डॉ- विष्णु विराट की कहानी आखिर कहां तक?

2019-07-01 0

बुढ़ापे में बच्चों से माता-पिता क्या चाहते हैं। अपनी थोड़ी देखभाल, प्यार के दो मीठे बोल, अपनापन ही न। बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करने, उन्हें किसी काबिल बनाने के एवज में उनसे यह अपेक्षा करना कुछ ज्यादा तो नहीं।

लेकिन बुढ़ापे में अकसर बहुतों के साथ ऐसा होता है जैसा मनमोहन के साथ हुआ। रात के लगभग साढे़ 12 बजे का समय रहा होगा। मैं सोने की कोशिश कर रहा था। शायद कुछ देर में मैं सो भी जाता तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया।

इतनी रात को कौन आया है, यह सोच कर मैं ने दरवाजा खोला तो देखा हरीश खड़ा है।

हरीश ने अंदर आ कर लाइट आन की फिर कुछ घबराया हुआ सा पास बैठ गया।

‘‘क्यों हरीश, क्या बात है इतनी रात गए?’’

हरीश ने एक दीर्घ सांस ली, फिर बोला, ‘‘नीलेश का फोन आया था। मनमोहन चाचा---’’

‘‘क्या हुआ मनमोहन को?’’ बीच में उस की बात काटते हुए मैं उठ कर बैठ गया। किसी अज्ञात आशंका से मन घबरा उठा।

‘‘आप को नीलेश ने बुलाया है?’’

‘‘लेकिन हुआ क्या? शाम को तो वह हंसबोल कर गए हैं। बीमार हो गए क्या?’’

‘‘कुछ कहा नहीं नीलेश ने।’’

मैं बिस्तर से उठा। पाजामा, बनियान पहने था, ऊपर से कुर्ता और डाल लिया, दरवाजे से स्लीपर पहन कर बाहर निकल आया।

हरीश ने कहा, ‘‘मैं बाइक निकालता हूं, अभी पहुंचा दूंगा।’’

मैं ने मना कर दिया, ‘‘5 मिनट का रास्ता है, टहलते हुए पहुंच जाऊंगा।’’

हरीश ने ज्यादा आग्रह भी नहीं किया।

महल्ले के छोर पर मंदिर वाली गली में ही तो मनमोहन का मकान है। गली में घुसते ही लगा कि कुछ गड़बड़ जरूर है। घर की बत्तियां जल रही थीं। दरवाजा खुला हुआ था। मैं दरवाजे पर पहुंचा ही था कि नीलेश सामने आ गया। बाहर आ कर मेरा हाथ पकड़ा।

मैंने हाथ छुड़ा कर कहा, ‘‘पहले यह बता कि हुआ क्या है? इतनी रात गए क्यों बुलाया भाई?’’ मैं अपने-आप को संभाल नहीं पा रहा था इसलिए वहीं दरवाजे की सीढ़ी पर बैठ गया। गरमी के दिन थे, पसीना-पसीना हो उठा था।

‘‘मुन्नी, एक गिलास पानी तो ला चाचाजी को,’’ नीलेश ने आवाज दी और उसकी छोटी बहन मुन्नी तुरंत स्टील के लोटे में पानी लेकर आ गई।

हरीश ने लोटा मेरे हाथों में थमा दिया। मैंने लोटा वहीं सीढ़ियों पर रख दिया। फिर नीलेश से बोला, ‘‘आखिर माजरा क्या है? मनमोहन कहां हैं? कुछ बताओगे भी कि बस, पहेलियां ही बुझाते रहोगे?’’

‘‘वह ऊपर हैं,’’ नीलेश ने बताया।

‘‘ठीक-ठाक तो हैं?’’

‘‘जी हां, अब तो ठीक ही हैं।’’

‘‘अब तो का क्या मतलब? कोई अटैक वगैरा पड़ गया था क्या? डाक्टर को बुलाया कि नहीं?’’ मैं बिना पानी पिए ही उठ ड़ा हुआ और अंदर आंगन में आ गया, जहां नीलेश की पत्नी सुषमा, बंटी, पप्पी, डौली सब बैठे थे। मैंने पूछा, ‘‘रामेश्वर कहां है?’’

‘‘ऊपर हैं, दादाजी के पास,’’ बंटी ने बताया।

आंगन के कोने से लगी सीढ़ियां चढ़कर मैं ऊपर पहुंचा। सामने वाले कमरे के बीचों-बीच एक तख्त पड़ा था। कमरे में मद्धम रोशनी का बल्ब जल रहा था। एक गंदे से बिस्तर पर धब्बेदार गिलाफ वाला तकिया और एक पुराना फटा कंबल पैताने पड़ा था। तख्त पर मनमोहन पैर लटकाए गर्दन झुकाए बैठे थे। फिर नीचे जमीन पर बड़ा लड़का रामेश्वर बैठा था।

‘‘क्या हुआ, मनमोहन? अब क्या नाटक रचा गया है? कोई बताता ही नहीं,’’ मैं धीरे-धीरे चल कर मनमोहन के करीब गया और उन्हीं के पास बगल में तख्त पर बैठ गया। तख्त थोड़ा चरमराया फिर उस की हिलती चूलें शांत हो गईं।

तुम बताओ, रामेश्वर? आखिर बात क्या है?’’

रामेश्वर ने छत की ओर इशारा किया। वहां कमरे के बीचों-बीच लटक रहे पुराने बंद पंडे से एक रस्सी का टुकड़ा लटक रहा था। नीचे एक तिपाई रखी थी।

‘‘फांसी लगाने को चढ़े थे। वह तो मैंने इनकी गैंगैं की घुटी-घुटी आवाज सुनी और तिपाई गिरने की धड़ाम से आवाज आई तो दौड़कर आ गया। देखा कि रस्सी से लटक रहे हैं। तुरंत ही पैर पकड़ कर कंधे पर उठा लिया। फिर नीलेश को आवाज दी। हम दोनों ने मिल कर जैसे-तैसे इन्हें फंदे से अलग किया। चाचाजी, यह मेरे पिता नहीं पिछले जन्म के दुश्मन हैं।

‘‘अपनी उम्र तो भोग चुके। आज नहीं तो कल इन्हें मरना ही है, लेकिन फांसी लगाकर मरने से तो हमें भी मरवा देते। हम भी फांसी पर चढ़ जाते। पुलिस की मार खाते, पैसों का पानी करते और घर- द्वार फूंक कर इनके नाम पर फंदे पर लटक जाते।

‘‘अब चाचाजी, आप ही इनसे पूछिए, इन्हें क्या तकलीफ है? गरम खाना नहीं खाते, चाय, पानी समय पर नहीं मिलता, दवा भी चल ही रही है। इन्हें कष्ट क्या है? हमारे पीछे हमें बर्बाद करने पर क्यों तुले हैं?’’ रामेश्वर ने कुछ खुलकर बात करनी चाही।

‘‘लेकिन यह सब हुआ क्यों? दिन में कुछ झगड़ा हुआ था क्या?’’

‘‘कोई झगड़ा-टंटा नहीं हुआ। दोपहर को सब्जी लेने निकले तो रास्ते में अपने यार-दोस्तों से भी मिल आए हैं। बिजली का बिल भी भरने गए थे, फिर बंटी के स्कूल जाकर साइकिल पर उसे ले आए। हमने कहीं भी रोकटोक नहीं लगाई। अपनी इच्छा से कहीं भी जा सकते हैं। घर में इनका मन ही नहीं लगता,’’ रामेश्वर बोला।

‘‘लेकिन तुम लोगों ने इनसे कुछ कहा-सुना क्या? कुछ बोलचाल हो गई क्या?’’ मैंने पूछा।

‘‘अरे, नहीं चाचाजी, इनसे कोई क्या कह सकता है। बात करते ही काटने को दौड़ते हैं। आज कह रहे थे कि मुझे अपना चेकअप कराना है। फुल चेकअप। वह भी डॉ- आकाश की पैथोलॉजी लैब में। हमने पूछा भी कि आखिर आपको परेशानी क्या है? कहने लगे कि परेशानी ही परेशानी है। मन घबरा रहा है। अकेले में दम घुटता है।

‘‘पिछले महीने ही मैंने इन्हें सरकारी अस्पताल में डॉ- दिनेश सिंह को दिखाया था। जांच से पता चला कि इन्हें ब्लडप्रेशर और शुगर है---’’

तभी नीलेश पानी का गिलास लेकर आ गया। मैंने पानी पी लिया। तब मैंने ही पूछा, ‘‘रामेश्वर, यह तो बताओ कि पिछले महीने तुमने इनका दोबारा चेकअप कराया था क्या?’’

‘‘नहीं, 2 महीने पहले डॉ. बंसल से कराया था न?’’ रामेश्वर बोला।

‘‘2 महीने पहले नहीं, जनवरी में तुम ने इन का चेकअप कराया था रामेश्वर, आज इस बात को 11 महीने हो गए। और चेकअप भी क्या था, शुगर और ब्लडप्रेशर। इसे तुम फुल चेकअप कहते हो?’’

‘‘नहीं चाचाजी, डाक्टर ने ही कहा था कि ज्यादा चेकअप कराने की जरूरत नहीं है। सब ठीकठाक है।’’

‘‘लेकिन रामेश्वर, इन का जी तो घबराता है, चक्कर तो आते हैं, दम तो घुटता है,’’ मैंने कहा।

‘‘अब आप से क्या कहूं चाचाजी,’’ रामेश्वर कह कर हंसने लगा। फिर नीलेश को इशारा कर बोला कि तुम अपना काम करो न जाकर, यहां क्या कर रहे हो।

बेचारा नीलेश चुपचाप अंदर चला गया। फिर रामेश्वर बोला, ‘‘चाचाजी, आप मेरे कमरे में चलिए। इन की मुख्य तकलीफ आप को वहां बताऊंगा,’’ फिर धूर्ततापूर्ण मुस्कान फेंक कर चुप हो गया।

मैं मनमोहन के जरा और पास आ गया। रामेश्वर से कहा, ‘‘तुम अपने कमरे में चलो। मैं वहीं आ रहा हूं।’’

रामेश्वर ने बांहें चढ़ाईं। कुछ आश्चर्य जाहिर किया, फिर ताली बजाता हुआ, गर्दन हिला कर सीटी बजाता हुआ कमरे से बाहर हो गया।

मैंने मनमोहन के कंधे पर हाथ रखा ही था कि वह फूटफूट कर रोने लगे। मैंने उन्हें रोने दिया। उन्होंने पास रखे एक मटमैले गमछे से नाक साफ की, आंखें पोंछीं लेकिन सिर ऊपर नहीं किया। मैं ने फिर आत्मीयता से उनके सिर पर हाथ फेरा। अबकी बार उन्होंने सिर उठा कर मुझे देखा। उन की आंखें लाल हो रही थीं। बहुत भयातुर, घबराए से लग रहे थे। फिर बुदबुदाए, ‘‘भैया राजनाथ---’’ इतना कहकर किसी बच्चे की तरह मुझ से लिपट कर बेतहाशा रोने लगे, ‘‘तुम मुझे अपने साथ ले चलो। मैं यहां नहीं रह सकता। ये लोग मुझे जीने नहीं देंगे।’’

मैंने कोई विवाद नहीं किया। कहा, ‘‘ठीक है, उठ कर हाथमुंह धो लो और अभी मेरे साथ चलो।’’

उन्होंने बड़ी कातर और याचना भरी नजरों से मेरी ओर देखा और तुरंत तैयार होकर खड़े हो गए।

तभी रामेश्वर अंदर आ गया, ‘‘क्यों, कहां की तैयारी हो रही है?’’

‘‘इस समय इनकी तबीयत खराब है। मैं इन्हें अपने साथ ले जा रहा हूं, सुबह आ जाएंगे,’’ मैंने कहा।

‘‘सुबह क्यों? साथ ले जा रहे हैं तो हमेशा के लिए ले जाइए न। आधी रात में मेरी प्रतिष्ठा पर मिट्टी डालने के लिए जा रहे हैं ताकि सारा समाज मुझ पर थूके कि बुड्ढे को रात में ही निकाल दिया,’’ वह अपने मन का मैल निकाल रहा था।

मैंने धैर्य से काम लिया। उससे इतना ही कहा, ‘‘देखो, रामेश्वर, इस समय इन की तबीयत ठीक नहीं है। मैं समझा-बुझा कर शांत कर दूंगा। इस समय इन्हें अकेला छोड़ना ठीक नहीं है।’’

‘‘आप इन्हें नहीं जानते। यह नाटक कर रहे हैं। घरभर का जीना हराम कर रखा है। कभी पेंशन का रोना रोते हैं तो कभी अकेलेपन का। दिन भर उस मास्टरनी के घर बैठे रहते हैं। अब इस उम्र में इनकी गंदी हरकतों से हम तो परेशान हो उठे हैं। न दिन देखते हैं न रात, वहां मास्टरनी के साथ ही चाय पीएंगे, समोसे खाएंगे। और वह मास्टरनी, अब छोड़िए चाचाजी, कहने में भी शर्म आती है। अपना सारा जेबखर्च उसी पर बिगाड़ देते हैं,’’ रामेश्वर अपनी दबी हुई आग उगल रहा था।

 ‘‘इन्हें जेबखर्च कौन देता है?’’ मैंने सहज ही पूछ लिया।

‘‘मैं देता हूं, और क्या वह कमजात मास्टरनी देती है? आप भी कैसी बातें कर रहे हैं चाचाजी, उस कम्बख्त ने न जाने कौन सी घुट्टी इन्हें पिला दी है कि उसी के रंग में रंग गए हैं।’’

‘‘जरा जबान संभालकर बात करो रामेश्वर, तुम क्या अनापशनाप बोल रहे हो? प्रेमलता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। उन का भरापूरा परिवार है। पति एडवोकेट हैं, बेटा खाद्य निगम में डायरेक्टर है, उन्हें इनसे क्या स्वार्थ है। बस, हमदर्दी के चलते पूछताछ कर लेती है। इस में इतना बिगड़ने की क्या बात है। अच्छा, यह तो बताओ कि तुम इन्हें जेबखर्च क्या देते हो?’’ मैंने शांत भाव से पूछा।

‘‘देखो चाचाजी, आप हमारे बडे़ हैं, दिनेश के फादर हैं, इसलिए हम आप की इज्जत करते हैं, लेकिन हमारे घर के मामले में इस तरह छीछालेदर करने की, हिसाब-किताब पूछने की आपको कोई जरूरत नहीं है। इन का खानापीना, कपडे़-लत्ते, चायनाश्ता, दवा का लंबा-चौड़ा खर्चा कहां से हो रहा है? अब आप इनसे ही पूछिए, आज 500 रुपए मांग रहे थे उस मास्टरनी को देने के लिए। हमने साफ मना कर दिया तो कमरा बंद करके फांसी लगाने का नाटक करने लगे। आप इन्हें नहीं जानते। इन्होंने हमारा जीना हराम कर रखा है। एक अकेले आदमी का र्चा घर भर से भी ज्यादा कर रहे हैं तो भी चैन नहीं है---और आपसे भी हाथ जोड़कर प्रार्थना है कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दें। कहीं ऐसा न हो कि गुस्से में आकर मैं आपसे कुछ बदसलूकी कर बैठूं, अब आप बाइज्जत तशरीफ ले जा सकते हैं।’’

इस के बाद तो उसने जबरदस्ती मुझे ठेलठाल कर घर से बाहर कर दिया। रामेश्वर ने बड़ा अपमान कर दिया मेरा।

मैंने कुछ निश्चय किया। उस समय रात के 2 बज रहे थे। गली से निकल कर सीधा प्रो- प्रेमलता के घर के सामने पहुंच गया। दरवाजे की कालबेल दबा दी। कुछ देर बाद दोबारा बटन दबाया। अंदर कुछ खटरपटर हुई फिर थोड़ी देर बाद हरीमोहन ने दरवाजा खोला। मुझे सामने देखकर उन्हें कुछ आश्चर्य हुआ लेकिन औपचारिकतावश ही बोले, ‘‘आइए, आइए शर्माजी, बाहर क्यों खडे़ हैं, अंदर आइए,’’ लुंगी- बनियान पहने वह कुछ अस्त-व्यस्त से लग रहे थे। एकाएक नींद खुल जाने से परेशान से थे।

मैंने वहीं खडे़-खडे़ उन्हें संक्षेप में सारी बातें बता दीं। तभी प्रो- प्रेमलता भी आ गईं। बहुत आग्रह करने पर मैं अंदर ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठ गया।

प्रो- प्रेमलता अंदर पानी लेने चली गईं।

लौट कर आईं तो पानी का गिलास मुझे थमा कर सामने सोफे पर बैठ गईं और कहने लगीं, ‘‘यह जो रामेश्वर है न, नंबर एक का बदमाश और बदतमीज आदमी है। मनमोहनजी का सारा पी-एफ-, जो लगभग 8 लाख था, अपने हाथ कर लिया। साढे़ 5 हजार पेंशन भी अपने खाते में जमा करा लेता है। इधर-उधर साइन करके 3 लाख का कर्जा भी मनमोहनजी के नाम पर ले रखा है। इन्हें हाथखर्चे के मात्र 50 रुपए देता है और दिन भर इनसे मजदूरी कराता है।’’

 ‘‘साग-सब्जी, आटा-पिसाना, बच्चों को स्कूल ले जाना-लाना, धोबी के कपडे़, बिजली का बिल सबकुछ मनमोहनजी ही करते हैं। फरवरी या मार्च में इसे पता चला कि मनमोहन का 2 लाख रुपए का बीमा भी है, शायद पहली बार इंस्टालमेंट पेमेंट के कागज हाथ लगे होंगे या पेंशन पेमेंट से रुपए कट गए होंगे, तभी से इनकी जान के पीछे पड़ गया है, बेचारे बहुत दुखी  हैं।’’

मैं ने हरीमोहनजी से कुछ विचार-विमर्श किया और फिर रात में ही हम पुलिस थाने की ओर चल दिए। उधर हरीमोहनजी ने फोन पर संपर्क कर के मीडिया को बुलवा लिया था। हमने सोच लिया था कि रामेश्वर का पानी उतार कर ही रहेंगे, अब यह बेइंसाफी सहन नहीं होगी।



मासिक-पत्रिका

अन्य ख़बरें

न्यूज़ लेटर प्राप्त करें