फ़कीर मोहन सेनापति की मशहूर कहानी डाकमुंशी

2018-08-01 0

फ़कीर मोहन सेनापति की मशहूर कहानी डाकमुंशी

फ़कीर मोहन सेनापति का जन्म ओडिशा के बालेश्वर जिले के मल्लिकासपुर गांव में 13 जनवरी, 1843 में हुआ। उड़िया साहित्य के इस कथा -सम्राट् की कहानियों और उपन्यासों में तत्कालीन समाज के अति नगण्य, दीनहीन चरित्र  सारिआ, भगिआ दिखाई देते हैं। उनकी लिखी कहानियों में 'रेवती' , पैटेंट  मेडिसिन्, 'डाकमुंशी ', सभ्य जमींदार्य प्रमुख हैं।

हिन्दी साहित्य में प्रेमचन्द्र और उड़िया साहित्य में फ़कीर मोहन को समतुल्य माना जाता है। दोनों लेखकों की कहानियों में तत्कालीन समाज में अनुभूत भारत की सामाजिक, रजनीतिक, आर्थनीतिक और सांस्कृतिक अवस्थाओं का सम्यक् रूपायन किया गया है। उन्होंने रामायण, गीता, उपनिषद् आदि ग्रंथों का उड़िया भाषा में अनुवाद भी किया है। फ़कीर मोहन की मशहूर कहानी श्डाकमुंशी्य एक अंग्रेजी पढ़े युवक गोपाल की कहानी है, जो अपने बूढ़े ग्रामीण पिता हरि सिंह को बेघर कर देता है। तत्कालीन समाज और उसकी व्यवस्था पर चोट करने वाली इस कहानी को आज भी खूब सराहा जाता है। 14 जून 1918 को इस महान साहित्यकार का निधन हो गया।

फ़कीर मोहन सेनापति की कहानी 'डाकमुंशी' दिनेश कुमार माली द्वारा हिन्दी अनुवाद-

हरि सिंह सरकारी कामकाजों में अब तक कई छोटे-बड़े कस्बों में स्थानांतरित हो चुके थे। अब वह दस साल से कटक हेड पोस्ट-ऑफि़स में काम कर रहे हैं। अच्छी कार्यशैली होने के कारण उन्हें प्रमोशन मिलते रहे। अब वे हेड चपरासी हैं। मासिक वेतन नौ रुपए। कटक शहर में सब कुछ खरीदना पड़ता है। आग जलाने के लिए माचिस की पेटी भी खरीदनी पड़ती थी। पेट काटकर जितना भी बचाओ, मगर पांच रुपए से कम खर्च नहीं आता था। किसी भी हालत में घर में कम से कम चार रुपए नहीं भेजने से नहीं चलता था। घर में पत्नी और आठ साल का बेटा था गोपाल। छोटे से गांव की जगह थी। इसलिए चार रुपए में जैसे-तैसे काम चल जाता था। अगर चार रुपए से एक पैसा कम हुआ तो मुश्किल हो जाती थी। गोपाल माध्यमिक विद्यालय में पढ़ रहा था। स्कूल की फ़ीस महीने में दो आने थी। स्कूल फ़ीस के अलावा किताबें खरीदने के लिए कुछ ज्यादा पैसे लग जाते थे। जब कुछ अतिरिक्त खर्च आ जाता था तो वह महीना मुश्किल से गुजरता था। कभी-कभार बूढ़े को भूखा तक रहना पड़ता था। वह भूखा रहे तो कोई बात नहीं मगर उसके बेटे की पढ़ाई तो चल रही थी।

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एक दिन पोस्ट मास्टर सर्विस बुक खोलकर बतलाने लगे, श्हरि सिंह, तुम पचपन साल के हो गये हो। अब तुम्हें पेंशन मिलेगी। अब तुम नौकरी में नहीं रह सकोगे।्य

सिंह के सिर पर वज्रपात हो गया। क्या करेगा? घर-संसार कैसे चलेगा? घर की बात छोड़ो, गोपाल की पढ़ाई ठप्प हो जाएगी। जबसे गोपाल पैदा हुआ है तब से हरि सिंह ने मन में एक सपना संजोकर रखा है गोपाल कस्बे के पोस्ट-ऑफि़स में सब पोस्ट-मास्टर होगा। कम से कम गांव में पोस्ट-मास्टर तो होगा ही। परन्तु थोड़ी-सी अंग्रेजी नहीं आने से नौकरी मिलना मुश्किल है। कस्बे में अंग्रेजी पढ़ने की व्यवस्था नहीं है। इसलिए कटक भेजकर उसे पढ़ाई करवाना उचित होगा। अगर नौकरी खत्म हो गई तो उसका सपना चूर-चूर हो जाएगा। यही बात सोच-सोचकर उसका शरीर शुष्क लकड़ी की तरह हो गया था। रात को आंखों से नींद गायब हो गयी थी।

हरि सिंह के ऊपर पोस्ट-मास्टर की मेहरबानी थी। उनके घर में नौकर होते हुए भी ऑफि़स का काम खत्म करने के बाद शाम को हरि सिंह पोस्ट-मास्टर के घर जाकर कुछ काम कर लेता था। शाम को अराम कुर्सी  में बैठकर पोस्ट-मास्टर अंग्रेजी समाचार पढ़ते समय तंबाकू की चिलम बनाता था। वह जैसे चिलम तैयार करता था, कोई नहीं कर पाता था। एक दिन हरि सिंह ने चिलम तैयार करके बाबू के सामने रखी। बाबू के मुंह से इंजिन की तरह भक-भक करके धुंआ निकलता था और नशे से आंखों की पलकें गिर जाती थीं। तब हरि सिंह को लगा, यह उचित समय है, हरि सिंह ने पोस्ट-मास्टर जी को साष्टांग दंडवत् करते हुए हाथ जोड़कर विनीत भाव से अपने दुरूख-दर्द को उनके सामने रखा। गोपाल के लिए उसने जो सपना बुना था, उसे भी बताना नहीं भूला। पोस्ट-मास्टर बाबू तन्द्रावस्था में थे। वे गंभीर मुद्रा में बोले, श्ठीक है, एक आवेदन-पत्र भरकर दे देना।

तुम आए नहीं!

बाबू जी यह कार्य सहज भाव से कर सकते थे। क्योंकि पोस्टल इंस्पेक्टर या अधीक्षक जब दौरे पर आते थे तब वे उनके बंगले में ही रुकते थे। वह उच्च अधिकारियों के लिए खाने-पीने की समुचित व्यवस्था भी करते थे। उस रात पोस्ट-मास्टर बाबू बार-बार श्हरि सिंह्य, श्हरि सिंह्य कहकर पुकार रहे थे। हरि सिंह बहुत अनुभवी आदमी था। कई सालों से बड़े-बड़े साहिबों को वह देख चुका था। वह अच्छी तरह से उनके मिजाज के बारे में जानता था। वह यह भी अच्छी तरह जानता था कि कौन साहिब किस तरीके से खुश होते हैं। उस दिन आधी रात तक हरि सिंह को पोस्ट-मास्टर बाबू के बंगले में रुकना पड़ा। क्योंकि ओडिशा के प्रदूषित वातावरण के कारण कहीं बाबू बीमार पड़ उल्टी करने ना लग जाए। उल्टी करने के समय हरि सिंह को सोडा, नींबू आदि की व्यवस्था करने के साथ-साथ बाबू जी को भी संभालना था। बाबू जी के आराम से सोने के बाद हरि सिंह आधी रात को अपने घर लौटकर खाना बनाने लगा था। इस प्रकार हरि सिंह अपने ऊपर के बड़े हाकिमों से परिचित था।

हरि सिंह के आवेदन-पत्र  में बाबूजी ने अपनी तरफ़ से अच्छी तरह सिफ़ारिश लिखकर शहर भेज दी थी। थोड़े ही दिनों के बाद एक्सटेंशन ऑर्डर आ गया था। हरि सिंह बहुत खुश हो गया। उसने यह खुशखबरी अपने गांव में भी भेज दी।

लोग तुरंत मिले सुख-दुरूख में खो जाते हैं, मगर भविष्य में विधाता ने जो उनके लिए तय किया है उस तरफ़  उनकी नजरें नहीं जाती हैं। हरि सिंह का यह सुख पानी के बुलबुले की तरह समाप्त हो गया। उसके घर से एक पत्र  आया कि गोपाल की मां को सन्निपात की बीमारी हो गयी है और उसके जीने की आशा नहीं के बराबर है। हरि सिंह ने पोस्ट-मास्टर बाबू को वह चि-ी दिखाई। बाबू बड़े ही दयालु स्वभाव के थे। तुरंत ही उसकी घर जाने की छुट्टी मंजूर कर दी। एक ही झटके में हरि सिंह अपने घर चला गया। घर पहुंचकर उसने जो देखा, उसे देखकर उसकी आंखों की चमक चली गई। यह संसार मानो अंधकार में लुप्त हो गया। उसकी पत्नी मरणासन्न थी। पति को धुंधली आंखों से देखते हुए दोनों हाथ उठाकर प्रणाम किया और चरण रज लेने के लिए इच्छा व्यक्त की। सिफ़र् चरण रज लेने के लिए उसकी सांसें अटकी हुई थी? उसके बाद सब शांत। हरि सिंह की दुनिया उजड़ गई। अपने घर का बचा-खुचा सामान बेचकर वह बेटे के साथ कटक लौट आया। गोपाल माइनर स्कूल द्धकक्षा सातऋ में पढ़ता था।

हरि सिंह की मुश्किल से गुजर-बसर हो रही थी, क्योंकि वह पेंशनभोगी हो गया था। कभी लोटा, तो कभी कांसे के बर्तन बेचकर किसी तरह घर चलाता था। जब नौकरी थी तब महीने में दो-चार आने रखकर बचत खाते में रखा करता था। गोपाल के माइनर स्कूल की पढ़ाई में सब खर्च हो गया था। हरि सिंह सोचा करता था कि गोपाल के माइनर पास करने के बाद सब कष्ट दूर हो जायेंगे। गोपाल ने भी कई बार इस बात पर आश्वासन दिया था। श्पिताजी भले मुझे कर्ज लेकर पढ़ाएं नौकरी लगने के बाद सारा कर्ज चुकता कर दूंगा।


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हरि सिंह की प्रार्थना दीनबंधु दीनानाथ ने सुन ली। हरि सिंह की खुशी की कोई सीमा नहीं रही। वहीं पुराने पोस्ट-मास्टर बाबू अभी भी नौकरी में थे। हरि सिंह ने उनके हाथ-पैर पकड़कर काफ़ी अनुनय विनय किया। हरि सिंह के ऊपर भी बड़े लोगों की कृपा-दृष्टि थी। गोपाल तुरंत भक्रामपुर पोस्ट-ऑफि़स में सब-पोस्ट मास्टर की हैसियत से नियुक्त हो गया। महीने में बीस रुपए की तनख्वाह थी। हरि सिंह खुशी से फ़ूले नहीं समा रहे थे। फि़लहाल सदर पोस्ट ऑफि़स से चार महीने प्रशिक्षण लेकर वह अपने कस्बे में लौट जाएगा।

हरि सिंह बार-बार भगवान के सामने नतमस्तक हो रहा था, श्धन्य प्रभु, तुम्हारी दया से मुझ जैसे दीन आदमी के दुरूखों का निवारण हो गया।्य

कैसे बदल गया हरि सिंह का जीवन--- नौकरी लगने की खबर जिस दिन बूढ़े को मिली थी उस रात अकेले में बैठकर खूब रोया था, श्हाय! आज अगर बूढ़ी जिन्दा होती तो कितना खुश होती। उसके गोपाल को बड़े साहिब की नौकरी मिली है। घर में उत्सव का माहौल हो जाता। हाय! अभागी की किस्मत में ये दिन देखने को नहीं थे। देखते-देखते गोपाल बड़ा साहिब बन गया। भगवान उसकी रक्षा कीजिए।

गोपाल ने पहले महीने की तनख्वाह लोकर बूढ़े के हाथ में दे दी। बूढ़ा बहुत खुश था। उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे। बेटा बड़ा साहिब बन गया है। बहुत सारा पैसा एक साथ कमाकर लाया है। रुपयों को चार-पांच बार गिनकर अपने अंटी में बांधकर रखा। अगले दिन हड़बड़ाकर वह बाजार की तरफ़ भागकर गया। जूते, कुर्ता, धोती जिन-जिन सामानों की जरूरत थी, सब खरीदकर लाया था। गोपाल बड़ा साहिब बन गया है। अब क्या वही पुराने कपड़े पहनेगा? ललाट देखकर तिलक लगाते हैं, उसी तरह कपड़ों की जरूरत थी।

यहां गोपाल बाबू ऑफि़स में बैठकर और पांच आदमियों की तरह अंग्रेजी लिखता था। बाबुओं के साथ उसका उठना-बैठना होने लगा। सभी उसे डाक मुंशी बाबू के नाम से बुलाते थे। पूरा नाम था गोपाल चन्द्र सिंह।

यहां गोपाल घर लौटकर देखता था बूढ़ा मैली धोती पहनकर काम कर रहा है-गोपाल किस तरह अच्छा खाना खाएगा?

वह  नहाया है या नहीं?

गीले कपड़े सूखे हैं या नहीं?

बेचारे के पास काम की कमी नहीं है।

ये सारी चिन्ताएं वह दिन भर करता था। पहले हरि सिंह कभी-कभार हरिनाम लिया करता था। कुछ दान-पुण्य करता था। अब गोपाल के लिए सब भूल चुका था। शायद भगवान यह सब देखकर बूढ़े के ऊपर गुस्सा हो गये थे। मानो कह रहे थे अरे बुि)हीन, ये सब क्या कर रहे हो? एक दिन तुम्हें सब पता चल जाएगा।

अब गोपाल बाबू के हाव-भाव में कुछ परिवर्तन होने लगा था। अब पिताजी को देखने से बिना किसी कारण से वह चिढ़ने लगा था। श्यह मूर्ख है, इसे अंग्रेजी मालूम नहीं है। मजदूर कहीं का, मैले-कुचौले कपड़े पहनने वाले इस आदमी को मैं पिताजी कहकर संबोधित करूंगा। लोग क्या सोचेंगे? उस दिन गाउन पहने हुए कुछ पढ़ी-लिखी औरतें खड़ी थी। बूढ़े के शरीर पर कमीज नहीं था। छिरू! छिरू! शरम नहीं आई उसको। अगर इसे घर से बाहर नहीं निकाला जाता है तो मेरी इज्जत का कबाड़ा हो जाएगा।

एक दिन डाकमुंशी बाबू पिताजी को कहने लगा, श्देखो, तुमने मेरे लिए कुछ भी नहीं किया है। मुझे पढ़ाकर कोई मेहरबानी नहीं की। मन है तो यहां रहो, नहीं तो यहां से चले जाओ। मगर याद रखना, अगर यहां रहना चाहते हो तो बाबू लोग आने पर घर के भीतर से बाहर मत निकलना। 'गोपाल की बात सुनकर बूढ़े का दिल दहल गया। वह एकदम गुमसुम होकर बैठ गया। अपने बेटे की बात वह किससे करता? उसके दिल में उस जगह घाव हो गया, जिसे वह किसी को दिखा भी नहीं सकता था। जिसके सामने वह अपने मन की बात रख सकता था, वह तो इस दुनिया से चल बस थी। उसे बूढ़ी की याद आने लगी। वह मन ही मन खूब रोने लगा। रोते-रोते उसने चारों तरफ़  दृष्टि डाली, मगर कोई भी भरोसे वाला आदमी नहीं मिला। बूढ़ा सुख-दुरूख में बूढ़ी को खूब याद करता था। बूढ़े ने रोना बंद किया क्योंकि उसके रोने से गोपाल का अनिष्ट होगा।

गोपाल अगले दिन सुबह किसी काम के लिए कस्बे की तरफ़ जा रहा था। मगर उसने यह बात बूढ़े को नहीं बताई। सुबह उठकर रुकी आवाज में कहने लगा, श्ऐ बाबा! मैं गांव जा रहा हूं। तुम ये सारा सामान लेकर आओ। ज्यादा सामान नहीं है। कुली क्यों करूंगा? कुली को देने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं।्य गोपाल बाबू कपड़े पहनकर बगल में छतरी डालकर लाठी घुमाते हुए निकल पड़े। अब बूढ़ा क्या करेगा? सारा सामान इक-ा करके पोटली बांधकर सिर पर रखकर चल पड़ा। वह ढंग से चल भी नहीं पा रहा था। उसके शरीर में अब वह ताकत नहीं बची थी। आंखों से आंसू टपकने लगे। जैसे-तैसे दस जगह उठते-बैठते हुए शाम तक वह मक्रमपुर में पहुंचा। विलम्ब होने के कारण बाबू ने उसे डांटा-फ़टकारा, बूढ़ा गुमसुम होकर बैठ गया। गोपाल बाबू सुबह-शाम ऑफि़स आने लगे। बूढ़ा घर में बैठकर घर-गृहस्थी का काम देखता था। कभी भी बाप-बेटा बैठकर सुख-दुरूख की बातें नहीं करते थे। डाक मुंशी यानी कस्बे के बड़े साहब। कितने लोग आकर नमस्ते करते थे। मूर्ख बूढ़ा क्या जानता है? जो उसके साथ बातचीत करेगा। कस्बे का जलवायु बूढ़े के लिए अनुकूल नहीं था। ज्वर होने लगा। खों-खों करके खांसने लगा। रात को कुछ ज्यादा ही खांसी होती थी। गोपाल बाबू के सोने के लिए परेशानी होने लगी। उसने अपने चपरासी को बुलाकर आदेश दिया, श्जाओ, इस बूढ़े को ले जाकर कहीं झाड़ियों मेें फ़ेंक दो।


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वह चपरासी मूर्ख था। अंग्रेजी उसे नहीं आती थी। फि़र भी वह देशी हृदय वाला था। वह सोचने लगा-क्या इस बूढ़े को ले जाकर झाड़ियों में छोड़कर आना उचित होगा? ज्वर से कांप रहा है। तीन दिन से पेट में एक भी दाना नहीं गया। आधी रात को अंधेरे में बाहर छोड़ना ठीक नहीं है। ठंड की वजह से बूढ़े की खांसी और ज्यादा बढ़ गई। गोपाल बाबू के गुस्से की सीमा नहीं रही। उसने बूढ़े के सीने में दो अंग्रेजी मुक्के जड़ दिये और बिस्तर-बिछौने को उठाकर बाहर फ़ेंक दिया। बूढ़ा अपने गांव को लौट गया। आस-पास के लोगों के मुंह से यह बात सुनने को मिल रही थी, उस दिन से गोपाल बाबू का मन बहुत खुश है और वहां बूढ़े ने भी अपने गांव लौटकर दो बीघा जमीन खेती करने के लिए मजदूरी पर दे दी। घर में बैठे-बैठे अनाज मिल जाता था। पेंशन के पैसों से कपड़ा-लत्ता और घर के परचूनी सामानों का खर्च निकल जाता था। जब से खांसी आ रही थी तब से वह अफ़ीम खाने का आदी हो गया। मगर उसका सारा खर्च आराम से निकल जाता था। बरामदे में बैठकर वह भगवान का नाम लेता था। अब बाप-बेटा दोनों खुश थे। पाठक महाशय दूसरों का सुख देखकर खुश होंगे। 



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