कहानी - बुझते दिए की लौ

2019-09-01 0


बरसों बाद नूपुर से मिलकर एक बार फि़र जिंदगी खुशनुमा सी लगने लगी थी। लेकिन जिंदगी के इस मोड़ पर हमेशा के लिए एक-दूसरे का साथ पाना आज भी इतना आसान नहीं था।

पने वीरान से फ्रलैट से निकलकर मैं समय काटने के लिए सामने पार्क में चला गया। जिंदगी जीने और काटने में बड़ा अंतर होता है। पार्क के 2 चक्कर लगाने के बाद मैं दूर एकांत में पड़ी बैंच पर बैठ गया। यह मेरा लगभग रोज का कार्यक्रम होता है और अंधेरा होने तक यहीं पड़ा रहता हूं।

बाग के पास कुछ नया बन रहा था। वहां की पहली सीढ़ी अभी ताजा थी इसलिए उसको लांघ कर सीधे दूसरी सीढ़ी पर पहुंचने में लोगों को बहुत परेशानी हो रही थी। मैं लोगों की असुविधा को देखते हुए हाथ बढ़ाकर उन्हें ऊपर खींचता रहा। बडे़-बूढ़ों का पांव कांपता देख मैं पूरी ताकत से उन्हें ऊपर खींच रहा था पर बेहद आहिस्ता से।

हाथ दीजिए,’ कहकर मैं लगातार उस औरत को आगे आने को कहता और वह हर बार हिचकिचाकर सीढ़ियों की बगल में खड़ी हो जाती। हल्के भूरे रंग के सूट के ऊपर सफेद चुन्नी से उस ने अपना सिर ढांप रखा  था। मैंने फिर से आग्रह किया, ‘‘हाथ दीजिए, अब तो अंधेरा भी शुरू होने वाला है।’’

उसने धीरे से मुझे अपना हाथ पकड़ाया। मैंने जैसे ही उसके हाथ को स्पर्श किया उस के कोमल स्पर्श ने मुझे भीतर तक हिला दिया। इसी प्रक्रिया में उसे सहारा देते समय उसकी चुन्नी सिर से ढलककर कंधे पर आ गई। उसने मुझे देखते ही कहा, ‘‘तब तुम कहां थे जब मैंने इन हाथों का सहारा मांगा था?’’

‘‘तुम नूपुर हो न,’’ मैंने हैरान होकर पूछा।

‘‘शुक्र है, तुम्हारे होंठों पर मेरा नाम तो है,’’ कहते-कहते उसकी आंखों में पानी आ गया और वह सीढ़ियों से हटकर एक कोने में चली गई। मैं भी उस के पीछे-पीछे वहां आ गया। वह बोली, ‘‘मैंने परसों तुमको पार्क में देखा  तो इन आंखों को सहज विश्वास ही नहीं हुआ कि वह तुम हो-----कैसे हो?’’

‘‘ठीक ही हूं,’’ मैंने बुझे मन से कहा और उसका पता जानने के लिए अधीर होकर पूछा, ‘‘यहां कहां रहती हो?’’

‘‘सेक्टर 18 में। मेरे बडे़ भाई वहीं रहते हैं। जब मन बहुत उदास हो जाता है तो यहां आ जाती हूं।’’

मैं उसके चेहरे को देखता रहा। उसके बाल समय से पहले सफेदी पर थे। पर उसकी सफेद चुन्नी और सूनी मांग देखकर मैं सहम सा गया। कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं जुटा सका। दोनों के बीच में एक गहरा सा सन्नाटा पसर गया था। भाव व्यत्तफ़ करने के लिए शब्दों का अभाव लगने लगा। वर्षों की चुप्पी के बाद भी शब्दों को तलाशने में बहुत समय लग गया। खामोशी को तोड़ते हुए मैंने ही कहा, ‘‘चलो, दूर पार्क में चलकर बैठते हैं।’’

एक आज्ञाकारी बालक की तरह वह मेरे साथ चल दी थी। हमारे बीच का गहरा सन्नाटा मौन था। उसके बारे में सबकुछ जानने के लिए मैं बेहद उतावला हो रहा था पर बातें शुरू करने का सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था।

मरकरी लाइट के पोल के पास नीचे हरी घास में हम दोनों ही एक-दूसरे की मूक सहमति से बैठ गए। ठीक वैसे ही जैसे बचपन में बैठा करते थे। उसके  शरीर से छूकर आने वाली ठंडी हवा मुझे भीतर तक सुखद एहसास दे रही थी।

‘‘और कौन-कौन है यहां तुम्हारे साथ?’’ मैंने डूबते हुए दिल से पूछा।

‘‘कोई नहीं। बस मैं, भैया-भाभी और उनकी एक 8 साल की बेटी। और तुम्हारे साथ कौन है?’’

‘‘बस, मैं ही हूं,’’ मेरा स्वर उदास हो गया।

बातों-बातों में उसने बताया कि शादी के 10 साल बाद ही उसके पति एक सड़क दुर्घटना में चल बसे थे। एक बेटी है जो वनस्थली में पढ़ती है और वहीं हॉस्टल में रहती है। संयुत्तफ़ परिवार होने के नाते सब-कुछ वैसा चला जो नहीं चलना चाहिए था। उस घर में रहना और ताने सहना उसकी मजबूरी बन चुकी थी। पति के गुजर जाने के बाद कुछ दिन तो सहानुभूति में कट गए, बस उसके बाद सबने अपने-अपने कर्तव्यों से इतिश्री मान ली।

पिछले साल बेटी के हॉस्टल जाने के बाद थोड़ी राहत सी महसूस की पर मन बहुत ही उदास और अकेला हो गया। जिंदगी की लड़ाइयां कितनी भयंकर होती हैं, मन बहुत उदास होता है तो कुछ दिनों के लिए यहां चली आती हूं। सच, बहुत कुछ सहा है मैंने।’’ इतना कह कर वह बिलखती रही और मैं पाषाण बना चुपचाप उसका रुदन सुनता रहा। मेरे मन में इस इच्छा ने बार-बार जन्म लिया कि किसी न किसी बहाने उसे स्पर्श करूं, उसको सीने से लगाऊं, उसके लंबे केशों को सहलाकर उसे चुप करा दूं पर शुरू से ही संकोची स्वभाव का होने के कारण कुछ भी न कर पाया।

मेरी आंखें भर आईं। मैं मुंह दूसरी तरफ करके सुबकने लगा। एक लंबी ठंडी सांस लेकर मैंने कहा, ‘‘पता नहीं यह संयोग है कि तुम्हें एक बार फिर से देखने की हसरत पूरी हो गई।’’

बातों का क्रम बदलते हुए उसने अपनी आंखों को पोंछा और बोली, ‘‘तुमने अपने बारे में तो कुछ बताया ही नहीं।’’

‘‘मेरे पास तुम्हारे जैसा बताने लायक तो कुछ नहीं है,’’ मैंने कहा तो गहरे उद्वेग के साथ कही गई मेरी बातों में छिपी वेदना को उसने महसूस किया और मेरा हाथ जोर से दबाकर सब-कुछ कहकर मन हलका करने का संकेत दिया।

‘‘अपने से कहीं ऊंचे स्तर के परिवार में मेरा विवाह हो गया। पत्नी के स्वछंद एवं स्वतंत्र होने की जिद ने मुझे डंस लिया। अत्यधिक धन-संपदा ने भी इसको मुझसे दूर ही रखा । बात-बात पर झगड़कर मायके जाना और मायके वालों का मेरी पत्नी पर वरदहस्त, कुल मिलाकर हमारी बीच की दूरियां बढ़ाता ही रहा। वह चाहती थी कि मैं घरजमाई बन कर हर ऐशो-आराम की वस्तु का उपभोग करूं मगर मेरे जमीर को यह मंजूर नहीं था। 1-2 बार मेरे माता-पिता उसे मनाने समझाने भी गए पर उन्हें तुच्छ एवं असभ्य कहकर उसने बेइज्जत किया। फिर मैं वहां नहीं गया।

‘‘मेरे जुड़वां बेटा-बेटी हैं, उसी के पास रहते हैं। जब कभी मेरा मन बच्चों से मिलने को चाहता है मैं उन्हें कहीं बाहर बुलाकर मिल लेता हूं। उनके मन में मेरे प्रति न प्यार है न नफरत। जबसे मेरे ससुरजी का देहांत हुआ है, उसने दोनों बच्चों को हॉस्टल में भेज दिया है। पत्नी के मन में आज भी मेरे प्रति नफरत कूट-कूट कर भरी है। सारा जीवन बस, यों ही बीत गया।

 ‘‘जीवन कैसा भी बीते, पर उसे छोड़ने का मन ही नहीं करता। धीरे-धीरे यह दर्द मेरे जीवन का हिस्सा बन गया है, फिर तो अकेले ही जिंदगी जीने की जंग शुरू हो गई जो आज तक चल रही है। मैं पिछले 3 सालों से इसी शहर में हूं, और पास ही के एक बैंक में मैनेजर हूं। बस, यही है मेरी कहानी।’’

हम दोनों ही अतीत की यादों में खो गए। जिंदगी की किताब के पन्ने पलटते रहे एवं एक-एक पड़ाव जांचते रहे। यही भटकाव कभी-कभी आदमी के भविष्य की दिशा तय कर देता है। रात काफ़ी घिर चुकी थी। बड़े बेमन से हमने एक-दूसरे से विदा ली।

 

हम दोनों ही अतीत की यादों में खो गए। जिंदगी की किताब के पन्ने पलटते रहे एवं एक-एक पड़ाव जांचते रहे। यही भटकाव कभी-कभी आदमी के भविष्य की दिशा तय कर देता है। रात काफी घिर चुकी थी। बड़े बेमन से हमने एक-दूसरे से विदा ली।

नूपुर से मिलने के बाद मेरा दिल बहुत बेचैन हो गया था। खा ना खा ने का मन नहीं था इसलिए महरी को दरवाजे से ही वापस भेज दिया। मैं चाय का गिलास लिए ड्राइंग रूम में बैठ गया। सहसा स्मृति कलश से पुनः एक स्मृति उभरकर मुझे कई बरस पीछे ले गई। मेरे विचारों के तार कब अतीत से जुड़ गए पता ही न चला।

उस छोटे से शहर में कालोनी के कोने वाले मकान में वे लोग नए-नए आए थे। मां प्रतिदिन सवेरे टहलने जातीं तो नूपुर की मां का भी वही नित्यकर्म था। हम अपनी-अपनी मां के साथ पार्क में आते और जब तक मां टहलतीं पार्क में एक तरफ बैठ कर बातें करते रहते। हमउम्र होने के कारण हमारी आपस में बहुत बनने लगी। खेलते-खेलते कब जवान हो कर एक-दूसरे के करीब आ गए पता ही न चला।

दिन बीतते गए। हमारी खुशियों का कोई अंत नहीं था। मगर एक दिन सूर्याेदय होने से पहले ही सूर्यास्त हो गया। उसके पिताजी को दिल का दौरा पड़ा और वे सदा के लिए संसार से कूच कर गए। इस तरह एक दिन उस परिवार पर कहर टूट पड़ा।

उस रोज की शाम हर रोज की तरह नहीं हुई। जब तक मैं कालेज से आया उनका सामान ट्रक में लादा जा चुका था, पता चला वे लोग पूना अपने घर जा रहे हैं, मैं नूपुर से मिल भी नहीं सका। उससे मिलने की हसरत बस, मन में सिमटकर रह गई। न तोप चली न तलवार, न सूई चली न नश्तर पर हृदय पर ऐसा गहरा आघात लगा कि मैं ठीक से संभल न पाया।

मेरे तो प्राण ही निकल गए। वह साल बेहद उदासी में बीता। मैं पार्क में बैठकर पुरानी यादों को दोहराता रहता। मेरे पास उसका अब कोई संपर्क सूत्र भी नहीं था।

एम-कॉम- करने के बाद मेरी बैंक में नियुत्तिफ़ हो गई तो मुझे देहरादून जाना पड़ा। बातों का सिलसिला इसके बाद जाकर थम गया। लेकिन उसकी यादें मेरे मन में बनी रहीं।

एक बार दीवाली पर घर आया तो मां ने यों ही दिल के तार छेड़ दिए, ‘तुझे याद है। हमारे पड़ोस में वर्माजी रहते थे, वही जिन की बेटी नूपुर के साथ तू अक्सर खेला करता था।’

हां,’ मेरा दिल धक से कर गया, ‘कहां है वह?’

पिछले दिनों उसकी मां का फोन आया था। अपनी बेटी के रिश्ते की बात करने लगीं।’

तो क्या कहा आपने?’ मैंने उत्सुकता से सांसें थाम कर पूछा।

मैं भला क्या कहती। जब भी तुझसे रिश्ते की बात करती, तू टाल जाता था। मुझे लगा तेरे मन में कोई है और जब समय आएगा तू खुद ही बता देगा।’

नहीं, मां, मेरे मन में ऐसा कुछ भी नहीं था, न है,’ मैंने सारा संकोच त्याग कर मां से मनुहार की, ‘चाहो तो एक बार फिर से बात करके देख लो।’

और जब तक मां ने बात की, बहुत देर हो चुकी थी। मां ने रोंआसी सी होकर बताया कि नूपुर की शादी तेरे साथ करने को उनका बड़ा मन था और नूपुर की भी रजामंदी थी पर समय से मैं कुछ जवाब न दे सकी तो वह उदास हो गईं। अब तो नूपुर की सगाई भी हो चुकी है।

मेरा दिल भारी हो गया और अगले दिन ही मैं वापस देहरादून चला गया। उस जैसा फिर मन को कोई प्यारा न लगा। मैंने उस का अस्तित्व ही भुला देना चाहा पर भूलने के लिए भी मुझे हमेशा याद रखना पड़ा कि मुझे उसे भूलना है जो सहज न हो सका।

आज इतने सालों के बाद सारी बातों की पुनरावृत्ति ने मुझे झकझोर कर रख दिया। मैंने धीरे से आंखें मूंद लीं पर फिर भी आंसू का एक कतरा न जाने कहां से निकलकर मेरे गालों पर आ गया।

अगले दिन सुबह घूमने के लिए मैं बाहर जाने लगा तो दरवाजे पर नूपुर को देख कर रुक गया। हैरानगी से पूछा, ‘‘नूपुर, तुम?’’

‘‘घूमने जा रहे हो, चाय नहीं पिलाओगे, देखूं तो अकेले कैसे रह लेते हो।’’

उसके शब्दों के इस आक्रमण से मैं  सकपका सा गया परंतु उस के साथ रहने का कोई मौका भी गंवाना नहीं चाहता था सो बोला, ‘‘चलो, आज सैर रहने देता हूं।’’

‘‘नहीं, तुम जाओ, तब तक मैं चाय तैयार करती हूं,’’ अपने होंठों पर चिर-परिचित मुसकान के साथ नूपुर बोली, ‘‘नित्यकर्म नहीं छूटना चाहिए, चाहे शरीर छूट जाए,’’ उसने यह उसी अंदाज में कहा जैसे पार्क का चौकीदार टहलने वालों से कहा करता था। हम दोनों बीती बातों को याद कर हंस पड़े।

वह मेरे साथ ही घर के अंदर आ गई। दिन पखेरू की तरह उड़ने लगे। जिंदगी ने खुद ही खुशनुमा वारदात की शुरुआत कर दी। हमारा मिलनाजुलना लगातार जारी रहा और निरंतर एक-दूसरे को सहारा देते रहे। उसने भी अपनी छुट्टियाँ बढ़वा लीं।

उस दिन दोपहर से ही मेरा मन बहुत बेचैन और क्षुब्ध था। शाम होते-होते उसने वह बात बता दी जो मैं पहले से ही जानता था। मेरे पास आते ही साड़ी के पल्लू को उंगलियों पर इस तरह लपेट रही थी जैसे कोई महत्त्वपूर्ण बात कहने की भूमिका सोच रही हो।

‘‘मेरे स्कूल की छुट्टियाँ समाप्त होने जा रही हैं, कल वापस चली जाऊंगी।’’ यह सुनकर मुझे काठ मार गया। मैं तड़प उठा। बेहद धीमी आवाज में डूबते हुए दिल से पूछा, ‘‘फिर कब लौटोगी, क्या फैसला किया है?’’

‘‘कुछ फैसले हिसाब लगाकर नहीं किए जाते, जिंदगी खुद ही कर देती है।’’

‘‘फिर भी,’’ मैं उस के मुंह से सुनना चाहता था।

‘‘मैं नहीं जानती,’’ वह रोंआसी सी हो गई, फिर स्वयं को नियंत्रित कर लड़खड़ाते शब्दों में पूछा, ‘‘तुम----’’

‘‘मेरा क्या है---जब तक मन चाहा रह लूंगा। फिर ढलते सूरज का क्या पता कब अस्त हो जाए।’’

‘‘ऐसा क्यों कहते हो,’’ कहते हुए नूपुर ने मेरे कंधे पर सिर टिका दिया। मेरी सिसकियां रुलाई में फूट पड़ीं। प्रेम का एहसास इतना गहरा होता है, मैंने कभी सोचा भी न था। हम एक-दूसरे के बाहुपाश में बंध गए।

आखिर वह मनहूस घड़ी आ ही गई। मैं उसे स्टेशन तक छोड़ने गया। गाड़ी के जाने तक मैं भाग-दौड़ कर उस के लिए पानी और फलों का इंतजाम करता रहा। बड़े भारी मन से मैंने उसे विदा किया। मुझे लगा, लगातार मेरे शरीर का एक हिस्सा कटता जा रहा है पर मुझे तो अपने हिस्से की पीड़ा भोगनी थी, उसे अपने हिस्से की।

नूपुर क्या गई मेरा सारा सुख-चैन ही चला गया। मुझे सब-कुछ वीराना सा लगने लगा। बरसों तक जो बात सीने में छिपी थी वह फिर से पपड़ी पड़े घाव को कुरेद गई। वह न मिलती तो अच्छा था। मैं जल्द से जल्द घर पहुंचना चाहता था ताकि रास्ते में मुझे कोई रोता हुआ न देख ले।

नूपुर की यादों ने पुनः मुझे तोड़कर रख दिया। उसके बिना कुछ भी करने को मन नहीं करता। जब मन ज्यादा बेचैन होने लगता तो उसे लंबे-लंबे पत्र लिखता और फाड़ कर फेंक देता।

इस उम्र में जब मैं जिंदगी को समेटने में व्यस्त था, नूपुर के प्रति इतनी चाहत बनी रहेगी, यह पहले पता होता तो उससे कभी न मिलता। घंटे दिनों में बदल गए, दिन हफ्रतों में और हफ्रते महीनों में। हमारे बीच निरंतर संपर्क बना रहा। फोन की हर घंटी पर मैं दिल की धड़कन में तेजी महसूस करता।

मेरा वीआरएस (रिटायरमेंट) स्वीकृत हो गया। मैंने शहर से दूर पहाड़ी पर बनी कालोनी में एक फ्रलैट ले लिया और जब नूपुर को इस बारे में बताया तो वह बहुत खुश हुई। पूछा, ‘‘कब तक कब्जा मिलेगा?’’

‘‘वह सब तो मिल चुका है। बस, गृहप्रवेश बाकी है।’’

‘‘अच्छा, कब कर रहे हो गृह- प्रवेश?’’

‘‘जब तुम आ जाओ। मेरा इस दुनिया में और है ही कौन? 14 मार्च ठीक रहेगी।’’

‘‘समझ गई, तुम्हारे जन्मदिन वाले दिन। इससे अच्छा और कोई दिन हो भी नहीं सकता है। मैं कोशिश करूंगी पर मेरा इंतजार मत करना।’’

14 मार्च के दिन सुबह से ही मैंने घर धुलवाकर 2 गेंदे की मालाएं दरवाजे पर लटका दी थीं और मौली में आम के पत्ते बांध कर ऊपर तोरण बांध दिया। मुझे मां के कहे शब्द अचानक याद आ गए। वह कहा करती थीं, ‘‘बाहर दरवाजे पर आम के पत्ते मौली में गूंथ कर जरूर बांधना क्योंकि आम हमेशा हरा-भरा रहता है।’’

आम के पत्ते बांधने के बाद मेरी गृहस्थी कितनी हरी-भरी रही इस को देखने के लिए आज मां मेरे बीच नहीं थीं। उनके बारे में सोचकर मेरी आंखें भर आईं।

मैं मिठाई की दुकान से एक डब्बा काजू की कतली और नमकीन ले आया। दोनों ही नूपुर को बहुत पसंद थे। मुझे आशा ही नहीं विश्वास भी था कि नूपुर यहां पहुंचने का हरसंभव प्रयत्न करेगी।

मुझे नूपुर का ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। वह सीधी मेरे फ्रलैट पर आ गई। उस के साथ उसकी बेटी भी थी। एकदम वैसी ही जैसे नूपुर को मैंने बचपन में देखा था। मुझे देखकर उस का चेहरा खिल उठा तो मन में आया कि उसे सीने से लगा लूं। आज मेरे बच्चे भी इतने ही बड़े होंगे। रुंधे गले से मैं इतना ही कह पाया, ‘‘काश, आज मेरे बच्चे भी होते।’’

‘‘यह भी तो तुम्हारी ही बच्ची है, फिर भी अपने बच्चों को देखना चाहते हो तो सामने देखो,’’ उसने मेरे कंधों का सहारा लेकर सामने टैक्सी की तरफ इशारा किया, ‘‘मैं इन्हें हॉस्टल से लेकर आई हूं। मैं जानती थी कि पत्नी के मरने के बाद तुम इनकी कमी महसूस करोगे।’’

‘‘क्या वह नहीं रही?’’ मैं चौंक गया।

‘‘उन्हें गुजरे तो 6 माह हो गए हैं। उन्होंने जानबूझ कर तुमको नहीं बताया,’’ फिर मुझे एक तरफ ले जाकर बोली, ‘‘इन बच्चों के मन में तुम्हारे प्रति यह कहकर जहर भर दिया गया है कि तुम उन की अंत्येष्टि में भी नहीं आए। बड़ी मुश्किलों और आश्वासनों के साथ इनको यहां लाई हूं।’’

मुझे अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। मैं झट से नूपुर को साथ लेकर टैक्सी के पास गया और कस कर बच्चों से लिपट गया।

थोड़ी देर साथ रहने के बाद नूपुर वापस जाने लगी तो मेरा मन टूटने लगा। किस अधिकार से उसे रोकूं। फिर भी भरे कंठ से बोला, ‘‘रुक जाओ, नूपुर। मुझे इस तरह अकेला छोड़ कर मत जाओ।’’

वह खामोश असहजता को छिपाने का असफल प्रयत्न करती रही। उसकी चुप्पी मुझे निराश कर गई। एक दीर्घ ठंडी सांस लेकर मैंने पूछा, ‘‘नूपुर, क्या मेरा कोई अधिकार है तुम पर?’’

‘‘ऐसा शरीर में कोई कोना नहीं जहां तुम्हारा अधिकार न हो,’’ वह मेरी आंखों में झांकते हुए बोली थी। उस के शब्द मेरे दिल की गहराइयों में उतर गए। जैसे इस छोटे से वाक्य में जीवन का सारा निचोड़ समाया हो। फिर डबडबाई आंखों से बोली, ‘‘तुम क्या चाहते हो?’’

‘‘मैं तुम्हें चाहता हूं, नूपुर। क्या अब हम सब साथ-साथ नहीं रह सकते?’’

‘‘तुमने ऐसी वस्तु मांगी है जो पहले से ही तुम्हारी थी,’’ वह सिसकने लगी। शायद वह भी मुझसे सहारा चाहती थी।

मैंने एक बार बच्चों की तरफ देखा। मेरे मन के भावों को पढ़ते हुए नूपुर बोली, ‘‘अब ये बच्चे इतने नादान नहीं हैं। मैंने उन्हें अपने और तुम्हारे बारे में सब-कुछ साफ-साफ बता दिया है। कल पूरी रात बच्चे मेरे साथ थे। ये सब-कुछ समझते हैं।’’

मैंने दूर से बच्चों की तरफ देखा। तीनों बच्चे आंखों से इस रिश्ते को स्वीकार कर रहे थे। समय कब, कौन सी करवट बदले कोई नहीं जानता। इस नए बंधन की झुरझुरी हमारे मन के भीतर तक फैल गई। 



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