इक्कीसवीं सदी में भारत की जाति व्यवस्था?

2019-07-01 0

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव में विजय के पश्चात जो संबोधन दिया उसमें एक पंक्ति  विशिष्ट थी। 21वीं सदी के भारत को लेकर अपना नजरिया पेश करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि भविष्य में दो ही जातियां रहने वाली हैंः एक तो वे जो गरीब हैं और दूसरी वो जो गरीबों के उद्गार के लिए काम करती हैं। उनके इस वक्तव्य  को कई तरह से देखा जा सकता है। पहली बात, यह ववक्तव्य शायद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनिवार्य आदर्श का प्रतिनिधित्व करता है। ध्यान रहे यही वह संगठन है जिसने मोदी को वैचारिक रूप से तैयार किया है। इसकी दूसरी व्याख्या एक तरह से मार्क्सवादी है जो जातीय गौरव और जातीय अंतर को खत्म करने की बात कहती है। अगर वे बरकरार भी रहें तो भी उनको वर्ग से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। अपवाद केवल यह है कि उद्घार की जगह वर्ग संघर्ष की धारणा ले लेगी। देश में गरीबी को लेकर बहस के जो और रूप हैं, वे कुछ मायनों में इसके विरोधाभासी हैं। मोदी यहां सशक्तिकरण  के बजाय परोपकार की बात कर रहे हैं। वह ऐसा नहीं कहते कि इन दो जातियों में एक अमीर है और दूसरी वह जो जल्दी ही अमीर होगी।

मोदी और उनके नजरिये को देश की तमाम जातियों और वर्गों में बड़ी जीत मिली है। केवल धार्मिक अल्पसंख्यक ही अपवाद हैं। ऐसे में मोदी जिस सामाजिक बदलाव का नेतृत्व कर रहे हैं, उसके और जातीय पदसोपान के आपसी रिश्ते पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है। मोदी ने अपने ओबीसी होने का मुद्दा भी बनाया और उन्हें इसका फायदा भी मिला। पहले उन्हें इसका लाभ उत्तर प्रदेश की जातीय राजनीति में मिला जहां समाजवादी पार्टी को गैर यादव ओबीसी का साथ नहीं मिला और दूसरा उन्होंने खुद को ब्राह्मणवादी नेतृत्व तथा संघ की ऐसी परंपराओं से दूर रखा। अतीत में उन्होंने कुछ चौंकाने वाली बातें कहीं हैं। खासतौर पर हाथ से मैला ढोने और दलितों को खासकर वाल्मीकि समुदाय को लेकर। उन्होंने कहा था कि हाथ से मैला ढोना उन पर थोपी गई आजीविका नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक गतिविधि है जो उन्होंने पीढियों से चुन रखी है। उनका यह विचार संघ की सोच के करीब है। हालांकि अब वह इस कुप्रथा के खात्मे की बात कहने लगे हैं।

इन सारी बातों के बीच मोदी ने भारत जैसे जातीय विभाजन में घिरे हुए देश को लेकर जो दावा किया है वह किसी आकांक्षा से अधिक एक तरह का अपमार्जन नजर आता है। दलित लेखक और बौद्धिक चंद्रभान प्रसाद ने ट्विटर पर मोदी को लेकर उपजे इस आंदोलननुमा जनमत को सवर्ण उभार का नाम दिया है। उनका कहना है कि अगर संविधान को अंगीकृत करने की तारीख यानी 26 जनवरी क्रांति थी तो यह एक प्रतिक्रांति है। प्रसाद का मानना है देश के तमाम आर्थिक तबकों से आने वाले दलित पीड़ित की तरह बात कर सकते हैं तो देश के उच्च वर्ण के लोग भी आज उसी तरह बात कर सकते हैं। सवर्णों को लगता है कि अतीत के भारत को पुनर्जीवित किया जा सकता है। मेरी दृष्टि में प्रसाद का सोचना सही है। वह कहते हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में नई पीढ़ी के सवर्णों को उनके घर के बुजुर्ग अतीत के गौरव की याद दिलाते हैं। अंबेडकर को संविधान के लिए, नेहरू को जमींदारी प्रथा के अंत के लिए खलनायक के रूप में पेश किया जाता है। ऐसे में उच्च वर्ग के युवाओं में एक नए तरह की चेतना का उभार हो रहा है जो अपना पुराना गौरव वापस चाहते हैं।

प्रसाद कहते हैं कि दलित, जनजातीय और मुस्लिम पहचान वाले दलों का जो सफाया हुआ है वह इस प्रति क्रांतिकारी एकजुटता की बदौलत हुआ है। इसके लिए धर्म और राष्ट्रवाद को हथियार बनाया गया। इससे न केवल उच्च वर्ग के हिंदू मतों को भाजपा के पक्ष में लामबंद किया गया बल्कि अन्य गठबंधनों का हिस्सा रहे अत्यधिक पिछड़ा वर्ग, गरीब ओबीसी आदि को भी अपनी ओर आकर्षित कर लिया जाए। प्रसाद उल्लेख तो नहीं करते लेकिन युवा गैर जाटव दलित भी भाजपा की ओर खिंच गए। यह एकीकृत हिंदू वोट बैंक अतीत के गौरव की वापसी की कामना करने वाले उच्च वर्ग और इन नए छिटके हुए समुदायों से बना था। ये समुदाय हिंदुत्व और संस्कृतिकरण के माध्यम से सामाजिक परिदृश्य में अपनी नई जगह बनाना चाहते थे। इस नए गठजोड़ को पराजित कर पाना संभव नहीं था। यह मोदी और शाह की असली राजनीतिक उपलब्धि है। उन्होंने भारतीय राजनीति में अब तक का सबसे बड़ा और भरोसेमंद वोट बैंक तैयार किया है। ऐसा करने के लिए उन्होंने एक पुराना तरीका अपनाया हैः सामाजिक विभाजन को नकारना और ऐसा दिखाना मानो उसका कोई अस्तित्व ही नहीं हो। बहरहाल सच तो यही है कि जाति से मुक्त  उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के अधीन प्रमुख  रूप से ठाकुरों द्वारा ही चलाया जा रहा है। पुराने बुर्जुआ वर्ग द्वारा चलाई जा रही प्रति क्रांति एक बड़ी ताकत है।

अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप के निर्वाचन में ओबामा के कार्यकाल के बाद श्वेत समुदाय में उभरी नाराजगी की अहम भूमिका थी। मोदी ने वही काम बहुत व्यापक पैमाने पर किया है। इतना ही नहीं उन्होंने इसे बेहद सक्षम तरीके से अंजाम दिया है। जाहिर सी बात है मुस्लिम इसमें शामिल नहीं हैं। सबका साथ, सबका विकास का जो नारा दिया गया था उसका तात्पर्य यह था कि इससे पहले के सत्ता प्रतिष्ठान कुछ समूहों को प्राथमिकता देते रहे और इस प्रकार उच्च वर्ण के प्रतिभाशाली हिंदू वंचित रह गए। ऐसी ही लेकिन कम नजर आने वाली प्रक्रिया दलितों और आदिवासियों के बीच भी घटित हो सकती है। पुराने जाति आधारित दल मसलन बहुजन समाज पार्टी और लोहियावादी समाजवादी इसका मुकाबला करने को तैयार नहीं दिखते। काफी हद तक ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने विचारधारा और चेतना बढ़ाने वाली राजनीति की जगह संरक्षणवादी राजनीति को बढ़ावा दिया। मैं इन दलों या इनके उत्तराधिकारियों को कोई सलाह देने की स्थिति में नहीं हूं। अतः यह सच है और हमेशा सच रहा है कि एक विचारधारात्मक लड़ाई चल रही है जिसमें वे अपना काफी कुछ गंवा रहे हैं।



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