राष्ट्र की बात बदहाल हो चुके हैं देश के बड़े शहर

2019-09-01 0

हमारे शहरों की हालत खस्ता है। वैश्विक एजेंसियों के ताजा आंकड़े बताते हैं कि विश्व के 20 में से 15 सर्वाधिक प्रदूषित शहर भारत में हैं। जितनी तेजी से शहरीकरण हो रहा है और हालात बिगड़ रहे हैं, वैसे में आने वाले दिनों में सर्वाधिक प्रदूषित 30 शहरों में से 20 भारत के होंगे या ऐसे ही अन्य आंकड़े सुनने को मिलते रहेंगे। शहरों में यातायात रेंग रहा है। मुंबई में अब इसकी गति आठ किलोमीटर प्रति घंटा है, बेंगलूरु में हालत और खराब है। गूगल मैप को मेरा सुझाव है कि वह इसका नाम बदलकर वाटरलू कर दे।

हैदराबाद की स्थिति थोड़ी बेहतर हो सकती है, कोलकाता में भी सुधार हो रहा है। हालांकि इसके लिए वहां का आर्थिक पराभव उत्तरदायी है। दिल्ली के हालात निकट भविष्य में तो मुंबई या बेंगलूरु जैसे नहीं होंगे लेकिन वह तेजी से उस दिशा में बढ़ रही है। खासतौर पर अगर आप दिल्ली से गुरुग्राम या नोएडा का सफर कर रहे हैं। दिल्ली -मुंबई-कोलकाता-बेंगलुरु-हैदराबाद में 9 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं। उदाहरण के रूप में लें तो यह आबादी हमें जैसिंडा आर्डेन और केन विलियमसन जैसे नायक देने वाले देश न्यूजीलैंड की आबादी का 20 गुना है। इतना ही नहीं यह आबादी लक्जमबर्ग की आबादी के 150 गुना के बराबर है। मैं यूरोप के इस छोटे से खूबसूरत देश का जिक्र क्यों कर रहा हूं, यह आगे बताऊंगा। मुंबई की आबादी का 50 फीसदी झुग्गियों में रहता है। यह आबादी फिल्मों के सेट और गरीबों से संवेदना रखने और उन पर लिखने वाले उदारवादियों के लिए ठीक है लेकिन यहां एक बार फिर न्यूजीलैंड के बारे में सोचिए। हमारी वाणिज्यिक राजधानी की आबादी न्यूजीलैंड के दोगुना है और जीवन की परिस्थितियां भी बेहद खराब हैं। कोलकाता की स्थिति भी ठीक नहीं और बेंगलूरु तेजी से उस दिशा में बढ़ रहा है। देश का कोई शहर बिना झुग्गियों के नहीं है। यहां तक कि सरकार द्वारा योजनापूर्वक बसाया गया चंडीगढ़ भी नहीं।

मुंबई में जिसे झुग्गी कहा जाता है, दिल्ली में वह अवैध कालोनी कही जाती है। यहां जीवन स्तर उतना खराब नहीं रहता जितना मुंबई में लेकिन बहुत बेहतर स्थिति भी नहीं होती। चाहे जो भी हो, जितनी न्यूजीलैंड की कुल आबादी है, उतने लोग तो दिल्ली में अवैध तरीके से रहते हैं। हमारे सरकारी अस्पताल, चिकित्सा सुविधा और शिक्षा व्यवस्था की हालत खराब है। इन सभी जगहों पर भीड़ है और इनका स्तर उप सहारा अफ्रीका वाला है लेकिन दिल्ली  के सरकारी कॉलेजों में दाखीले के लिए हॉर्वर्ड के स्तर के अंक चाहिए।

अगर हमारे शहर इतने बुरे हैं तो लाखों लोग अपने अपेक्षाकृत बेहतर गांव छोड़कर इन शहरों में क्यों चले आते हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि गांवों की हालत भी बेहतर नहीं है। हवा की गुणवत्ता को छोड़ दें तो शेष सभी मानकों पर गांव शहरों से भी बदतर हैं। भले ही भारत दुनिया की सबसे बड़ी तीन या पांच अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो लेकिन शहरों को लेकर हमारी मानसिकता गांधीवादी आडंबर से प्रभावित है कि शहर बुरे होते हैं और गांव अच्छे। हमने आंबेडकर और गांधी का वह चर्चित संवाद सुना है जिसमें गांधी ने कहा था कि भारत गांवों में रहता है, जवाब में आंबेडकर ने सवाल कियाः लेकिन क्या ऐसा हमेशा चलता रहना चाहिए? केंद्रीय मंत्रिमंडल में हमेशा ग्रामीण विकास मंत्रलय रहा है लेकिन आजादी के बाद पांच दशकों तक शहरी विकास मंत्रलय नहीं रहा। भारत गांवों का देश है की रूमानियत ने देश के शहरों, उसके गरीबों का नुकसान किया जबकि गांवों को भी कोई फायदा नहीं पहुंचा।

यहां तक कि एपीजे अब्दुल कलाम के राष्ट्रपति रहते पुरा (शहरी सुविधाओं को गांव पहुंचाना) जैसे विचार के जरिए इसे और मजबूती दी गई। हर किसी ने इस विषय पर उनके पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन को सराहा लेकिन अलग हटकर हर किसी ने इस पर आशंका प्रकट की। पहली बात तो यह कि देश के गांवों की आर्थिकी इतनी मजबूत नहीं कि वे शहरों के स्तर का बुनियादी ढांचा तैयार कर सकें। राजनीतिक दल भी ग्रामीणों से पानी, बिजली या अन्य सुविधाओं का शुल्क लेने में हिचकते हैं। सवाल यह भी है कि जब हमारे शहरों की हालत इतनी बुरी है तो वह दरअसल किन सुविधाओं की बात कर रहे थे?

इस मानसिकता ने बहुत नुकसान पहुंचाया है और इसके दूरगामी परिणाम हैं। हम शहरों को बुरा और गांवों को अच्छा मानते हैं। ऐसे में शहरों का कभी सुनियोजित विकास ही नहीं हुआ। शहर झुग्गियों, बिल्डरों की बनाई इमारतों और माफियाओं के भरोसे रहे। हमारे शहर बिना बुनियादी ढांचे के विकसित होते हैं। इस ढांचे की जरूरत तीन पीढ़ी बाद महसूस होती है जब पानी, बिजली, सड़क और मेट्रो की आवश्यकता उठ खड़ी होती है। आनन-फानन में जरूरी उपाय किए जाते हैं लेकिन फिर भी लाखों की तादाद में कारें और दोपहिया पा²कग की जद्दोजहद में सड़कों पर जहां तहां खड़े किए जाते हैं। इसके शिकार केवल गरीब नहीं होते। मुंबई का फैंसी वर्ली-परेल विकास इसका उदाहरण है। बीते दो दशक में खासकर पुरानी कपड़ा मिल की जमीन पर ढेरों अपार्टमेंट और बिजनेस टावर बन गए हैं। ज्यादातर ने पानी, पार्किंग और सुरक्षा जैसा बुनियादी ढांचा खुद तैयार किया है। ये उन गरीब बस्तियों के बीच खड़ी इमारतें हैं जिनके पास सुविधाओं का अभाव है। गुरुग्राम की फैंसी इमारतों की बात करें तो इनके पास खुद के विशाल सेप्टिक टैंक और डीजल भंडार हैं। सेप्टिक टैंक इसलिए बने क्योंकि किसी ने देश के इस शानदार नए उत्तर-आधुनिक शहर के लिए सीवर लाइन बिछाने पर ध्यान नहीं दिया। दूसरा किसी को सरकारी क्षमताओं पर भरोसा नहीं था। आपको याद होगा कुछ वर्ष पहले मारुति फैक्टरी में श्रमिकों के असंतोष की खबर सामने आई थी। उस वत्तफ़ यूनियनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने बड़ी तादाद में कर्मचारियों की जान ली और उनके शव गटर और सीवर में फेंक दिए। तत्कालीन मुख्यमंत्री ने आत्मविश्वास भरा बयान दिया था कि यह झूठ है क्योंकि गुरुग्राम में कभी सीवर बनाया ही नहीं गया। इस सप्ताह यह स्तंभ लिखने की वजह बना बंबई उच्च न्यायालय का एक आदेश जिसके जरिये मुंबई की लंबे समय से लंबित तटीय सड़क परियोजना को रोक दिया गया है। 219 पन्नों के इस निर्णय को लिखा है मुख्य न्यायाधीश प्रदीप नंदरजोग और न्यायमूर्ति एन एम जामदार ने। लंबे अरसे के बाद इतना सरल सहज आदेश पढने को मिला। न्यायाधीशों ने उचित ही कहा है कि पर्यावरण और विकास के बीच कोई विवाद नहीं है लेकिन संतुलन और न्याय प्रक्रिया का पालन आवश्यक है।

उन्होंने इस परियोजना को व्यवहार्यता अथवा पर्यावरण को नुकसान के आधार पर नहीं रोका बल्कि इसकी तकनीकी वजह है। उनका कहना है कि यह परियोजना एक सड़क के रूप में मंजूर की गई लेकिन इसमें समुद्र का 90 हेक्टेयर इलाका लिया जाना है। ऐसे में यह एक भवन निर्माण परियोजना कहलाएगी भले ही ली गई जमीन का इस्तेमाल पार्क, बस पार्किंग, साइकिल ट्रैक या जॉगिंग ट्रैक बनाने में किया जाए। सरकार चाहे तो दोबारा मंजूरी की मांग कर सकती है लेकिन उसे यह मंजूरी शहर विकास परियोजना के रूप में लेनी होगी। आप भले नाराज हों लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता जीत गए हैं। फैसले को सावधानी से पढ़ें तो आपको रोना आएगा। मैं कानून को दोष न देते हए केवल एक बिंदु का उल्लेेख करूंगा जहां न्यायाधीशों ने कहा कि परियोजना को वन्यजीव मंजूरी की भी आवश्यकता है।

याची ने कहा था कि इससे तटवर्ती इलाकों में मूंगे की चट्टानें नष्ट होंगी। अदालत में पेश किए गए अध्ययन बता चुके हैं कि हाजी अली और वर्ली के निकट कुल चार वर्ग फीट इलाके में मूंगे की चट्टान  मिली हैं। सच यही है कि परियोजना पूरी होगी भले ही इसमें वत्तफ़ लगे और लागत 1,000 करोड़ रुपये ज्यादा हो जाए। मुझे नहीं पता कि मूंगा बचेगा या नहीं लेकिन मैं आशा करता हूं कि वह बचे। क्योंकि झोपड़पट्टी में रहने वाले प्रतीक्षा कर सकते हैं, तब तक कार्यकर्ता जश्न मना लें। यह ‘कोरल कल्पनालोक’ में रहने जैसा है। याद रहे दिल्ली मेट्रो और बसों में महिलाओं की निःशुल्क यात्र के पक्ष में दलील दी गई थी कि लक्जमबर्ग ऐसा कर चुका है। लक्जमबर्ग की आबादी 6 लाख है, यानी दिल्ली की आबादी का 3 फीसदी। उसकी प्रति व्यक्ति आय भारत की प्रति व्यत्तिफ़ आय का 55 गुना है। जब तक हमारे अपने लक्जमबर्ग रहेंगे और हम मानते रहेंगे कि चार फुट मूंगा दो करोड़ लोगों से बेहतर है, तब तक हमारे शहरों की हालत खस्ता रहेगी। इस बीच कहीं अधिक बदतर गांवों से लोगों का आना भी जारी रहेगा।



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