राष्ट्रीयकरण से पहले देश की 80 फ़ीसदी पूंजी 14 बड़े बैंकों के पास थी

2019-08-01 0


मोदी सरकार ने बैंकों में सुधार और बैंकों को आम जनता तक पहुंचाने का काम किया है

1969 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के 14 प्रमुख बैंकों का पहली बार राष्ट्रीयकरण किया था। साल 1969 के बाद 1980 में पुनः 6 बैंक राष्ट्रीयकृत हुए थे। 19 जुलाई 2019 को बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप में केंद्रीय बैंक को सरकारों के अधीन करने के विचार ने जन्म लिया। उधर, बैंक ऑफ इंग्लैंड का राष्ट्रीयकरण हुआ, इधर, भारतीय रिजर्व बैंक के राष्ट्रीयकरण की बात उठी जो 1949 में पूरी हो गयी। फिर 1955 में इम्पीरियल बैंक, जो बाद में ‘स्टेट बैंक ऑफ इंडिया’ कहलाया, सरकारी बैंक बन गया। आर्थिक तौर पर सरकार को लग रहा था कि कमर्शियल बैंक सामाजिक उत्थान की प्रक्रिया में सहायक नहीं हो रहे थे। बताते हैं कि इस समय देश के 14 बड़े बैंकों के पास देश की लगभग 80 फीसदी पूंजी थी। इनमें जमा पैसा उन्हीं सेक्टरों में निवेश किया जा रहा था, जहां लाभ के ज्यादा अवसर थे। वहीं सरकार की मंशा कृषि, लघु उद्योग और निर्यात में निवेश करने की थी।

1967 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो पार्टी पर उनकी पकड़ मजबूत नहीं थी

दूसरी तरफ एक रिपोर्ट के मुताबिक 1947 से लेकर 1955 तक 360 छोटे-मोटे बैंक डूब गए थे जिनमें लोगों का जमा करोड़ों रुपया डूब गया था। उधर, कुछ बैंक काला बाजारी और जमाखोरी के धंधों में पैसा लगा रहे थे। इसलिए सरकार ने इनकी कमान अपने हाथ में लेने का फैसला किया ताकि वह इन्हें सामाजिक विकास के काम में भी लगा सके। 1967 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो पार्टी पर उनकी पकड़ मजबूत नहीं थी। लोग उन्हें कांग्रेस सिंडिकेट की‘गूंगी गुड़िया’कहते थे। उनका झुकाव तत्कालीन सोवियत रूस की तरफ था। सोवियत रूस और पूर्वी यूरोप के देशों में बैंक सरकार के अधीन रहते थे। 1967 से लेकर 1973 तक पी-एन- हक्सर कांग्रेस सरकार में सबसे ताकतवर व्यत्तिफ़ थे, और इंदिरा गांधी उनकी समझ की कायल थीं। यही से इंदिरा गांधी का भी झुकाव लेफ्रट की तरफ हो गया था।

1967 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी में ‘दस सूत्रीय कार्यक्रम’ पेश किया बैंकों पर सरकार का नियंत्रण, पूर्व राजे-महाराजों को मिलने वाले वित्तीय लाभ और न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण इसके मुख्य बिंदु थे। इंदिरा गांधी की पेशकश पर कांग्रेस पार्टी ने कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखायी। इंदिरा गांधी को यह बात नागवार गुजरी। इससे सिंडिकेट और इंदिरा गांधी आर-पार की लडाई के मूड में आ गए। 24 अप्रैल से 28 अप्रैल 1969 को कांग्रेस का अधिवेशन फरीदाबाद में हुआ जिसमे कांग्रेस के अध्यक्ष एस- निज्नल्गाप्पा ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का विरोध किया था, क्योंकि संसद में कांग्रेस के पास बहुमत नहीं था और लेफ्रट ने इस बात का फायदा उठाया और अपना समर्थन देने के बदले बैंकों के राष्ट्रीयकरण के लिए इंदिरा गांधी से समझौता कर लिया जिसके फलस्वरूप लेफ्रट समर्थित बैंक यूनियंस का वर्चस्व रहा।

7 जुलाई 1969 एआईसीसी बंगलौर अधिवेशन में इंदिरा गांधी ने तुरंत प्रभाव से बैंकों के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव रख दिया। लोगों में संदेश गया कि इंदिरा गांधी गरीबों के हक की लडाई लड़ने वाला योद्धा हैं। पर अभी एक अड़चन और थी। तेज तर्रार राष्ट्रवादी और तत्कालीन वित्त मंत्री मोरारजी देसाई इसमें आड़े आ रहे थे। इंदिरा गांधी इनसे खौफ खाती थीं। हालांकि, इंदिरा गांधी के दस सूत्रीय कार्यक्रम को पार्टी में पेश करने वाले मोरारजी देसाई ही थे जो सामाजिक नजरिये से बैंकों पर सरकारी नियंत्रण के पक्षधर थे। पर वे उनके राष्ट्रीयकरण के पक्ष में नहीं थे।16 जुलाई 1969 को इंदिरा गांधी ने मोरारजी देसाई को वित्तमंत्री के पद से हटा दिया। अब उनका रास्ता साफ था। 19 जुलाई, 1969 को एक आर्डिनेंस जारी करके सरकार ने देश के 14 बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। जिस आर्डिनेंस के जिए किया गया वह ‘बैंकिंग कम्पनीज आर्डिनेंस’ कहलाया। बाद में इसी नाम से विधेयक भी पारित हुआ और कानून बन गया। यह इंदिरा गांधी की पहली जीत थी।

राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों की शाखाओं में बढ़ोत्तरी हुई

राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों की शाखाओं में बढ़ोतरी हुई। शहर से उठकर बैंक गांव-देहात की तरफ चल दिए। आंकड़ों के मुताबिक जुलाई 1969 को देश में बैंकों की सिर्फ 8322 शाखाएं थीं। 1994 के आते-आते यह आंकड़ा साठ हजार को पार कर गया। इसका यह फायदा हुआ कि बैंकों के पास काफी मात्र में पैसा इकट्टðा हुआ और आगे बतौर कर्ज बांटा गया। प्राथमिक सेक्टर, जिसमें छोटे उद्योग, कृषि और छोटे ट्रांसपोर्ट ऑपरेटर्स शामिल थे, को फायदा हुआ। सरकार ने राष्ट्रीय कर्त बैंकों को दिशा निर्देश देकर उनके लोन पोर्टफोलियो में 40 फीसदी कृषि लोन की हिस्सेदारी की बात की- दूसरी तरफ, अपना टार्गेट और व्यत्तिफ़गत लाभ के चलते, आंख बंद करके पैसा बांटा गया, जिससे बैंकों का एनपीए बढ़ा। आज 2019 में सरकारी बैंकों का यह डूब रहा पैसा 10 फीसदी से ऊपर है- फायदा लेने वालों में रसूदार ही थे। छोटे किसान या व्यापारी हाशिये पर खड़े रह गए। 1980 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का दूसरा दौर चला जिसमें और छह निजी बैंकों को सरकारी कब्जे में लिया गया। यदि कुल मिलाकर देखा जाये तो ये बैंकों का राष्ट्रीयकरण न होकर सरकारीकरण ज्यादा हुआ। कांग्रेस की सरकारों ने बैंकों के बोर्ड में अपने राजनैतिक लोगों को बिठाकर बैंकों का दुरुपयोग किया। जो लोग बोर्ड में बैंकों की निगरानी के लिए बेठे थे उन्होंने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बैंकों का भरपूर इस्तेमाल किया। बैंक यूनियंस के जो नेता बोर्ड में शामिल हुए उन्होंने भी बैंक कर्मचारियों का ध्यान न करते हुए बोर्ड मेंम्बर्स की साजिश में शामिल हो गये, जिसके कारण आज बैंकों की यह दुर्दशा हो गई हे कि ऑपरेटिव प्रॉफिट कमाने के बाद भी बैंक घाटे में चल रहे हैं।

मोदी सरकार ने बैंकों में सुधार और बैंकों को आम जनता तक पहुंचाने का बेहतर काम किया है

यदि वास्तव में बैंकों में सुधार और बैंकों को आम जनता तक पहुंचाने का काम किसी सरकार ने किया है तो वह मोदी सरकार द्वारा किया गया है। 45 वर्षों में जो बैंक आम जनता तक नहीं पहुंच पाए थे सरकार ने लगभग 35 करोड़ जन धन खाते खुलवाकर आम जनता को बैंकों से जोड़ा है। बैंकों से लोन लेकर वापिस नहीं करने वाले लोगों पर भी नए और सख्त कानूनों के द्वारा रिकवरी प्रक्रिया को तेज किया जा रहा है, लेकिन अभी और बहुत से सुधारों की जरूरत है। इन वर्षों में राष्ट्रीयकृत बैंकों ने कई दौर देखे हैं।

- लोन मेलों का दौर । - मैन्युअल लैजेर्स से कम्प्यूटराइजेशन का दौर। - बैंकों को पूरी स्वायत्त देने का दौर। - वैश्वीकरण के बाद बैंकों के शेयरों को पब्लिक में बेचने का दौर । - बैंकों को बैंकिंग के अलावा दूसरी सेवाओं को देने का दौर । - जनधन खातों से जनता तक पहुंचने का दौर । - नोटबंदी का समय।

इंदिरा जी के गरीबी हटाओ से लेकर मोदी जी के मुद्रा लोन तक सभी योजनाओं का क्रियान्वयन इन बैंकों ने उत्साह से किया है। सबसे अभूतपूर्व कार्य नोटबन्दी के 54 दिनों मे इन बैंकों ने करके दिखाया। देश के सरकारी तन्त्र की कोई भी इकाई (सेना को छोड़कर) 36 घंटे के नोटिस पर ऐसा काम नहीं कर सकती जैसा इन सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने कर दिखाया। इन सभी के बीच यदि कोई वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है तो वह है बैंक कर्मचारी, बैंकों में काम तो बड़ा है और कर्मचारी ईमानदारी से सरकार की सभी योजनाओं को भी लागू कर रहे हैं लेकिन काम के फलस्वरूप जहां एक ओर बैंक कर्मचारियों की संख्या बहुत कम है वहीं उनको काम के बदले सही वेतन और सुविधाएं नहीं मिलती।

आज फिर से सरकार एक नया प्रयोग करने की सोच रही है, जिसके चलते स्टेट बैंक में 7 एसोसिएट बैंकों का विलय और बैंक ऑफ बड़ौदा में विजया बैंक, देना बैंक का विलय हो चुका है और बाकी बचे बैंकों को भी विलय करने की तैयारी है। कहीं सरकार 50 वर्षों के बाद इन बैंकों के साथ बार-बार नए-नए प्रयोग करके फिर से निजीकरण की ओर तो नहीं बढ़ रही है



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