आर्टिकल 370 से मुक्त लद्दाख के लिए विकास की नयी उम्मीद जगी

2019-09-01 0

लद्दाख  देश के ऐसे क्षेत्राों में शामिल है जहां आबादी का घनत्व बहुत ही कम है लेकिन इस दुर्गम क्षेत्र में साल भर आवाजाही लायक सड़कों का निर्माण अब तक नहीं हो सका है।

म्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक-2019 के लागू होने के बाद इस राज्य की भूमि का ही नहीं, राजनीति का भी भूगोल बदलेगा। इसके साथ ही विधानसभा सीटों के परिसीमन के जरिये राजनीतिक भूगोल बदलने की कोशिश भी होगी। नए सिरे से परिसीमन व आबादी के अनुपात में जम्मू-कश्मीर की नई विधानसभा का जो आकार सामने आएगा, उसमें सीटें घट अथवा बढ़ सकती हैं। बंटवारे के बाद जम्मू-कश्मीर और लद्दाख केंद्र शासित राज्य होंगे। दोनों जगह दिल्ली की तरह मजबूत उप राज्यपाल सत्ता-शक्ति  का प्रमुख केंद्र होंगे। लद्दाख में विधानसभा नहीं होगी। परिसीमन के लिए आयोग का गठन किया जाएगा।

यह आयोग राजनीतिक भूगोल का अध्ययन कर रिपोर्ट देगा। आयोग राज्य के विभिन्न क्षेत्रें में मौजूदा आबादी और उसका विधान व लोकसभा एवं विधानसभा क्षेत्रें में प्रतिनिधित्व का आकलन करेगा। साथ ही राज्य में अनुसूचित व अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों को सुरक्षित करने का भी अहम निर्णय लेगा। परिसीमन के नए परिणामों से जो भौगोलिक, सांप्रदायिक और जातिगत असमानताएं हैं वे दूर होंगी। नतीजतन जम्मू-कश्मीर एक नए उज्ज्वल चेहरे के रूप में पेश आएगा।

जम्मू-कश्मीर का करीब 60 प्रतिशत क्षेत्र लद्दाख में है। इसी क्षेत्र में लेह आता है। यह क्षेत्र पाकिस्तान और चीन की सीमाएं साझा करता है। यहां विधानसभा की मात्र चार सीटें थी, इसलिए राज्य सरकार इस क्षेत्र के विकास को कोई तरजीह नहीं देती थी। लिहाजा आजादी के बाद से ही इस क्षेत्र के लोगों में केंद्र शासित प्रदेश बनाने की चिंगारी सुलग रही थी। इस मांग के लिए 1989 में लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन का गठन हुआ और तभी से यह संस्था कश्मीर से अलग होने का आंदोलन छेड़े हुए है। वर्ष 2002 में लद्दाख यूनियन टेरेटरी फ्रंट के अस्तित्व में आने के बाद इस मांग ने राजनीतिक रूप ले लिया।

2005 में इस फ्रंट ने लेह हिल डेवलपमेंट काउंसिल की 26 में से 24 सीटें जीत ली थीं। इस सफलता के बाद इसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इसी मुद्दे के आधार पर 2004 में थुप्स्तन छिवांग सांसद बने। वर्ष 2014 में छिवांग फिर लद्दाख से भाजपा के सांसद बने। वर्ष 2019 में भाजपा ने लद्दाख से जमयांग सेरिंग नामग्याल को उम्मीदवार बनाया और वे जीत भी गए। लेह-लद्दाख क्षेत्र में विषम हिमालयी भौगोलिक परिस्थितियों के कारण अधिकांश सड़कें साल में छह माह लगभग बंद रहती हैं। सड़क मार्गाे व पुलों का विकास नहीं होने के कारण यहां के लोग अपने ही क्षेत्र में सिमटकर रह जाते हैं।

जम्मू-कश्मीर में अंतिम बार 1995 में परिसीमन हुआ था। राज्य का संविधान कहता है कि हर 10 साल में परिसीमन जारी रखते हुए जनसंख्सा के घनत्व के आधार पर विधान व लोकसभा क्षेत्रें का निर्धारण होना चाहिए। राज्य में 2005 में परिसीमन होना था, लेकिन 2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला ने राज्य संविधान में संशोधन कर 2026 तक इस पर रोक लगा दी थी। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने वर्ष 2002 में कुलदीप सिंह आयोग गठित कर परिसीमन प्रक्रिया शुरू की थी। अब्दुल्ला और सईद घरानों की यह मिलीभगत आजादी के बाद से ही रही है कि इस राज्य में इन दो परिवारों के अलावा अन्य कोई व्यत्तिफ़ शासन न कर पाए?

जम्मू-कश्मीर में विधानसभा की कुल 111 सीटें हैं। इनमें से 24 सीटें पाक अधिकृत कश्मीर क्षेत्र यानी पीओके में हैं। इस उम्मीद के चलते ये सीटें खाली रहती हैं कि एक न एक दिन पीओके भारत के कब्जे में आ जाएगा। बाकी 87 सीटों पर चुनाव होता है। इस समय कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में चार विधानसभा सीटें हैं। वर्ष 2011 की जनगण्ना के आधार पर जम्मू संभाग की जनसंख्या 53,78,538 है। यह प्रांत की 42-89 प्रतिशत आबादी है। राज्य का 25-9 फीसद क्षेत्र जम्मू संभाग में आता है। इस क्षेत्र में विधानसभा की 37 सीटें आती हैं। दूसरी तरफ कश्मीर घाटी की आबादी 68,88,475 है। प्रदेश की आबादी का यह 54-93 प्रतिशत भाग है। कश्मीर संभाग का क्षेत्रफल राज्य के क्षेत्रफल का 15-7 प्रतिशत है। यहां से कुल 46 विधायक चुने जाते हैं। इसके अलावा राज्य के 58-3 प्रतिशत वाले भू-भाग लद्दाख संभाग में महज चार विधानसभा सीटें थीं, जो अब लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद विलोपित कर दी जाएंगी।

स्पष्ट है कि जनसंख्या घनत्व और संभागवार भौगोलिक अनुपात में बड़ी असमानता है, जिसे दूर करना एक जिम्मेदार सरकार की जवाबदेही बनती है। परिसीमन के बाद अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए भी सीटों के आरक्षण की नई व्यवस्था लागू हो जाएगी। फिलहाल कश्मीर में एक भी सीट पर जातिगत आरक्षण की सुविधा नहीं है, जबकि इस क्षेत्र में 11 प्रतिशत गुर्जर बकरवाल और गद्दी जनजाति समुदायों की बड़ी आबादी रहती है। जम्मू क्षेत्र में सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं, लेकिन इनमें आजादी से लेकर अब तक क्षेत्र का बदलाव नहीं किया गया है।

वर्तमान स्थितियों में जम्मू क्षेत्र से ज्यादा विधायक कश्मीर क्षेत्र से चुनकर आते हैं, जबकि जम्मू क्षेत्र कश्मीर से बड़ा है। इसे लक्ष्य करते हुए तुलनात्मक दृष्टि से जम्मू संभाग में ज्यादा सीटें चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में यह भी विडंबना रही है कि राज्य में जो भी परिसीमन हुए हैं, उनमें भूगोल और जनसंख्या को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया है। नतीजतन जम्मू और लद्दाख संभागों से न्यायसंगत प्रतिनिधित्व राज्य विधानसभा में नहीं हो पा रहा है। भाजपा और जम्मू संभाग का नागरिक समाज इस असमानता को दूर करने की मांग 2008 से निरंतर कर रहा है, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई।

आतंकवाद के चलते यह राज्य ऐसी दुर्दशा और मानसिक अवसाद का शिकार हो गया है कि यहां बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय को छोड़, अन्य सभी समुदायों के लोग निराशा के भंवर में डूब व इतरा रहे हैं। उनका आबादी का प्रतिशत अच्छा-खासा है, बावजूद उन्हें अपनी ही मातृभूमि पर शरणार्थियों का जीवन जीना पड़ रहा है। 2011 जनगणना आंकड़ों के अनुसार जम्मू में हिंदू आबादी 65.2, कश्मीर में 1.84 और लद्दाख में 6.2 प्रतिशत है। बौद्ध आबादी जम्मू में 0.51, कश्मीर में 0.11 और लद्दाख में 45.8 प्रतिशत है। सिख आबादी जम्मू में 3.57, कश्मीर में 0.88 और लद्दाख में शून्य प्रतिशत है। जम्मू को छोड़ अन्य क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी अधिक है। जम्मू में यह 30.7 प्रतिशत, कश्मीर में 97.1 प्रतिशत और लद्दाख में 47.40 प्रतिशत है। 



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