डॉ- डी-आर- अग्रवाल का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान

2018-08-01 0

डॉ- डी-आर- अग्रवाल का शिक्षा के क्षेत्र  में योगदान

सादगी के पुंज डॉ- डी-आर- अग्रवाल गत 57 वर्ष से निरंतर बिना ब्रेक के शिक्षा के क्षे= में अपना योगदान दे रहे हैं। अर्थशास्= एवं गणित के विशेषज्ञ-एम-ए-, एम-एस-सी- व पीएचडी हैं। मूलतरू खुर्जा उत्तर प्रदेश के निवासी डॉ- अग्रवाल ने हरियाणा को अपनी कर्मभूमि बनाया। द्रोणाचार्य राजकीय महाविद्यालय में वर्षों तक अध्यापन कार्य किया। आपने कुरुक्षे= विश्वविद्यालय में भी काफ़ी समय तक अध्यापन कार्य किया। हरियाणा सरकार की मेवात डेवेलपमेंट एजेंसी में कई वर्ष तक प्रोजेक्ट इकोनॉमिस्ट के पद पर रहे। आप हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रहे व वर्तमान सांस्कृतिक संस्था श्सुरुच्यि के अध्यक्ष भी हैं तथा आईएमटी यूनिवर्सिटी में वरिष्ठ छात्रें को पढ़ाते हैं। आपने शिक्षा के क्षे= में अनेक शोध कार्य किए व अर्थशास्= एवं गणित पुस्तकें भी लिखीं। आपके द्वारा लिखित पुस्तकें भारत के कई विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं। आपने कई विश्व कीर्तिमान स्थापित किए व आपका नाम श्गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्य, श्इण्डिया बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्य एवं श्लिमका बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्य मेें शामिल है।

मैं हूं बनफ़ूल - मेरा खिलना क्या?

ये शब्द प्रसि) गीतकार भारत भूषण जी के एक गीत के हैं जो मेरे दिल को सदैव स्पर्श करते रहे और मैं सोचता रहा कि कई लोग सोचते हैं और धनात्मक सोचते हैं, अच्छा सोचते हैं, सही सोचते हैं। कर्म प्रधान लोग भाग्यवादिता को भुला तो नहीं पाते परन्तु अपने कर्मों के आधार पर ही सब कुछ लिख लेते हैं। यहां कर्म पुराने हैं, कई जन्मों के हैं, नए हैं तथा कुछ अच्छे और कुछ कर्म पुराने हैं, कई जन्मों के हैं, नए हैं तथा कुछ अच्छे और कुछ बुरे दोनों हैं। किस जन्म के किस कर्म का फ़ल कब मिले और कैसा मिले, यह कहना कोई टी-वी- पर आने वाले संतों से सीखे जिनके पास पूर्वानुमान लगाने के लिए बहुत-सी उपाधियां और अलंकरण हैं। परन्तु इन तक पहुंचने के लिए समाज के कुछ ही वर्गों के लिए मार्ग सुलभ हैं और ये भी सभी लोगों तक पहुंचना नहीं चाहते। यदि सभी लोगों के कष्ट सदैव के लिए समाप्त हो गए तब उस स्थिति में शेष क्या बचेगा। पं- सम्पूर्णानन्द ने सही कहा था कि वह ज्वालामुखी एक दिन फ़ूटेगा और समाज की बुराई ही नहीं बल्कि भलाई को भी समाप्त कर देगा।

गीतकार भारत भूषण जी ने अपने गीत की रचना किस मनोस्थिति के साथ की थी, यह तो वे जानें परन्तु मैंने यह गीत कई बार उनके मधुर कंठ से सुना है और सन्दर्भ सहित व्याख्या करने का दुरूसाहस भी किया है क्योंकि मैं साहित्य मर्मज्ञ नहीं हूं। स्थिति यह है कि एक बनफ़ूल स्वतरू जन्म लेता है और माखनलाल चतुर्वेदी की भांति यह चाहता है कि मालिन आये और उसे भी चुनकर ले जाये जिससे कि महारानी के गजरे का भाग बनकर मैं भी सौभाग्यशाली श्रेणी में अपना स्थान बनाउं, उसकी अपेक्षा निरन्तर बनी रहती है, उत्सुकता मालिन की डाली की प्रतीक्षा करता है। वह नित्य प्रातरू आती है, फ़ूल चुनने और रानी के लिए गजरा बनाने के लिए। इसी कारण शृंगार नारी का मौलिक अधिकार है, सजना और संवरना कौन नहीं चाहेगी? यदि अन्य बातें समान हों। महाराजा दशरथ रानी कैकेयी को शृंगार रहित देखकर हतप्रभ हो जाते हैं, अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं और हिसाब लगाने लगते हैं अपने दिए हुए वचनों का। उन्हें क्या पता था कि उनके मुंह से निकले शब्द सूर्यवंशी सम्राट के लिए पत्थर की लकीर बन जाएंगे। राम का राजतिलक वे देखना चाहते थे परन्तु देख न सके। चल बसे अपनी अन्तिम यात्र को-राम के वियोग में। श्रवण कुमार के पूज्य माता-पिता जो दिव्यांग थे उनके द्वारा कहे हुए शब्द उन्हें बार-बार स्मरण होने लगे और पश्चाताप की अग्नि में जलने लगे। ऐसी ही स्थितियां हमारे धर्मिक ग्रन्थों में अनेक हैं जो बार-बार हमसे अपने पुराने कर्मों का हिसाब मांगती हैं और हम श्किंगकर्त्तव्यविमूढ़्य की स्थिति में फ़ंस जाते हैं। याद करने लगते हैं कि अमुक व्यक्ति ने तो कोई भी कर्म अपने जीवन में अच्छा किया नहीं, फि़र भी उसका कुछ बिगड़ा नहीं। सफ़लता के द्वार हर ओर से उसे खुला निमं=ण दे रहे हैं कि श्आपका हार्दिक अभिनंदन्य, हर द्वार पर यही लिखा है। कहीं से भी जाओ हर ओर जय श्रीराम के नारे गूंजते हैं।

अब अपने बनफ़ूल की स्थिति फि़र देखते हैं, उसका क्या हुआ? धैर्य की सीमा तो नहीं लांघ गया, अपनी मर्यादा तो नहीं भूल गया, आदि अनेक प्रश्न हमारे मस्तिष्क में आते हैं। कल्पना के सागर में गोते लगाने को मन कर रहा है। स्नान किया जाये जिससे थोड़ी नींद खुले और सही विचारों का प्रवाह हो। बनफ़ूल जितने दिन बीतते हैं उतनी ही आतुरता से अपने चुनने की और अपनी बारी की प्रतीक्षा करता है। प्रतीक्षा के पल बहुत भयंकर होते हैं क्योंकि यहां सपने बुनता है, एक ताना-बाना तैयार करता है, कल का भविष्य सुनहरा होगा, मेरा भी युग होगा जब रानी के हारों का मैं भी एक भाग बनूंगा। जब व्यक्ति जाल में फ़ंस जाता है तब मछली की तरह तड़पता है और उसका भविष्य निर्धरित हो जाता है। एक ही लक्ष्य वह अपना भाग्य मान लेता है।

बनफ़ूल की भी यही दशा होती है-मालिन पता नहीं क्यों उसे ही नहीं चुनती। हमें यहां जन्म और मृत्यु का रहस्य समझ में आता है। मालिन आपको चुने या न चुने यह उसकी इच्छा है और यह इच्छा उसका अधिकार है। यहां हम मौन हैं क्योंकि विवशता है। बनफ़ूल की भी यही स्थिति होती है, वह एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद स्वतरू डाली से गिर जाता है और झर जाता है-पंचतत्व में मिलने के लिए। न उसे किसी ने जन्म दिया, न पाला, न पोसा न पल्लवित किया, न श्रम बिन्दु बहाया। प्रकृति ने उसे जन्म दिया और प्रकृति ने ही उसे पंचतत्वों में विलीन कर दिया। न जन्म पर कोई उत्सव और न ही उसकी मृत्यु पर कोई श्र)ा-सुमन अर्पित करने आया।

समाज के संदर्भ में भी ऐसे ही बनफ़ूल जैसी स्थिति लेकर जन्म लेते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। न गाना, न बजाना, न कोई नृत्य, न कोई पाटÊ, न उत्तीर्ण/अनुत्तीर्ण होने का झंझट, न माता-पिता का कोई दबाव और मरने पर न कोई रोने वाला और न कोई रोने वाली। जन्म के साथ सब कुछ निश्चित-किसी ज्योतिषाचार्य की आवश्यकता नहीं। उसकी प्रगति और प्रतिष्ठा सब कुछ निश्चित। मत बनता है और वह अपनी श्इच्छा से उसे डाल पाये यह भी निश्चित नहीं है।

कभी-कभी हमें नींद जगाती है। 



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