संतान को सेवक के रूप में देखा जाए या सहायक के?

2018-08-21 0

संतान को सेवक के रूप में देखा जाए या सहायक के?

सत्यशील अग्रवाल, मेरठ

जैसे -जैसे इन्सान उन्नति करता आ रहा है इन्सान के रहन-सहन एवं जीवन शैली में भारी बदलाव आता जा रहा है। गत पांच दशक से जीवन मूल्य तेजी से बदले हैं। आज पूरी दुनिया गला कट प्रतिस्प)ार् के दौर से गुजर रही है। बढ़ते भौतिकवाद ने आज की युवा पीढ़ी को तनावयुक्त कर दिया है। आज बचपन से ही इन्सान पर अनेक प्रकार के दबाव शुरू हो जाते हैं, जब पढ़-लिखकर अपना और परिवार की उम्मीदों को पूरा करने का अप्रत्याशित तनाव उसे झेलना होता है, यदि वह पढ़ाई-लिखाई में रुचि नहीं बना पाता है, तो उसको भावी जीवन कष्टकारी नजर आने लगता है और जो बच्चे पढ़ने-लिखने में सफ़लता पा लेते हैं और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेते हैं, उन्हें अपनी जिम्मेदारियां निभाना भी चुनौती भरा लगता है, वे सदैव समय के अभाव से जूझते रहते हैं। उस पर यदि परिवार के बुजुर्गों का सकारात्मक सहयोग न मिले तो उनके लिए जीवन अधिक कष्टदायक और तनावपूर्ण हो जाता है। उनके लिए दैनिक कार्यों, जिम्मेदारियों और बुजुर्गों की महत्वाकांक्षाओं के बीच सामंजस्य बनाना मुश्किल हो जाता है। इसी प्रकार से जो विद्याथÊ जीवन की चुनौतियों को पूर्ण कर पाने में असफ़ल रहते हैं, अनेक बार उनके लिए जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सारा जीवन संघर्ष करना होता है और तनाव भी झेलना पड़ता है। अपने आर्थिक साधनों के अभाव उसे परिवार की आर्थिक जिम्मेदारियों को पूर्ण न कर पाने की व्यथा मन में रहती है, और अपने स्वयं विलासितापूर्ण जीवन जीने, दुनिया की समस्त खुशियों को पाने की लालसा बनी रहती है। अतरू अपने माता-पिता को चाहते हुए भी उतनी सेवा नहीं कर पाता जैसी कि उसकी इच्छा होती है। अतरू संतान का सफ़ल न हो पाना अर्थात् लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाना भी माता-पिता के लिए कम कष्टकारी नहीं होता।

हम सभी चाहते हैं कि हमारी संतान खूब पढ़-लिखकर उच्च पदों पर आसीन हो अपने जीवन को समृ) होकर जिए उन्हें दुनिया की सभी सुख-सुविधाएं उपलब्ध हों। अतरू हम बचपन से ही अपनी संतान को अधिक से अधिक पढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। उसके लिए उच्च-स्तरीय जीवन जीने के सपने संजोते हैं। जब सौभाग्यवश वह अपने लक्ष्य को पाने में सफ़ल हो जाता है तो हमारी आकांक्षाएं बढ़ जाती हैं, हम चाहने लगते हैं कि अब वह हमारी सेवा करे। उसका सर्वप्रथम कर्तव्य हमारी सेवा करना होना चाहिए। क्या बड़े पद की जिम्मेदारियों को संभालते हुए यह संभव है कि सारे कार्य छोड़कर हर समय अपने बुजुर्गों की सेवा में लगा रहे? क्या यह आपको अच्छा लगेगा कि वह अपनी जिम्मेदारियों को नजरअंदाज कर आपकी सेवा में समय व्यतीत करे और अपनी साख को दांव पर लगा दे, अपने कार्य में पीछे रह जाये या अपने कारोबार में आर्थिक हानि के साथ-साथ उसमें उन्नति से वंचित रहे।

यदि वह अपने आर्थिक साधनों से आपकी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर देता है तो इसमें गलत क्या है? क्या उसका हर समय उपस्थित रहना या उसके कर कमलों से सेवा होना ही आवश्यक है? जब उसे बड़े पद पर लाने के प्रयास हमने किए थे तो उसकी वर्तमान जिम्मेदारियों को निभा पाने के लिए भी आशÊवाद हमें ही देना चाहिए। संतान से सेवा करवाना बुजुर्गों की विलासिता और स्वार्थपरता दिखाता है, इस आकांक्षा में कहीं न कहीं अपने मूल उद्देश्य में भटकाव झलकता है।

यदि हम सफ़ल एवं उच्च पद पर आसीन, उच्च कारोबार की मालिक संतान से सेवा करवाने की उम्मीद करते हैं, तो निश्चित रूप से उनसे अपनी दूरियां बना लेंगे। आत्मीयता कभी भी प्रताड़ना या खाफ़ै से नहीं आ सकती बल्कि प्यार और त्याग से ही प्राप्त की जा सकती है। यदि उन्हें आज भी वही प्यार दें जैसे उन्हें बचपन में देते थे, तो हमें भी उनसे प्यार और आत्मीयता मिल सकती है। बुजुर्गों द्वारा अपनी संतान को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करना कष्टकारी ही सि) हो सकता है। उसकी अपनी जिम्मेदारियों को अनदेखा कर अपनी सेवा की उम्मीद करना, आपके बड़प्पन के विरु) है। ऐसी स्थिति में परिवार में विघटन की संभावना बढ़ भी जाती है। अतरू परिस्थितियों को समझते हुए ही संतान से अपेक्षा करना बुजुर्ग व्यक्ति का बड़प्पन दर्शाता है। यदि आपकी संतान आपकी वृ)ावस्था में आपकी सहायक बनती है तो निश्चित ही आप भाग्यशाली हैं।


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