काल के कपाल पर अपनी अमिट छाप छोड़ गए युग पुरुष अटल जी

2019-10-01 0

मैंने पहली बार अटलजी का भाषण सुना था। स्टेज पर ध्यान गया तो देखा एक सुगठित बदन का व्यक्ति बोल रहा था, सफ़ेद धोती-कुर्ता, हवा में फ़ड़कता दाहिना हाथ और वाक्यों के बीच में लम्बा विराम यह उनकी चिरपरिचित शैली आजीवन अटल रही। बाद में चुनाव परिणाम कासमाचार मिला कि अटलजी हार गए। मुझे राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं था फि़र भी बुरा लगा था।’

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई जी का जन्म 25 दिसंबर को हुआ था, उसी दिन ईसा मसीह का जन्मदिन भी होता है, जिसे दुनिया भर में बड़ा दिन के नाम से मनाते हैं। इसे संयोग ही कहेंगे कि ईसा मसीह को शूली पर चढ़ना पड़ा था और अटल जी लंबे समय तक पारशय्या पर लेटे रहे। भले ही इन दोनों की तुलना न की जा सकती हो लेकिन अटल जी में कुछ तो था जिसके कारण सारा देश उन्हें निर्विवाद रूप से सम्मान की नजरों से देखता था। उनकी विशेषता थी सीधी सपाट बात और वाणी का ओज, परन्तु सबसे विशेष है निश्छल स्वभाव और निर्भीक अभिव्यक्ति ।

अटल जी राजनीतिशास्त्र के छात्र थे और उनके पिताजी शायद हिन्दी के। दोनों ही कानपुर के डीएवी कालेज में एक साथ पढ़ते थे। यह बात मैंने साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ में पढ़ी थी जिसे शायद धर्मवीर भारती ने ‘झाड़े रहो कलक्टरगंज’ के शीर्षक से लिखी थी। शायद कलक्टरगंज में ही पिता-पुत्र छात्र जीवन में रहते थे।

मुझे याद है वह जमाना जब 1957 में अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ से सांसद का चुनाव लड़ रहे थे, उनका मुकाबला था कांग्रेस के पुलिन बिहारी बनर्जी से। मैं राजकीय जुबिली इन्टर कालेज में कक्षा 11 का छात्र था, राजा बाजार में रहता था। गाँव की पृष्ठभूमि से आने के कारण राजनेताओं की न कोई जानकारी थी और न राजनीति में कोई रुचि। संघर्षमय छात्र जीवन में इसके लिए समय नहीं था। राजा बाजार उन दिनों भारतीय जनसंघ का गढ़ था और लोगों का जोश देखते ही बनता था जब वे बुलन्द आवाज में कहते थे ‘अटल हमारा अटल रहेगा, इसीलिए तो जीतेगा’।

मैं उन दिनों अपने कॅालेज की तरफ से डिबेट प्रतियोगिताओं में भाग लेने जाया करता था शायद इसीलिए मुहल्ले के तिकोने पार्क की तरफ खिंचा चला गया था जहां अटल जी का भाषण हो रहा था। मैंने पहली बार अटलजी का भाषण सुना था। स्टेज पर ध्यान गया तो देखा एक सुगठित बदन का व्यत्तिफ़ बोल रहा था, सफेद धोती-कुर्ता, हवा में फड़कता दाहिना हाथ और वाक्यों के बीच में लम्बा विराम यह उनकी चिरपरिचित शैली आजीवन अटल रही। बाद में चुनाव परिणाम का समाचार मिला कि अटल जी हार गए। मुझे राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं था फिर भी बुरा लगा था। उनके भाषण की शैली बहुत आकर्षक थी। मैं अनेक बार अटल जी को प्रत्यक्ष और रेडियो पर सुना करता था और आवाज सुनाई पड़ी कि पैर ठिठुक जाते थे।

एक बार साठ के दशक में गंगा प्रसाद मेमोरियल हाल में उनकी मीटिंग थी, 1962 में चीन तथा 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध हो चुके थे तो अटल जी ने कहा था ‘‘हमें चीन के साथ वही भाषा बोलनी चाहिए जो भाषा वह समझता है’’। पाकिस्तान के लिए कुछ नहीं कहा। अखबारों में पढ़ा, अटल जी घोंघा बसंत कवि सम्मेलन में भाग लेने जाते थे। मुझे तो घोंघा बसन्त नाम ही अजीब लगता था। विनोदप्रिय होने के कारण गम्भीर से गम्भीर बात के लिए हाजिर जवाब थे। जब उनसे किसी ने पूछा आपकी जन्मकुण्डली क्या कहती है तो उनका उत्तर था मैं कर्म कुण्डली में विश्वास करता हूं। एक बार किसी ने उनसे पूछा जब संघ से आपकी नहीं बनती तो छोड़ क्यों नहीं देते तो उत्तर था ‘कम्बल नहीं छोड़ता’। शायद विचारधारा का कम्बल।

जब संसद में अटल जी बोलते थे तो सभी उन्हें ध्यान से सुनते थे। एक बार किसी सांसद ने कहा अटलजी आप बोलते समय हाथ बहुत चलाते हैं तो जवाब मिला ‘‘मैंने किसी को भाषण में पैर चलाते नहीं देखा’’। एक दिन अटल जी हाथ बांधकर बोल रहे थे तो इन्दिरा गांधी ने कहा आप हाथ नहीं चला रहे हैं तो उत्तर था ‘‘जब हाथ चलाता हूं तो आपको हिटलर नजर आता हूं’’। यह मैंने अखबारों में पढ़ा था। जब उनकी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता बलराज मधोक ने 1970 के दशक में अपनी पुस्तक ‘इंडियनाइजेशन ऑफ मुस्लिम्स’ यानी मुसलमानों का भारतीयकरण लिखा तो अटलजी बहुत अप्रसन्न हुए थे। स्वाभाविक है बलराज मधोक का नजरिया अलग था। भले ही अटल जी इस सोच को सहन नहीं कर सके थे फिर भी उनके जीवन का मूलमंत्र रहा ‘हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा’।

अन्ततः बलराज मधोक को जनसंघ से अलग होना पड़ा था। भारतीय जनसंघ की मूल विचारधारा थी हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्थान लेकिन अटलजी ने इसका तीखापन घटाया और उन्होंने 1967 में परस्पर विरोधी दलों के एक साथ काम करने की संस्कृति में योगदान दिया। उत्तर प्रदेश में संविद यानी संयुत्तफ़ विधायक दल की सरकार का गठन कराने में अहम भूमिका निभाई, कालान्तर में कई दलों को मिलाकर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जनता पार्टी के गठन में प्रभावी भूमिका निभाई। ये मिली-जुली सरकारें चलाने का प्रारम्भ और पूर्वाभ्यास था जो उनके प्रधानमंत्री बनने पर 1999 से 2004 में काम आया जब उन्होंने 19 दलों की गठबंधन सरकार चलाई।

लखनऊ का मुस्लिम समाज उनका प्रशंसक तो था ही देश और दुनिया के लोगों ने उनकी सहिष्णुता को हमेशा सराहा। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जब विदेश मंत्री बने तो उन्होंने हज यात्र की सब्सिडी बढ़ाई, पाकिस्तान के लिए पहली बार वीजा की सुविधा उपलब्ध कराई, लाहौर के लिए बस सेवा आरम्भ की और स्वयं भी गए। भारत-पाक रिश्तों की बर्फ पिघला दी।

बांग्लादेश बनने के बाद संसद में अटलजी ने इन्दिरा गांधी को दुर्गा का रूप कहा था या नहीं यह बहस का विषय हो सकता है परन्तु अपने विरोधियों के भले कामों की सराहना और अपनी भूलों को मजाकिया अन्दाज में स्वीकारना उनकी पहचान रही है।

अटल जी की पहचान राष्ट्रीय संघ के प्रचारक के रूप में ही रही और वह संसद में कभी संघ की आलोचना सहन नहीं करते थे, फिर भी अनेक बार उनकी सोच संघ से अलग रहती थी। उन्होंने 1977 में एक लेख में लिखा था कि संघ की शाखाओं पर मुसलमानों को आने की अनुमति होनी चाहिए। अपने को सेकुलर के रूप में तो कभी पेश नहीं किया परन्तु उनके विरोधी भी उनके सर्वधर्म समभाव की सोच की सराहना करते हैं।

बांग्लादेश बनने के बाद संसद में अटल जी ने इन्दिरा गांधी को दुर्गा का रूप कहा था या नहीं यह बहस का विषय हो सकता है परन्तु अपने विरोधियों के भले कामों की सराहना और अपनी भूलों को मजाकिया अन्दाज में स्वीकारना उनकी पहचान रही है। जब 1979 मे जनता पार्टी बनाने का प्रयोग विफल हुआ तो उनका बेबाक बयान था ‘दीप बुझाकर एक मशाल जलाई थी जिसमें रोशनी कम, धुआं ज्यादा है’।

जब 1980 में जनता पार्टी टूट गई तो अटल जी ने भारतीय जनसंघ को पुनर्जीवित नहीं किया बल्कि नए नाम और नए संविधान के साथ भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। आर्थिक परिकल्पना के रूप में उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के बजाय गांधीवादी समाजवाद को तरजीह दी। बहुतों को आश्चर्य और कष्ट हुआ था और विजयराजे सिंधिया ने तो खुलकर असहमति जताई थी। वह अपने को पार्टी अनुशासन से बंधा रखते थे और असहमति को अपने ही अन्दाज में व्यत्तफ़ करते थे। जब कुछ लोगों ने कहा अब अटल ही थक चुके हैं तो उन्होंने कहा था ‘मैं न तो टायर्ड हूं और न रिटायर्ड’।

राम जन्मभूमि आन्दोलन की आलोचना नहीं की लेकिन उसमें सक्रिय रूप से काम भी नहीं किया। जनता पार्टी के विदेश मंत्री के रूप में संयुत्तफ़ राष्ट्र संघ में उनका हिन्दी में दिया गया भाषण ऐतिहासिक अवश्य है परन्तु प्रधानमंत्री के रूप में लगातार अंग्रेजी में बोलते रहे। उत्तर और दक्षिण भारतीयों में सामंजस्य बनाया। वह अकेले ऐसे नेता थे जिन्होंने कहा था अगला प्रधानमंत्री दक्षिण भारत से होना चाहिए और संयोग से नरसिंहा राव अगले प्रधानमंत्री बन भी गए थे।

अटल जी के प्रशंसकों और समर्थकों को कई साल पहले लगा कि अटलजी को भारत रत्न न देकर पिछली सरकारों ने अन्याय किया है। अनावश्यक विवाद भी छिड़ गया। शुभचिन्तकों को समझना होगा कि जब किसी उपाधि को लेकर उसे देने वालों और पाने वालों पर तर्क-वितर्क होने लगे तो अटल जी जैसे व्यत्तिफ़त्व को ऐसे सम्मान का मोहताज कतई नहीं दिखना चाहिए। वह कभी दिखे भी नहीं। अटल जी का एक ऐसा व्यत्तिफ़त्व है, जिसने राजनेता के रूप में तात्कालिक लाभ के लिए कभी काम नहीं किया, खैरात नहीं बांटी बल्कि देश के लिए दूरगामी परिणामों की चिन्ता की।

प्रधानमंत्री के रूप में सन् 2000 में देश का मूल ढांचा मजबूत करने के कुछ कार्यक्रम आरम्भ कराए जैसे भारत की नदियों को आपस में जोड़ना, राजमार्गों का स्वर्णिम त्रिभुज यानी भारत के शहरों को उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक जोड़ना, सन् 2000 में आरम्भ किए ग्रामीण निर्धनता उन्मूलन के कार्यक्रम जैसे प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, सर्वशिक्षा अभियान आदि।

जब 2000 में गुजरात में दंगे हुए तो उन्होंने गुजरात सरकार को राजधर्म निभाने की सलाह दी थी परन्तु इस सलाह को उन्होंने प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाया। ऐसा अनेक बार हुआ कि, उन्होंने अच्छे कवि की तरह समस्या को उभारा, लोगों को उसका एहसास कराया परन्तु कठोर प्रशासक की तरह उसका हल नहीं किया। उनकी सरकार का एक धब्बा, कांधार विमान अपहरण ऐसी ही लचीली पृष्ठभूमि में सम्भव हुआ होगा। अटल जी को किसी पद से मोह नहीं रहा और उनका त्यागपत्र तैयार रहता था। राजस्थान के जयपुर अधिवेशन में अटल जी ने अपना त्यागपत्र देकर साहित्य की सेवा करने की इच्छा प्रकट की थी जिसे संगठन ने नहीं माना था।

मुम्बई से छपने वाले साप्ताहिक अखबार ब्लिट्ज के प्रधान सम्पादक आर के करांजिया ने 1970 के दशक में वाजपेयी को नेहरू का पाकेट एडीशन कहा था और इसे संयोग ही कहें कि जिस तरह पचास के दशक में नेहरू जी चीन के छलावे में आ गए थे उसी तरह अटल जी पाकिस्तान के छलावे में आ गए। शायद अटल जी को एक राजनेता अथवा कूटनीतिज्ञ के रूप में देखने के बजाय एक राष्ट्रपुरुष के रूप में देखना चाहिए। आशा करनी चाहिए कि उनकी पार्टी के लोग अटल जी को चुनाव के समय वोट के लिए नहीं बल्कि चुनाव के बाद उनकी कविताओं और विचारों को जनकल्याण के लिए प्रयोग करेंगे।

अटल जी का जीवन परिचय

25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर के एक निम्न मध्यमवर्ग परिवार में जन्मे वाजपेयी की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज और कानपुर के डीएवी कॉलेज में हुई। उन्होंने राजनीतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर किया और पत्रकारिता में अपना करियर शुरू किया। उन्होंने राष्ट्र धर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन का संपादन किया।

जनसंघ और बीजेपीः

1951 में वो भारतीय जन संघ के संस्थापक सदस्य थे। 1957 में जन संघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया। लखनऊ में वो चुनाव हार गए, मथुरा में उनकी जमानत जब्त हो गई लेकिन बलरामपुर से 1951 में वो भारतीय जन संघ के संस्थापक सदस्य थे। 1957 में जन संघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया। लखनऊ में वो चुनाव हार गए, मथुरा में उनकी जमानत जब्त हो गई लेकिन बलरामपुर से चुनाव जीतकर वो दूसरी लोकसभा में पहुंचे। अगले पांच दशकों के उनके संसदीय करियर की यह शुरुआत थी।

1968 से 1973 तक वो भारतीय जन संघ के अध्यक्ष रहे।

1977 में जनता पार्टी सरकार में उन्हें विदेश मंत्री बनाया गया।

1980 में वो भाजपा के संस्थापक सदस्य रहे।

1980 से 1986 तक वो भाजपा के अध्यक्ष रहे और इस दौरान वो भाजपा संसदीय दल के नेता भी रहे।

सांसद से प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी नौ बार लोकसभा के लिए चुने गए थे,

दूसरी लोकसभा से तेरहवीं लोकसभा तक, बीच में कुछ लोकसभाओं से उनकी अनुपस्थिति रही। खासतौर से 1984 में जब वो ग्वालियर में कांग्रेस के माधवराव सिंधिया के हाथों पराजित हो गए थे।

1962 से 1967 और 1986 में वो राज्यसभा के सदस्य भी रहे।

16 मई 1996 को वो पहली बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन लोकसभा में बहुमत साबित न कर पाने की वजह से 31 मई 1996 को उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा

1998 तक वो लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे। 1998 के आम चुनावों में सहयोगी पार्टियों के साथ उन्होंने लोकसभा में अपने गठबंधन का बहुमत सिद्ध किया और इस तरह एक बार फिर प्रधानमंत्री बने, लेकिन एआईएडीएमके द्वारा गठबंधन से समर्थन वापस ले लेने के बाद उनकी सरकार गिर गई और एक बार फिर आम चुनाव हुए।

1999 में हुए चुनाव राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साझा घोषणापत्र पर लड़े गए और इन चुनावों में वाजपेयी के नेतृत्व को एक प्रमुख मुद्दा बनाया गया। गठबंधन को बहुमत हासिल हुआ और वाजपेयी ने एक बार फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली। 



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