहलवी के हाथों में आ गई। चूंकि वह अमरीका की मदद से सत्ता में थे तो वो हमेशा अमरीका का समर्थन करते रहे।

लेकिन ईरान में 1979 की क्रांति के बाद हालात बदल चुके हैं, शिया ट्रांसफॉर्मेशन के बाद अब ईरान मध्य-पूर्व में काफी शक्तिशाली हो चुका है और अमरीका के लिए चैलेंज बन गया है।

अमरीका चाहता है कि वहां फिर सत्ता परिवर्तन हो और अमरीका का समर्थन करने वाला नेता तेहरान की गद्दी पर बैठे। वह चाहता है कि जैसे सउदी अरब, पाकिस्तान, पहले तुर्की अमरीका के साथ रहते थे वैसे ही तेहरान भी अमरीका की ओर झुकाव रखें।

पहले अमरीका ने सोचा कि व्यापार प्रतिबंध लगा कर ईरान को काबू किया जाए लेकिन अब जब बात नहीं बन रही है तो अमरीका ईरान को कष्ट देना चाहता है ताकि वहीं की जनता इन हालात से तंग आकर अपने नेता के खिलाफ खुद विद्रोही हो जाए और जनता ही तख्तापलट की शुरुआत करे।

भारत पर इसका असर पड़ेगा

पिछले कुछ दिनों में भारत ने ये साफ कर दिया है कि वह ईरान से तेल नहीं खरीदेगा। लेकिन भारत इसे कैसे रिप्लेस करेगा इसकी कोई साफ तस्वीर सामने नहीं पेश की गई है।

ये तो तय है कि अगर इस क्षेत्र में युद्ध होगा तो इसका असर सभी पर पड़ेगा। खास कर यहां पड़ने वाले देशों में तेल की भारी किल्लत हो सकती है। कुछ दिन पहले टैंकर हमले के बाद से ही कीमतों में इजाफा होने लगा था।

अमरीका को इससे कोई नुकसान नहीं होगा। वो मध्य-पूर्व से तेल लेना बंद कर चुका है और वह खुद अपनी जरुरत से ज्यादा तेल का उत्पादन कर लेता है। अमरीका के पास एक सा का ऑयल रिजर्व है। लेकिन बाकी देशों की अर्थव्यवस्था ठप्प हो जाएगी। वैश्विक संकट की स्थिति पैदा हो जाएगी।

अमरीका की सबसे मुखर होकर आलोचना जर्मनी ने की है, वहीं रूस और चीन ने दबी आवाज में ही सही कहा है कि अमरीका को ऐसे कदम नहीं उठाने चाहिए।

लेकिन समझना होगा कि अमरीका में अहम पदों पर बैठे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन और विदेश मंत्री माइक पोम्पियो दोनो ही ईरान विरोधी हैं।

खासकर जॉन बोल्टन का एक अहम मकसद है कि वो ईरान को कंट्रोल करें और यहां सत्ता परिवर्तन हो।

ऐसे में ये स्थिति बहुत नाजुक है क्योंकि अगर किसी के भी संयम खोने से जंग छिड़ेगी तो ये सबका नुकसान होगा।



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