सुरक्षा के दबाव जनता की राजनीति

2018-08-21 0

सुरक्षा के दबाव जनता की राजनीति      

विभूति नारायण राय पूर्व आईपीएस अधिकारी

किसी राजनेता का सपना क्या सुरक्षा एजेंसियों का दुरूस्वप्न बन सकता है? कम से कम एक मामले में तो ऐसा ही लगता है। दिलचस्प यह है कि इसका सम्बंध स्वयं राजनेताओं की सुरक्षा से जुड़ा है। जनता से सीधा रिश्ता कायम करना हर राजनेता की कामना हो सकती है, हर राजनीतिक व्यक्ति एक ऐसे फ़ ोटोफ्रे म का हिस्सा होना चाहता है, जिसमें अपार जन-समुदाय को अपनी वक्तृता से हिलोरने वाला उसका मुस्कुराता चेहरा जड़ा हो। यही कामना उसकी सुरक्षा से जुड़े लोगों की नींद हराम कर सकती है। उनका बस चले, तो सुरक्षा की अपनी जिम्मेदारी को किसी कोने-अंतरे में छिपाकर रखें, जहां तक जनता की पहुंच ही न हो, लेकिन स्वाभाविक ही है कि नेता उनकी राय का मौका मिलते ही उल्लंघन करता है। जनता उसकी प्राण-वायु है और उससे दूर रहकर उसका दम घुटता है।

भारतीय संदर्भ में देखें, तो कई बार ऐसा हो चुका है। महात्मा गांधी की हत्या के षड्यं= की जानकारी तत्कालीन बंबई प्रान्त के गृहमं=ी मोरारजी देसाई से होती हुई देश के गृहमं=ी सरदार पटेल तक पहुंच गई थी और दस्तावेजों में उपलब्ध जानकारी के मुताबिक, गांधी जी ने अपनी प्रार्थना सभाओं में सुरक्षा केे लिए पुलिस की नियुक्ति या वहां आने वाले व्यक्तियों की तलाशी का सरकारी आदेश कारगर नहीं होने दिया। महात्मा होने के साथ गांधी एक राजनेता भी थे और जनता से सीधा संवाद उनके लिए निहायत जरूरी था। ऐसा ही कुछ हुआ श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ। इंटेलिजेंस ब्यूरो ने ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद सलाह दी थी कि उनकी सुरक्षा में नियुक्त सिख पुलिस कर्मियों को हटा दिया जाए, पर एक जमीनी राजनीतिज्ञ होने के कारण स्वाभाविक था कि इंदिरा जी ने इसे मानने से इन्कार कर दिया और उसकी कीमत भी चुकाई। राजीव गांधी को लेकर मेरा खुद का अनुभव इसी तरह का है, जब खालिस्तानी आन्दोलन के चरम पर होने और बार-बार हमारे अनुरोध के बावजूद वह अपने चुनाव क्षे= अमेठी में सुरक्षाकर्मियों को चकमा देकर अकेले निकल जाते थे। जनता के बीच जाने का मोह संवरण न कर पाने के फ़ लस्वरूप ही उनका दुरूखद अंत भी हुआ।

आज जब मीडिया में प्रधानमं=ी नरेन्द्र मोदी की सुरक्षा को लेकर एसपीजी और खुफि़ या एजेंसियों के हवाले से खबरें छप रही हैं, तो स्वाभाविक रूप से इस तरफ़ ध्यान जाएगा। यह तो उनके विरोधी भी मानते हैं कि जनता से जैसा सीधा तादात्म्य वह कायम कर लेते हैं, वैसा कम ही प्रधानमं=ी कर पाते थे। उनके पहले जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी या अटल बिहारी वाजपेयी ही लाखों की भीड़ को बांधे रख सकते थे। आज उनके दल या गठबंधन में किसी अन्य की कद-काठी ऐसी नहीं है कि जिसके नाम पर भारत में कहीं भी बड़ी भीड़ इक-ी की जा सके और जो लोगों को देर तक खुद को सुनवा सके।

वक्तृता एक कला है और उन्होंने इसमें महारत हासिल कर ली है। अपनी इसी क्षमता के बल पर उन्होंने गुजरात के हालिया चुनाव में लगभग हारी हुई बाजी पलट दी थी। भाषणों के अलावा अपने लम्बे रोड शो के जरिए भी वह मतदाताओं से सीधा संवाद करते हैं। भले ही यह तर्क दिया जाता हो कि उनके भाषणों में कोई महत्वपूर्ण अंतर्वस्तु नहीं होती, पर सार्वजनिक वक्तृता के सबसे महत्वपूर्ण गुण-नाटकीयता, श्रोताओं से तादात्म्य स्थापित कर सकने वाली शब्दावली और भीड़ में हुंकारी भरने के लिए प्रतिब) श्रोताओं की उपस्थिति- सब कुछ उनके पास है, जो भीड़ को मं=-मुग्ध रख सकता है। ऐसे में, अगर सुरक्षा एजेंसियां प्रधानमं=ी मोदी को उनकी सुरक्षा के नाम पर जनता से दूर रखने की कोशिश करेंगी, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि इसका प्रभाव क्या पड़ेगा? 2014 के आम चुनाव के पहले देश भर में फ़ैले संघ कार्यकर्ताओं और कॉरपोरेट मीडिया द्वारा सप्रयास मोदी की एक ऐसी छवि निर्मित की गई, जिसने भारतीय जनमानस को तेजी से अपनी ओर आकर्षित किया। इस छवि के आगे सारी स्थापित छवियां ढह गईं और मोदी को एक अखिल भारतीय स्वीकृति मिली। असर भी तत्काल दिखा, जब उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम, हर कोने में उनकी सभाओं में उमड़ी भीड़ उनके प्रश्नों पर उछल-उछलकर उनके मनमाफि़ क उत्तर देती दिखी। इस नए मोदी ने सिफ़र् विरोधी पक्ष के कद्दावर नेताओं की कद-काठी छोटी नहीं, वरन भाजपा के वरिष्ठ नेताओं का महत्व भी कम कर दिया। इससे मोदी को निर्विवाद स्वीकार्यता तो मिली है, पर उनकी पाटÊ के सामने नया संकट खड़ा हो गया है। यदि सुरक्षा कारणों से मोदी को जनता से दूर रहना पड़ा, तो अब पाटÊ के पास बड़े कद का कोई नेता नहीं बचा है, जो सभाओं में भीड़ बटोर सके, उससे सीधा रिश्ता कायम कर सके या उसे मतदान केन्द्रों तक लाकर अपने पक्ष में मतदान के लिए प्रेरित कर सके। यह शायद सत्ता का क्रूर पक्ष भी है। आजादी के शुरुआती वर्षों को छोड़ दें तो कांग्रेस ने भी हमेशा एक ही स्टार प्रचारक रहने दिया है। ऐसे में मोदी और भाजपा सुरक्षा तं= की सलाह मानकर जनता से दूरी बना पाएंगे? मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो पायेगा। भू-राजनीतिक या आंतरिक तर्कों के कारण हर भारतीय प्रधानमं=ी की सुरक्षा को खतरा रहता है, इसके लिए मोदी जितना सक्रि य होना जरूरी नहीं है। कुछ लोग समझाने की कोशिश कर रहे हैं, पर सुरक्षा एजेंसियों के आकलन को हमें सहानुभूति प्रचार का हथकंडा कहकर हल्के में नहीं लेना चाहिए। एक प्रधानमं=ी की हत्या की हमने बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। इस स्थिति में राजनेता के सपनों और सुरक्षा की बाध्यताओं के मध्य तालमेल बिठाना होगा।  कुछ महीने बाद, जब चुनावी ज्वर अपने ऊ शन पर होगा, यह चुनौती और बढ़ जाएगी। एसपीजी, आईबी या दूसरी सुरक्षा एजेंसियों के लिए कमर कसने का समय आ गया है।



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