दक्षिण हरियाणाः अब बेटियों के जन्म पर बजती है थाली, होता है कुआं पूजन

2019-08-01 0


 
बदला हरियाणा का रूप रंग बेटी कनक के दादा कहते हैं कि वो उसे पहलवान बनाना चाहते हैं तो मां की इच्छा बेटी को सीआईडी ऑफि़सर बनाने की है।

दक्षिण हरियाणा अक्सर अपने पिछड़ेपन और पानी की किल्लत की वजहों से खबरों में रहा है। बेहद कम बार ऐसा रहा है जब राष्ट्रीय स्तर पर दक्षिण हरियाणा किसी खास खबर के लिए छाया हो। लेकिन आजकल यहां एक नई बयार बह रही है। यहां के स्थानीय अखबार अब हर दूसरे दिन अलग तरह की खबरों से पटे रहते हैं। ये खबरें हरियाणा के कुख्यात लिंग अनुपात के आंकड़ों के बीच राहत देने वाली हैं। जैसे- बेटी के पैदा होने पर फलाने गांव में फलाना परिवार ने किया कुआं पूजन। पंचायत ने किया सम्मानित, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बताया इसे बढ़िया कदम। जच्चा-बच्चा स्वस्थ।

पहल्यां (पहले) तो छोरा होया करता तो थाली बजायी जाया करती। फेर छह दिन बाद छठी मनाई जाती और फेर जच्चा के गीत गाए जाते। कोई 11 दिन तो कोई 21 दिन और कोई 31 दिन पर कुआं धोकता (पूजा करता)।’

दक्षिण हरियाणा के एक गांव में टीन के बरामदे में बैठी 70 वर्षीय सरती देवी पुराने समय को याद कर रही हैं जब लड़का पैदा होने पर खुशी और देवी-देवाताओं को धन्यवाद कहने के तौर पर कुआं पूजन मनाया जाता था। थोड़ी ही देर में आस-पास की लुगाइयां इकट्ठी हो जाती हैं और जच्चा के गीत गाकर सुनाने लगती हैं। बीच-बीच में हुक्के की गुड़गुड़ी भर लेतीं।

हरियाणा की अहीरवाल बेल्ट (रेवाड़ी - नारनौल - महेंद्रगढ़) के गांवों में जाकर लड़कियों के जन्म पर चली इस प्रथा (कुआं पूजन) के बारे में जानने की कोशिश की गई। पिछले दस-बारह साल पहले चले इस ट्रेंड में महेंद्रगढ़ के लगभग सभी गांव शामिल हो चुके हैं। महिला मुद्दों और इस प्रथा का जोर-शोर से प्रचार करने वाली महेंद्रगढ़ की मंजू अपना अनुभव साझा करती हैं, ‘अगर कोई दक्षिण हरियाणा अक्सर अपने पिछड़ेपन और पानी की किल्लत की वजहों से खबरों में रहा है। बेहद कम बार ऐसा रहा है जब राष्ट्रीय स्तर पर दक्षिण हरियाणा किसी खासखबर के लिए छाया हो। लेकिन आजकल यहां एक नई बयार बह रही है। यहां के स्थानीय अखबार अब हर दूसरे दिन अलग तरह की खबरों से पटे रहते हैं। ये खबरें हरियाणा के कुख्यात लिंग अनुपात के आंकड़ों के बीच राहत देने वाली हैं। जैसे- बेटी के पैदा होने पर फलाने गांव में फलाना परिवार ने किया कुआं पूजन। पंचायत ने किया सम्मानित, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बताया इसे बढ़िया कदम। जच्चा-बच्चा स्वस्थ।

पहल्यां (पहले) तो छोरा होया करता तो थाली बजायी जाया करती। फेर छह दिन बाद छठी मनाई जाती और फेर जच्चा के गीत गाए जाते। कोई 11 दिन तो कोई 21 दिन और कोई 31 दिन पर कुआं धोकता (पूजा करता)।’

दक्षिण हरियाणा के एक गांव में टीन के बरामदे में बैठी 70 वर्षीय सरती देवी पुराने समय को याद कर रही हैं जब लड़का पैदा होने पर खुशी और देवी-देवाताओं को धन्यवाद कहने के तौर पर कुआं पूजन मनाया जाता था। थोड़ी ही देर में आस-पास की लुगाइयां इकट्ठी हो जाती हैं और जच्चा के गीत गाकर सुनाने लगती हैं। बीच-बीच में हुक्के की गुड़गुड़ी भर लेतीं।

हरियाणा की अहीरवाल बेल्ट (रेवाड़ी - नारनौल - महेंद्रगढ़) के गांवों में जाकर लड़कियों के जन्म पर चली इस प्रथा (कुआं पूजन) के बारे में जानने की कोशिश की गई। पिछले दस-बारह साल पहले चले इस ट्रेंड में महेंद्रगढ़ के लगभग सभी गांव शामिल हो चुके हैं। महिला मुद्दों और इस प्रथा का जोर-शोर से प्रचार करने वाली महेंद्रगढ़ की मंजू अपना अनुभव साझा करती हैं, ‘अगर कोई गांव बचा भी होगा तो वो भी आने वाले समय में बच्चियों के जन्मदिन का उत्सव मनाएगा। लेकिन हम तो महेंद्रगढ़ के लगभग सभी गांव कवर कर चुके हैं। मेरे पास हर रोज दो-चार मैसेज जरूर आते हैं कि हम अपनी बच्ची का कुआं पूजन कर रहे हैं, आप जरूर पधारें।’

वो कहती हैं, ‘साल 2006 में मैंने नांगल सिरोही गांव से इस ट्रेंड की शुरुआत की थी। मैंने बच्ची पैदा होने पर जच्चा के साथ होने वाले भेदभाव को देखा हुआ है। मैंने जब कहा कि हम छोरियों का कुआं पूजन क्यों नहीं कर सकते? तो पास खड़े कुछ लड़के हंस दिए थे। आज जिस तरह से इस क्षेत्र से लड़कियां आगे निकल रही हैं और लोगों नजरिया बदला है वो अद्भुत है।’

कुआं पूजन एक प्रतीतकात्मक लड़ाई है। हम नहीं कहते कि इससे रातों-रात बच्चियों की स्थिति बदल जाएगी लेकिन इससे लोगों का रवैया जरूर बदलेगा। मोदी जी ने 2015 में बेटी बचाओ की शुरुआत की थी लेकिन ये जिला उससे पहले ही इसकी शुरुआत कर चुका था। हां मोदी जी के इस अभियान के बाद ये व्यापक स्तर पर फैला है।’

दादा कहवै, पोती बनेगी पहलवान

ग्राम पंचायत खेड़ी के लोग बताते हैं, ‘शुरुआत में पंचायतों ने इनाम देना शुरू किया ताकि बाकी लोग प्रोत्साहित होकर ही बच्चियों का जन्मोत्सव मनाएं। देखा-देखी  में ही सही लेकिन शुरुआत तो हो।’

रेवाड़ी के मनेठी गांव के रामनिवास यादव के घर दो साल पहले पोती हुई। पूरे परिवार ने धूमधाम से बच्ची के लिए छठी और कुआं पूजन की रस्में की। अपनी पोती को गोदी में खिलाते हुए वो बताते हैं, ‘ये हमें बेहद प्यारी है। हमने कोई ईनाम तो नहीं लिया लेकिन हमारे बाद गांव में दो-तीन परिवारों ने अपनी बेटियों के जन्म पर कुआं पूजन किया।’

दो वर्षीय कनक के दादा कहते हैं कि वो उसे पहलवान बनाना चाहते हैं तो कनक की मां कहती हैं कि वो उसे सीआईडी ऑफिसर बनाना चाहती हैं।

महेंद्रगढ़ जिले के चेलावास गांव में दो तीन पहले ही अपनी पोती का कुआं पूजन करके हटे सुभाष और उनकी पत्नी कमलेश बेहद खुश हैं। वो बताते हैं, ‘हमारे दो बेटे ही थे। कोई बेटी नहीं। इसलिए हम चाहते थे कि पहलपोत (सबसे पहला बच्चा) पोती ही हो। हमने गांव की महिलाओं को बुलाकर भोज कराया है। बच्ची के लिए छठी भी मनाई है।’

जब लड़का होने पर मिलते अजवायन के लड्डू  और लड़की होने पर भेदभाव

चेलावास गांव की बुजुर्ग महिलाएं बच्चियों के लिए हो रही इस कुआं पूजन की प्रथा पर अलग-अलग विचार रखती हैं। रेवती देवी कहती हैं, ‘पहले लड़कियां खूब पैदा होती थीं। इसलिए उनके नाम भी धापली (धापना मतलब पेट भर जाना) और भतेरी (बस बहुत) जैसे रखे जाते थे। लोग मानते थे कि भगवान ये देखकर और बेटियां नहीं देगा।’

वो आगे जोड़ती हैं, ‘छोरी होने पर न तो थाली बजाई जाती थी और न ही छठी की जाती थी और ना ही कुआं पूजन किया जाता था। छोरा होने पर घी में तर किए हुए अजवायन के लड्डू जच्चा को खिलाए जाते थे।’

इतने में ही ग्यारह बच्चे पैदा कर चुकी कौशल्या अपने जच्चा के दिन याद करते हुए बताने लगती हैं, ‘छोरा होता था तो सासू मां अजवायन के लड्डू खिलाती, घी भी खाने को मिलता था लेकिन छोरी के टाइम पर इतनी खातिर पानी नहीं होती थी। छोरी होने के 11 दिन बाद गांव की टंकी से पानी का नया घड़ा भरवाकर काम पर लगवा दिया जाता था।’

कुछ महिलाएं कहती हैं, ‘पुराने समय में सारा घर-बार सास के हाथ में होता था। लड़की होने पर न खाने को दिया जाता था और न ही देखभाल ठीक ढंग से। लेकिन अब नई बहुओं को छूट दी गई है। खानपान का भेद तो रहा नहीं। हमारा टेम (समय) और था। अब कोई बेटा-बेटी में फर्क ना करता।’

कुआं पूजन से पहले भैंसों को बांधने वाले खूंटे की पूजा की जाती थी। उससे पहले रुड़ी (कूड़ा-कर्कट वाले ढेर) को भी पूज लिया जाता था। इस दिन पूरे गांव के लिए भोज दिया जाता है। बाजे के साथ जच्चा को कुएं पर ले जाया जाता है। घरों में गीत गाए जाते हैं। कुआं पूजन की पहली रात को बाजरा भिगोकर रखा जाता है जो अगले दिन घर-घर में बंटवाया जाता है। ये इलाका कृषि प्रधान है तो सारी प्रथाएं कृषि से ही जुड़ी हुई हैं। लेकिन जैसे-जैसे कुएं खत्म होते जा रहे हैं लोग हैडपंप को पूजने लगे हैं। कुएं की बजाय और विकल्प खोजे जाने लगे हैं। गौरतलब है कि गिरते भूजल स्तर के मामले में राजस्थान से सटे महेंद्रगढ़ जिले का हाल बेहाल है। क्रिटिकल जिलों की लिस्ट में इस जिले का नाम भी शामिल है।

बेटियां नहीं तो फिर बहू कहां से आएंगी?

2011 में महेंद्रगढ़ जिले का लिंग अनुपात 1000 लड़कों में 775 लड़कियों का था। जो देश में सबसे खराब लिंगानुपात था। हरियाणा के सभी जिलों का लिंगानुपात राष्ट्रीय लिंगानुपात के एवरेज से भी कम था। जहां राष्ट्रीय लिंगानुपात 943 था वहीं

हरियाणा में लिंगानुपात 867 था। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक 2011 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दक्षिण हरियाणा के रेवाड़ी, महेंद्रगढ़ और झज्जर जिले देशभर में शर्म का विषय बने। तीनों जिलों का लिंग अनुपात देश में सबसे खराब था। रेवाड़ी में 780 और झज्जर में 781 था ।

लेकिन 2018 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जन्म के समय रेवाड़ी में ये अनुपात 904 तो झज्जर में 911 और महेंद्रगढ़ में 936 हो गया है।

महेंद्रगढ़ की सामाजिक संस्थाएं मंजू कौशिक

द्वारा सामनाथ आर्ट और लक्की सीगड़ा द्वारा संचालित बीएमडी क्लब बच्चियों के कुआं पूजन पर जाकर सम्मानित करती हैं। स्थानीय पत्रकार प्रदीप बताते हैं, ‘हमारे पास हफ्रते में दो ऐसी खबरें आती हैं। छापते हुए खुशी होती है। पूर्व डीएम गरिमा मित्तल ने लड़कियों को लेकर एक डॉक्यूमेंट्री भी बनवाई थी। कभी हमारे लिए शर्म की बात हुआ करती थी कि देश के बिगड़े लिंगानुपात वाले जिलों में हम टॉप पर थे अब माहौल बदल रहा है।’ 



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