हाईब्रीड बीज महंगे और दोबारा बोने पर नहीं देते अच्छी पैदावार

2019-10-01 0

देश में किसानों की आमदनी बढ़ाने की बात हो रही है। टिकाऊ खेती की भी बात हो रही है और जीरो बजट से लेकर जैविक खेती की भी। लेकिन पूरी रणनीति में कहीं भी बीजों के समग्र विकास की चिंता नजर नहीं आ रही है और न ही देसी बीजों को बचाने की। जबकि देसी बीज ही हैं जो देश की जनसंख्या की भूख और किसानों की झोलियां भर सकते हैं।

हाईब्रिड यानी संकर बीजों की सबसे बड़ी समस्या है कि ये काफी महंगे हैं और इनमें से ज्यादातर दोबारा बीज के रूप में बोने पर पैदावार नहीं मिलती। महाराष्ट्र में कपास किसानों की बर्बादी और आत्महत्या के पीछे ऐसे ही मॉडिफाइड बीज हैं। यहां के किसानों ने जब से बीटी कॉटन उगाना शुरू किया, फसल बर्बादी और रोग कीट की जटिल जानलेवा समस्या में फंसते चले गए।

जबकि हकीकत यह है कि बढ़ती लागत और उपज का बेहतर मूल्य न मिलने से संकट का सामना कर रहे 60-70 फीसदी किसान अपने खेतों का ही बीज दूसरे साल प्रयोग करते रहे हैं। ऐसे में आर्थिक रूप से कमजोर किसानों के सामने किफायती मूल्यों पर गुणवत्ता वाले बीजों की समस्या है।

किसानों को प्रमाणित बीज उपलब्ध कराने के लिए 1963 राष्ट्रीय बीज निगम की स्थापना हुई थी, ये सरकारी संस्था करीब 600 किस्म के बीजों का उत्पादन करती है। कई दूसरी सहकारी संस्थाएं भी हैं लेकिन देश के करीब 600 करोड़ से ज्यादा के बीज कारोबार का 75 फीसदी हिस्सा निजी हाथों में है। जहां 500 से ज्यादा देसी विदेशी कंपनियां काबिज हैं।

देश में किसानों की आमदनी बढ़ाने की बात हो रही है। टिकाऊ खेती की भी बात हो रही है और जीरो बजट से लेकर जैविक खेती की भी। लेकिन पूरी रणनीति में कहीं भी बीजों के समग्र विकास की चिंता नजर नहीं आ रही है और न ही देसी बीजों को बचाने की। जबकि देसी बीज ही हैं जो देश की जनसंख्या की भूख और किसानों की झोलियां भर सकते हैं।

बीजों के समग्र विकास की चिंता नहीं

ग्रामीण मामलों के जानकार और देश के वरिष्ठ कृषि पत्रकार अरविंद कुमार सिंह अपने कॉलम ‘खेत-खलिहान’ में लिखते हैं, ‘देश में किसानों की आमदनी बढ़ाने की बात हो रही है। टिकाऊ खेती की भी बात हो रही है और जीरो बजट से लेकर जैविक खेती की भी। लेकिन पूरी रणनीति में कहीं भी बीजों के समग्र विकास की चिंता नजर नहीं आ रही है और न ही देसी बीजों को बचाने की। जबकि देसी बीज ही हैं जो देश की जनसंख्या की भूख और किसानों की झोलियां भर सकते हैं।’

भारत में दुनिया का तीसरा बड़ा बीज बैंक

देश में विलुप्त होती बीजों को संरक्षित करने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तहत राष्ट्रीय पौध आनुवांशिक संसाधन ब्यूरो(एनबीपीजीआर) ने राष्ट्रीय जीन बैंक बनाया है। ये दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा जीन बैंक है। यहां माइनस 20 डिग्री तामपान पर 4,34,946 बीज संरक्षित हैं।

एनबीपीजीआर में जर्मप्लाज संरक्षण विभाग की प्रमुख वैज्ञानिक डॉ- वीना गुप्ता कहती हैं, ‘देिखए मार्च में गेहूं पकता है। उस दौरान अगर 2 डिग्री तापमान ज्यादा हो जाए तो संकर किस्म के गेहूं के दाने मर जाते हैं, जिसका उत्पादन पर असर पड़ेगा। लेकिन हमारे पास ऐसी कई वेरायटी हैं जो इस बढ़ते तापमान में अच्छा उत्पादन देंगी। ऐसी किस्मों को और बढ़ावा दिए जाने की जरूरत है।’ किसान इसे अपनी भाषा में खेत होरा या लू लगना भी बोलते हैं।

एनबीपीजीआर में देश के विभिन्न इलाकों की देसी, परंपरागत और जंगल प्रजातियों के जीन को सुरक्षित रखा गया है। सरकारी या किसी निजी संस्था को बीज उत्पादन के लिए ये जरूरत के मुताबिक दिए जाते हैं। इस संस्थान में बीजों की संख्या साढ़े चार लाख के पार हो गई है।

जलवायु परिवर्तन के दौर में देसी बीज कैसे किसानों के लिए मुफीद हैं, डॉ- वीना गुप्ता समझाती हैं, ‘पचास डिग्री से लेकर माइनस 50 डिग्री तक तापमान जाता है। ऐसे में हमारे बीज परिस्थिति के हिसाब से ढले हुए हैं। देसी बीजों के जीन में कई तरह की क्वालिटी होती है, एक समस्या आती है तो जीन का दूसरा गुण उसे सही करने में मदद करता है। जबकि हाईब्रिड बीजों को एक विशेष रोग या वायरस से मुत्तफ़ बनाया जाता है लेकिन 10 साल बाद वो वायरस दोबारा उस पर हमला कर सकता है।’

डॉ- वीना देसी बीजों की हिमायत के साथ उनमें परिस्थिति और आज की जरूरत के अनुसार शोधन करते नए बीज तैयार करने पर जोर देती हैं। इस जीन बैंक में चावल, गेहूं, मक्का, बाजरा, चना, सरसों, बैंगन और आम सहित 15 श्रेणियों को प्राथमिकता दी गई है।

धान की 17 हजार से ज्यादा किस्में

भारत के जाने माने कृषि वैज्ञानिक डॉ- आर-एच- रिछारियां के नाम पर छत्तीसगढ़ में एक संस्थान हैं। जहां उनके द्वारा खोजी और सूचीबद्ध की गई धान की 17 हजार से ज्यादा किस्में हैं। डॉ- रिछारिया ने हरित क्रांति के दौर में गेहूं-धान की बौनी किस्मों और उसकी तकनीकों को चुनौती दी थी, उन्होंने साबित किया था कि देसी किस्में हरित क्रांति वाली किस्मों से कमतर नहीं हैं।

जिन्हें स्वास्थ्य और पोषण की समझ हो गई है वो देसी बीज को तवज्जो दे रहे हैं। पढ़े लिखे लोगों ने देसी बीजों के पोषक शत्तिफ़ को समझा है। मेरे जैसे कई सैकड़ों लोग इन बीजों को खोज, संरक्षित और संवर्धित कर रहे हैं। अभी यौगिग, प्राकृतिक या जैविक खेती करने वाले किसान मांग रहे हैं, रासायनिक खेती वाले किसान इससे दूर हैं।

- पीएस बारचे, प्रसार अधिकारी,

कृषि विभाग, मध्य प्रदेश

जिन्हें स्वास्थ्य और पोषण की समझ हो गई है वो देसी बीज को तवज्जो दे रहे हैं। पढ़े लिखे लोगों ने देसी बीजों के पोषक शत्तिफ़ को समझा है। मेरे जैसे कई सैकड़ों लोग इन बीजों को खोज, संरक्षित और संवर्धित कर रहे हैं। अभी यौगिक, प्राकृतिक या जैविक खेती करने वाले किसान मांग रहे हैं, रासायनिक खेती वाले किसान इससे दूर हैं।’ पीएस बारचे कहते हैं।

मध्य प्रदेश सरकार के कृषि विभाग में प्रसार अधिकारी पीएस बारचे देसी बीजों के लिए पूरे देश का चक्कर लगाते नजर आते हैं। वो किसानों को देसी बीज देते हैं यहां तक वो शादी और दूसरे समारोह में देसी बीज उपहार स्वरूप देने का चलन चला रहे हैं।

देश में कई संस्थाएं और सामाजिक लोग देसी बीजों को बचाने और उन्हें आगे बढ़ाने में लगे हैं। पप्रश्री सुभाष पालेकर, नागपुर में वर्षा से डॉ- विभा गुप्ता, देहरादून की पर्यावरणविद डॉ- वंदना शिवा, उत्तराखंड के विजय जड़धारी, ज्ञानेंद्र रावत, बाबूलाल दहिया, पीएस बारचे, आकाश चौरसिया जैसे देश के कई कोनों में लोग हैं जो इन बीजों को बचाने में सार्थक पहल कर रहे हैं।

देसी बीज की जरूरत क्यों

देसी बीज की जरूरत क्यों है, पीएस बारचे के आखिरी वाक्य से समझा जा सकता है, ‘पेट भरने के जुगाड़ में देश ये बीमार हो गया था।’

वो अपनी बात का अर्थ समझाते हैं, ‘भारत में अनाज तो खूब हो रहा है, लोगों को खाना भी मिल रहा है। लेकिन जिन चीजों से लोगों को पोषण मिल रहा, अनाज, फल और सब्जियां उनमें पोषक तत्व का अभाव है, कुपोषण से जूझ रहे देश की ज्यादातर बीमारियां संकर फसलों के प्रतिकूल प्रभावों और पोषण न होने से हैं।’ 



मासिक-पत्रिका

अन्य ख़बरें

न्यूज़ लेटर प्राप्त करें