पिछले 72 सालों में कारोबारी उतार-चढ़ाव

2019-07-01 0


 

आजादी के बाद के 72 वर्षों में कारोबार करने का अंदाज और मिजाज दोनों ही बदल चुका है। अब देश के बाहर भी ताल ठोंकने लगी हैं भारतीय कंपनियां

 

देश की आजादी के 70 वर्ष के इतिहास के साथ अगर कारोबारी जगत के 70 साल के सफर पर नजर डालें तो दो ऐसी तस्वीरें सामने आती हैं जो एक-दूसरे से पूरी तरह जुदा हैं। कारोबारी इतिहासकार, अर्थशास्त्री और नौकरशाह शुरुआती 45 वर्षों को व्यवस्था के प्रबंधन का युग मानते हैं। वे वर्ष 1991 से पहले और बाद के समय को स्पष्ट तौर पर अलग करके देखते हैं। यही वह वर्ष था जब देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई थी और देश का कारोबारी जगत एक लंबे सफर के लिए तैयार और युवा नजर आया था। अगर पहले भारतीय उद्योगों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ उनकी प्रतिस्पर्धा मानक थी तो अब विदेशी निवेशकों की फंडिंग वाले देशी उद्यमी कई मायनों में आगे निकल चुके हैं।

राकेश मोहन द्वारा संपादित ‘इंडिया ट्रांसफॉर्म्ड-25 ईयर्स ऑफ इकोनॉमिक रिफॉर्म्स’ में अर्थशास्त्री ओंकार गोस्वामी लिखते हैं कि वर्ष 1991 के विश्व को याद करना ऐसा ही है जैसे चौथाई सदी पहले की धुंधली छवियों को स्मृति में लाना, जो एक क्षण में दिमाग में आती हैं और वह बदलाव दिलो-दिमाग पर छा जाता है जो उसके बाद हुआ। वह याद दिलाते हैं कि कैसे सुधार के पहले दिनों में टेलीफोन कनेक्शन हासिल करना मुश्किल होता था, एलपीजी सिलेंडर के लिए लंबी प्रतीक्षा करनी होती थी। 1991 के सुधारों ने देश को सशक्त कारोबारी जगत दिया जो अपनी वृद्धि और निवेश के निर्णय एकदम स्वतंत्र रूप से करते हैं। सन् 1980 के दशक में मारुति 800 का आगमन भविष्य के बदलाव का सूचक था।

बीते 70 सालों के दौरान उद्योग जगत में आए बदलाव को स्पष्ट करते हुए लेखक और प्रॉक्टर ऐंड गैंबल के पूर्व सीईओ गुरचरन दास ने बताया, ‘सन 1991 के पहले का समय कारोबारी जगत के लिए अंधकार युग के समान था क्योंकि पूरे माहौल पर सरकार का नियंत्रण था।’

बीती चौथाई सदी में देश में जबर्दस्त तब्दीली आई है लेकिन सुधारों को उस कदर अंजाम नहीं दिया गया है जैसी दरकार थी। दास दूरसंचार, सूचना प्राद्योगिकी, औषधि और वाहन क्षेत्र को इस दौर की सफल कहानियों में शामिल करते हैं। बहरहाल, ‘तब’ से ‘अब’ में जो बदलाव आया है उसमें एक अहम बात है नागरिक समाज की आवाज का उभरना। वह चेतावनी के लहजे कहते हैं कि कारोबारी जगत को इस मुद्दे को जेहन में रखना चाहिए।

इकनॉमिक रिसर्च ग्रुप एडवायजरी गोस्वामी ने कहा, ‘20वीं सदी के मध्य और मौजदा दौर के कारोबारी परिदृश्य के बीच किसी तरह की तुलना करना संभव नहीं है। भला उस दौर में ल्यूपिन या सन फार्मा जैसा कारोबार कहां मिलता?’ वह कहते हैं कि बड़े उद्यमों के कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जो अब भी सरकार पर निर्भर हैं लेकिन उस दायरे के ऐन नीचे कारोबारी माहौल में बहुत तब्दीली आई है। कारोबार परिपक्व हुआ है और इसमें विविधता आई है। अब सुधार कार्यक्रमों पर पुनर्विचार की बात भी चल रही है। कारोबारी इतिहासकार गीता पीरामल कहती हैं कि देश से कारोबारी क्षेत्र की प्रतिभाएं बहुत बड़ी तादाद में बाहर गई हैं। वह कहती हैं, ‘मेरा अनुमान कहता है कि इनमें से अधिकांश पेशेवर पढ़ाई वाले युवा हैं और इनकी तादाद बहुत ज्यादा है। इसमें कारोबारी परिवारों की नई पीढ़ी भी शामिल है। मेरी चिन्ता यह है कि वे बहुत युवा हैं। जाहिर है भारत के कारोबारी माहौल पर इसका गहरा असर होगा।’

पीरामल कहती हैं कि इन बातों को ध्यान में रखते हुए देश में सुधार कार्यक्रम पर पुनर्विचार होना चाहिए। विश्लेषक मानते हैं कि हर चरण अपने साथ नई चुनौतियां लेकर आता है। राहुल बजाज के नेतृत्व वाले बॉम्बे क्लब ने उदारीकरण का विरोध किया था, अब कारोबारी जगत में उत्साह की भावना जगाने की बात चलती रहती है। लब्बोलुआब यह है कि बदलाव ही एकमात्र स्थायी चीज है।

औद्योगिक संगठन सीआईई की शोभना कामिनेनी कहती हैं कि भारतीय उद्योग जगत मजबूत और समायोजन वाला साबित हुआ है। वह कहती हैं, ‘बीते 70 साल में न केवल घरेलू नीतिगत माहौल में ही बदलाव आया है बल्कि वैश्विक माहौल और प्रौद्योगिकी जगत में भी तब्दीली आई है। कंपनियां निरंतर नए मॉडल अपना रही हैं और अवसरों का लाभ लेने के लिए नई नीतियां चुन रही हैं। वे जोखिम को कम से कम करना चाहती हैं।’ 

उन्होंने कहा कि हाल के दिनों में कारोबारों को सुधार के एजेंड मेें आई तेजी ने भी प्रोत्साहित किया है। उन्हें उम्मीद है कि इससे भविष्य की मजबूत बुनियाद रखी जाएगी और भारत दुनिया की सबसे जीवंत अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनेगा। ऐसा भी नहीं है कि हर कोई इतना ही आशावादी हो। वरिष्ठ भाजपा नेता और पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा कहते हैं, ‘भारतीय कारोबारी शायद ही कभी शिकायत करते हों। उनकी अपनी मांगें हैं लेकिन

वे इन्हें कभी शिकायती लहजे में पेश नहीं करते। यह अब भी सही है और पहले भी सही

थी।’ 



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