वित्तमंत्री के लिए मुश्किल चुनौतिया

2019-07-01 0

देश की नई वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को कड़ी चुनौतियों का सामना करना पडे़गा क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था में धीमापन आ रहा है। मंदी का सिलसिला लगातार तीन तिमाहियों तक पहुंच गया है। एक आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2018-2019 की अंतिम तिमाही में यानी जनवरी से मार्च के बीच देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) केवल 5-8 फीसदी की दर से बढ़ा। यह अनुमान से कम हैं वर्ष की पहली तिमाही में 8 फीसदी की वृद्धि के बाद जुलाई-सितंबर के दौरान दूसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था 7 फीसदी की दर से और अक्टूबर-दिसम्बर की तीसरी तिमाही में 6-6 फीसदी की दर से विकसित हुई। यह मंदी का स्पष्ट संकेेत है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने भी पूरे वर्ष के अपने वृद्धि अनुमान को 7 फीसदी से घटाकर 6-8 फीसदी कर दिया। आंकड़े तमाम क्षत्रों में मंदी का संकेत दे रहे हैं। इससे इस आशंका की पुष्टि होती है कि मौजूदा मंदी चक्रीय न होकर ढांचागत है। अप्रैल 2019 के अंतिम उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक आठ प्रमुख बुनियादी क्षत्रों में मंदी जारी है और इनकी वृद्धि 4-9 फीसदी से घटकर 2-6 फीसदी हो गई।

अंतिम तिमाही में धीमी वृद्धि का अर्थ यह भी है कि सरकार अब भारत को दुनिया की सबसे तेज विकसित होती बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दावा नहीं कर सकती। हालांकि यह तमगा भी कोई मायने नहीं रखता क्योंकि तमाम समान अर्थव्यवस्थाओं का प्रदर्शन भारत से बेहतर है। आर्थिक मोर्चे पर नई सरकार के समक्ष कई चुनौतियां हैं। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2017-18 में बेरोजगारी दर 6-1 फीसदी थी हालांकि अधिकारियों का यह भी कहना है कि इन आंकड़ों की पिछले वर्षों से तुलना नहीं की जा सकती। मंदी के कई अन्य संकेतक भी हैं। अप्रैल में विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्र का पर्चेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स 51-6 और 51 रहा। अगस्त और सितम्बर 2018 के बद यह सबसे धीमी वृद्धि थी। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक का पूंजीगत वस्तु क्षेत्र भी अप्रैल में लगातार तीसरे महीने कमजोर हुआ। देश की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी मारुति सुजुकी ने मई में अपनी बिक्री 22 फीसदी गिरने की बात कही। यह सात वर्षों का न्यूनतम स्तर है।

मौजूदा मंदी के कई कारक हैं। इनमें से एक कारक है अत्यधिक क्षमता की समस्या जिसके चलते निजी क्षेत्र का निवेश कमजोर पड़ता है। जबकि यह वृद्धि का एक बड़ा कारक है। निवेश में इसलिए भी कमी आई है क्योंकि गैर बैंकिग वित्तीय क्षेत्र की फाइनेंसिंग पर सवाल उठे हैं। यह क्षेत्र आईएलएंडएफएस के कुछ कर्ज के डिफॉल्ट होने के बाद लगे झटके से उबरने में नाकामयाब रहा है। सरकार को इस क्षेत्र में सुधार के लिए अपनी प्राथमिकता तय करनी होगी। ताकि धन का प्रवाह बरकरार रखा जा सके। यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि यह क्षेत्र कॉर्पोरेट जगत के ऋण की फाइनेंसिंग की दृष्टि से बहुत अहम होकर उभरा है। दुनिया को लेकर भी हमें कहीं अधिक खुला नजरिया अपनाना होगा। अगर हम निर्यात पर ध्यान नहीं देते हैं तो हमारी अतिरिक्त क्षमता की समस्या बरकरार रहेगी। देश में इतनी अधिक मांग नहीं है जितनी कि हमारी उत्पादन क्षमता हो चुकी है। अगर हम शेष  विश्व का निर्यात केन्द्र बन जाएं तो इतने भर से हमारी अतिरिक्त क्षमता की समस्या दूर हो जाएगी। सरकार के पिछले कार्यकाल में अधिकांश वक्त निर्यात के मोर्चे पर प्रगति देखने को नहीं मिली। सीतारमण को आगे बढ़कर ढांचागत सुधार की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना होगा। ऐसा करने  ही प्रतिस्पर्धा बहाल की जा सकती है और निर्यात वृद्धि की सहायता से अर्थव्यवस्था को उबारा जा सकता है। 



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